शनिवार, 26 जुलाई 2025

Chhattisgarh Tarkash 2025: अफसरों को सरकार की वार्निंग

 तरकश, 27 जुलाई 2025

संजय के. दीक्षित

अफसरों को सरकार की वार्निंग

34 हजार में स्टील का जग, एक हजार का चप्पल और एक लाख की टीवी...सरकारी खरीदी के इस एपिसोड ने आम आदमी को चौंकाया ही, सरकार को भी हिला कर रख दिया। हालांकि, इसके बाद सरकार हरकत में आई...ताजा अपडेट यह है कि सीएम सचिवालय ने सभी सचिवों और डायरेक्टर्स-कमिश्नरों को व्हाट्सएप मैसेज भेज कड़ी चेतावनी दी है। सचिवों और विभागाध्यक्षों से दो टूक कहा गया है कि फलां साहब ने बोला...फलां जी ने ऐसा करने कहा...नहीं चलेगा। आप खरीदी प्रक्रिया से लेकर उसके नियमों पर कड़ी नजर रखेंगे। और आगे से कोई भी गड़बड़ी होगी तो उसके लिए सीधे सचिव और एचओडी जिम्मेदार होंगे। जिला स्तर पर अगर कोई खरीदी हो रही तो निगरानी का दायित्व कलेक्टरों का होगा। अब देखना है कि इस चेतावनी से आएं-बाएं होने वाली सरकारी खरीदी पर कितना अंकुश लगता है?

वसूली का निज सचिव

सीएम सचिवालय ने सचिवों और एचओडी को चेतावनी जारी कर दिया मगर जब तक मंत्रियों के निज सचिवों को टाईट नहीं किया जाएगा, तब तक इसका कोई खास असर नहीं होगा। दरअसल, छत्तीसगढ़ में सरकारी खरीदी का नया ट्रेंड शुरू हो गया है। सचिवों का जो हिस्सा बनता था, वह मिल जा रहा मगर उसकी पूरी मॉनिटरिंग मंत्रियों के बंगले से हो रही है। 10 में से कम-से-कम आठ मंत्रियों के निज सचिव बंगले से पूरा खेल कर रहे हैं। बंगले से ही सप्लायरों से डील होती है। दो-एक मंत्री तो अपने निज सचिवों के जाल में फंसकर अपनी बरसों से बनी-बनाई छबि को तार-तार कर लिया है। खटराल निज सचिवों ने ऐसा चस्का लगा दिया कि पूछिए मत! आखिर, आई हुई लक्ष्मीजी को ठुकराने का साहस सबमें होता नहीं। ऐसे में, मंत्रियों के स्टॉफ की मनमानी बढ़ेगी ही। बात मिलियन की है...निज सचिवों पर सरकार ने अगर लगाम नहीं लगाया तो सरकार के साथ कई मंत्रियों की छबि धूल-धूसरित होगी। अब भला बताइये, अटलजी जैसे बीजेपी के प्रातः स्मरणीय नेता की प्रतिमा में कमीशन मांगा जाए तो फिर तो फिर इसके बाद कुछ बचता है क्या?

खरीदी का खेल

1000 का चप्पल और एक लाख की टीवी पर सोशल मीडिया में खूब ट्रेंड हुआ...मगर यह कुछ भी नहीं है। 2020 से लेकर 2022 तक आत्मानंद अंग्रेजी स्कूलों में डीएमएफ से खरीदी में सूबे के कलेक्टरों ने जो खेल किया, उसके सामने ये कुछ भी नहीं है। कई जिलों में सप्लायर लाल हो गए...25 हजार का डिजिटल बोर्ड कलेक्टरों ने डेढ़ से दो लाख में खरीदा था। इसी तरह फर्नीचर से लेकर यूनिफार्म, स्कूलों का रिनोवेशन के काम में कलेक्टरों ने करोड़ों पिट डाला। ये अलग बात है कि जो पकड़ा गया वह चोर, जो बच गया ईमानदार। सरकार आत्मानंद अंग्रेजी स्कूल की सिर्फ खरीदी की जांच करा दें तो कई आईएएस अधिकारियों की मुश्किलें बढ़ जाएंगी।

कमिश्नर सिस्टम में रोड़ा?

छत्तीसगढ़ में पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू करने गृह विभाग ने पुलिस महकमे से रिपोर्ट मंगाई थी। फर्स्ट फेज में रायपुर और भिलाई-दुर्ग को मिलाकर पुलिस कमिश्नरेट बनाने का प्लान था। रायपुर और दुर्ग पुलिस ने इसके लिए सरकार को विस्तृत रिपोर्ट भेज दी थी। मगर चार महीने से ज्यादा हो गया, रायपुर में पुलिस कमिश्नर बिठाने कोई सुगबुगाहट नहीं है। हालांकि, पहले भी कई बार रायपुर और बिलासपुर में पुलिस कमिश्नर बिठाने की बातें हुई मगर उसका क्रियान्वयन नहीं हो पाया। अलबत्ता, पिछली सरकार ने कमिश्नर सिस्टम लागू-लागू करते-करते रायपुर रेंज को दो हिस्सों में बांट दिया था। दिसंबर 2024 में सरकार बदली तो दोनों को एक किया गया। बहरहाल, एमपी गवर्नमेंट ने भोपाल, इंदौर और जबलपुर में पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू कर दिया है। छत्तीसगढ़, बिहार जैसे बहुत कम राज्य बच गए हैं, जहां अभी तक पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू नहीं हो पाया है। बहरहाल, रायपुर अगर पुलिस कमिश्नरेट बन गया तो आईजी स्तर का कमिश्नर होगा, वहीं एसपी स्तर के कम-से-कम चार डिप्टी पुलिस कमिश्नर होंगे। राजधानी बनने के बाद रायपुर में 25 साल में जिस तरह किसिम-किसिम के क्राइम बढ़े हैं, उसमें कमिश्नर सिस्टम अब जरूरत बन गया है। जाहिर है, पुलिस में रिफार्म की दिशा में भी यह बड़ा प्रयास होगा।

अस्पताल की मौत!

ये शीर्षक आपको अटपटा लग सकता है...अस्पताल में मरीजों की मौत होती है...अस्पताल भला कैसे मर सकता है। मगर रायपुर के डीकेएस सुपरस्पेशलिटी हॉस्पिटल के संदर्भ में यह शीर्षक मौजूं है। बीजेपी की तीसरी सरकार के दौरान इस खाली पड़े मंत्रालय भवन को सुपरस्पेशलिटी अस्पताल बनाने का मसविदा तैयार किया गया था, उसे पढ़कर कोई भी चकित हो जाएगा। एम्स की तरह इसे डेवलप किया जाना था। इसके सिविल वर्क के लिए पीडब्लूडी ने 19 करोड़ का बजट दिया था। मगर सीजीएमएससी ने उसे नौ करोड़ में कंप्लीट कर दिया। तब सीजीएमएससी में 40 परसेंट वाला हिसाब-किताब शुरू नहीं हुआ था। बहरहाल, डीकेएस का मसविदा में स्पष्ट तौर पर लिखा था कि दिल्ली एम्स की तरह आईएएस को इस अस्पताल का प्रशासक बनाया जाएगा। देश के नामी डॉक्टरों का पैकेज की बात आई तो सिस्टम में बैठे लोगों ने कहा कि सात-आठ लाख रुपए से कम में कोई सुपरस्पेशिलिटी वाला डॉक्टर रायपुर नहीं आएगा और चूकि चीफ सिकरेट्री का वेतन ढाई लाख है, इसलिए इससे अधिक डॉक्टरों को वेतन दिया नहीं जा सकता। इस पर तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री अजय चंद्राकर भड़क गए थे। बोले, चीफ सिकरेट्री का काम अलग है और डॉक्टर का काम अलग। चीफ सिकरेट्री राज्य की योजनाओं को एक्जीक्यूट करता है और डॉक्टर लोगों की जान बचाता है। इसलिए, अच्छे डॉक्टरों को बुलाने जितना लगे उतना देकर लाया जाए। बताते हैं, इसके लिए सीएम रमन सिंह भी तैयार हो गए थे। मगर अस्पताल पूर्ण स्वरूप में आता, तब तक विधानसभा चुनाव आ गया और सरकार चली गई। इसके बाद डीकेएस को सेपरेट संस्था बनाने और आईएएस पोस्ट करने की बजाए सिस्टम ने इसका गला घोंट दिया। डीकेएस को रायपुर मेडिकल कॉलेज के डीन के अधीन कर दिया गया। अब जरा सोचिए, जो लोग आंबेडकर अस्पताल को ठीक से नहीं चला पाए, वे सुपरस्पेशलिटी को कैसे चलाएंगे। और, वही हुआ...पिछले छह साल में डीकेएस अस्पताल तड़प-तड़पकर मरने जैसा हो गया। आज की तारीख में इस सुपरस्पेशलिटी हॉस्पिटल का कहीं कोई नाम नहीं सुनने में आता।

प्रायवेट अस्पतालों में हड़कंप

डीकेएस सुपरस्पेशलिटी के बारे में सरकार की प्लानिंग सुन प्रायवेट अस्पताल मालिक सहम गए थे। मंत्रालय से लेकर हर उस चौखट पर विरोध कराया गया, जहां से राहत मिल सकती थी। दरअसल, प्रायवेट अस्पताल की लॉबी नहीं चाहती कि कोई सरकारी अस्पताल सक्षम बने। यही वजह है कि सरकारी अस्पतालों में लाखों, करोड़ों की मशीनें तो खरीद ली जाती है मगर उसकी पेकिंग तक नहीं खोली जाती। और खुली भी तो महीने-दो महीने में कर दिया जाता है खराब घोषित। रायगढ़ निवासी मशहूर कार्डियोलॉजिस्ट डॉ0 राजीव राठी इस समय दिल्ली के मैक्स अस्पताल में हैं। अपने स्टेट को लेकर वे बड़े संजीदा रहते हैं। रमन सिंह की दूसरी पारी में उनके साथ स्वास्थ्य विभाग ने कंट्रेक्ट किया था कि महीने में दो बार रायपुर आकर वे आंबेडकर में मरीजों को देख जाए। मगर प्रायवेट अस्पताल से कमीशन लेने वाले आंबेडकर हॉस्पिटल के लोग बार-बार कैथलेब को खराब कर देते थे। ऐसे में, कई बार डॉ0 राठी को उल्टे पावं दिल्ली लौटना पड़ा। आंबेडकर अस्पताल वालों का लक्षण देख डॉ0 राठी ने रायपुर आना बंद कर दिया। उधर, डीकेएस सुपरस्पेशलिटी को फेल करने में आखिरकार 2019 में कामयाबी मिल गई। स्वास्थ्य विभाग ने आदेश जारी कर डीकेएस को रायपुर डीन के अधीन कर दिया। इसके साथ ही एम्स जैसे सरकारी संस्थान बनाने की प्लानिंग भी ध्वस्त हो गई।

छोटे नवाब, फॉर्चूनर गाड़ी

एक वो भी समय था, जब सरकारी अफसरों को पोस्ट के अनुसार गाड़ी दी जाती थी। छत्तीसगढ़ बनने के बाद भी करीब 2010 तक कलेक्टर, एसपी के पास एंबेसडर कार होती थी और उनके नीचे के अधिकारियों के पास बोलेरो या स्वीफ्ट, इंडिगो जैसी गाड़ियां। मगर उसके बाद छत्तीसगढ़ की अफसरशाही में रामराज आ गया। अब आलम यह है कि गाड़ियों से आप पहचान नहीं पाएंगे कि किसमें सिकरेट्री, कलेक्टर या एसपी साहब होंगे और किसमें एसडीएम, एसडीओपी या कोई ंक्लास टू का अफसर। इन दिनों मलाईदार विभागों के क्लास टू के अफसर भी इनोवा में चलते हैं और कलेक्टर, एसपी और सिकरेट्री भी। सिस्टम में किसका ओहदा बड़ा है, किसका छोटा...सूबे में यह फर्क मिट गया है। छत्तीसगढ़ के बड़े नौकरशाहों ने अपना दिल इतना बड़ा कर लिया है कि इन छोटी-मोटी बातों से इत्तेफाक नहीं रखते। फिलहाल, शीर्षक के हिसाब से बात छोटे नवाब, फार्चूनर गाड़ी की तो, यह मसला ट्राईबल विभाग से जुड़ा है। जाहिर है, यह विभाग हाल में 32 हजार का जग खरीदने को लेकर परम कुख्याती हासिल कर चुका है। इस विभाग के कुछ असिस्टेंट कमिश्नर 35 लाख की फॉचॅूनर गाड़ियों में चलते हैं। वे बकायदा कलेक्टर की मीटिंगों में भी जाते हैं। इससे समझा जा सकता है कि छत्तीसगढ़ में क्या चल रहा है।

फायनेंस का ब्रेकर खतम

हालांकि, वित्त विभाग का नियम है कि सरकारी अफसरों के लिए 10 लाख से अधिक की गाड़ियां नहीं खरीदी जा सकती। इससे अधिक की लेनी हो तो फायनेंस से स्वीकृति लेनी होगी। डीएस मिश्रा के फायनेंस सिकरेट्री रहते तक अफसर उनके आगे-पीछे चिरौरी करते रहते थे कि कृपा होने पर वे पंसदीदा गाड़ी खरीद सकें। मगर अब भारत सरकार की इतनी योजनाएं आ गईं कि फायनेंस से पूछने की कोई जरूरत नहीं। जो भी गाड़ी किराये से ले लो, बिल विभाग वहन करेगा। कई जिलों के कलेक्टर, एसपी जैसे अथॉरिटी माने जाने वाले अफसर भी किराये की गाड़ियों में आपको दिख जाएंगे। हालांकि, वित्त सचिव मुकेश बंसल ने कुछ महीने पहले किराये की गाड़िया हायर करने पर बंदिशें लगाई थीं मगर पता नहीं ऐसा क्या हुआ कि उन्होंने अपना आदेश वापिस ले लिया।

आईपीएस की पार्टी

अरसे बाद रायपुर के पुलिस ऑफिसर्स मेस में आईपीएस की फेमिली पार्टी हुई। रायपुर में पोस्टेड सारे आईपीएस के साथ ही राजधानी के आसपास के जिलों के कप्तानों को भी इसमें बुलाया गया। आईएएस की तो अक्सर कोई-न-कोई पार्टी होती रहती हैं। मंत्रालय वाले महीने में एक लंच का आयोजन कर लेते हैं...साल में आईएएस कांक्लेव भी हो जाता है। मगर आईपीएस अधिकारी इस तरह की गैदरिंग न होने से दुखी रहते थे। चलिये आईएएस अधिकारियों की ये शिकायत दूर हुई।

छत्तीसगढ़ से उपराष्ट्रपति?

यूपीए शासनकाल में उप राष्ट्रपति के लिए छत्तीसगढ़ के मोतीलाल वोरा का नाम चर्चा में था। मगर बाद में कांग्रेस ने वोट बैंक की दृष्टि से हमीद अंसारी को उप राष्ट्रपति बनाना मुनासिब समझा। इस समय जगदीप धनखड़ के इस्तीफे से देश की दूसरी सबसे बड़ी कुर्सी खाली है। भारत निर्वाचन आयोग ने उप राष्ट्रपति चुनाव के लिए प्रॉसेज प्रारंभ कर दिया है। रिटर्निंग ऑफिसर की नियुक्ति हो गई है। बहरहाल, छत्तीसगढ़ के पीसीसी अध्यक्ष दीपक बैज ने सात बार के सांसद तथा तीन राज्यों के राज्यपाल रहे रमेश बैस को इस चेयर पर बिठाने का पत्र लिखा है। हालांकि, विशुद्ध रूप से बैज द्वारा छोड़ा गया यह सियासी शगूफा है। मगर यह भी सत्य है कि उप राष्ट्रपति बनने लायक छत्तीसगढ़ में दो बड़े फेस तो हैं। इनमें से एक की किस्मत तो बड़ी तगड़ी है। वैसे भी राजनीति में कब किसके सितारे बुलंद हो जाए और कब बूझ जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता।

'टाटा' को झटका

ग्राम पंचायतों में नेटवर्किंग का काम करने वाली टाटा कंपनी को बड़ा झटका लगा है। भारत नेट परियोजना के तहत उसे पांच हजार से अधिक गांवों में इंटरनेट के लिए फाइबर बिछाना था। मगर 1600 करोड़ पेमेंट हो जाने के बाद भी पता चल रहा कि 50 के करीब गांव में ही इंटरनेट फंक्शन कर रहा है। टाटा कंपनी के खिलाफ 'चिप्स' ने तगड़ा एक्शन लेते हुए न केवल टेंडर निरस्त कर दिया है बल्कि 170 करोड़ की बैंक गारंटी जब्त कर ली है। जाहिर है, टाटा जैसी कंपनी का इतने बड़े स्तर पर कहीं बैंक गारंटी सीज नहीं हुई होगी। असल में, टाटा नेटवर्किंग कंपनी के अधिकारियों ने काम ही ऐसा किया...क्रेडिबल कंपनी का रेपो खुद से खराब कर दिया।

मंत्रिमंडल विस्तार

जिस तरह जगदीप धनखड़ ने उप राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देकर पूरे देश को चौंका दिया, उसी तरह भारतीय जनता पार्टी के नेता विष्णुदेव कैबिनेट का विस्तार की सूचना देकर लोगों को चकित कर दें तो बात अलग है। वरना, मंत्रिपरिषद विस्तार का मामला अब ठंडे बस्ते में ही समझिए। इस समय स्थिति यह है कि मंत्रिमंडल विस्तार पर सरकार से लेकर बीजेपी तक कोई बात करने तैयार नहीं है। मंत्री पद के दावेदारों को अब थोड़ी-बहुत उम्मीद बची है तो बिहार चुनाव से। बिहार में इस साल नवंबर में विधानसभा चुनाव है। यादव वोटरों पर डोरे डालने बीजेपी गजेंद्र यादव को मंत्री बना सकती है। संघ पृष्ठभूमि के गजेंद्र का नाम शुरू से चर्चाओं में है। सियासी पंडितों का कहना है कि गजेंद्र के भरोसे मंत्रिमंडल विस्तार हो गया तो ठीक है, नहीं तो फिर 10 मंत्रियों के भरोसे ही सब कुछ चलता रहेगा...जैसा कि इस समय चल रहा है।

अंत में दो सवाल आपसे

1. सिकरेट्री या प्रिंसिपल सिकरेट्री रैंक के आईएएस को स्टेट कैपिटल रीजन का सीईओ बनाया जाएगा, आप इस लायक तीन अफसरों का नाम बताइये?

2. आगरा यूनिवर्सिटी से छत्तीसगढ़ का क्या कनेक्शन है कि वहां के दो-दो प्रोफेसर यहां कुलपति बन गए?

शनिवार, 19 जुलाई 2025

Chhattisgarh Tarkash 2025: प्लेसमेंट का बड़ा खेल

 तरकश, 20 जुलाई 2025

संजय के. दीक्षित

प्लेसमेंट का बड़ा खेल

विधानसभा के प्रश्नकाल में कल अजय चंद्राकर के सवाल के जवाब में खुलासा हुआ कि राजधानी रायपुर में आठ साल पहले खुला दिव्यांग कॉलेज प्लेसमेंट के लोगों से संचालित हो रहा है। प्लेसमेंट के लोग वहां तबला वादन भी सीखा रहे और कंप्यूटर चलाना भी। कॉलेज के लिए स्वीकृत 31 पदों से 30 पद आठ साल से खाली हैं। कह सकते हैं, सिस्टम ने दिव्यांगों के कॉलेज को भी दिव्यांग बना दिया। बहरहाल, ये सिर्फ एक कॉलेज का मामला नहीं है। रायपुर के सरकारी डेंटल कॉलेज के प्रिंसिपल भी कई साल तक प्लेसमेंट में रहे। छत्तीसगढ़ में प्लेसमेंट का वायरस दशक भर पहले आया और अब कड़वा सच यह भी कि सरकार का कोई विभाग ऐसा नहीं, जो प्लेसमेंट नाम के वायरस से बचा हो। कई विभागों की स्थिति यह है कि वहां रेगुलर स्टॉफ से ज्यादा प्लेसमेंट के लोग हो गए हैं। चाहे वह इंद्रावती भवन हो या फिर मंत्रालय। मंत्रालय के प्यून भी प्लेसमेंट में हैं। दिक्कत यह है कि प्लेसमेंट के इन मुलाजिमों पर सरकार का पैसा भी खर्च हो रहा और विधानसभा के हर सत्र में उसे इस सवाल का सामना भी करना पड़ता है...फलां-फलां विभाग में इतना पद खाली क्यों?

प्लेसमेंट में बड़ा खेल-1

प्लेसमेंट एजेंसियों के लिए छत्तीसगढ़ चारागाह बनता जा रहा है। दस साल पहले जो कंपनियां लाखों में थीं अब करोड़ों में खेल रही हैं। छत्तीसगढ़ की शोहरत सुन देश भर से कंपनियां रायपुर भागे आ रही हैं। दरअसल, इस काम में प्लेसमेंट कंपनियों को सिर्फ फायदे-ही-फायदे हैं। इसमें अफसरों को एक बार उनकी कीमत दे दो उसके बाद फिर उसका दस गुना वसूलते रहो। बता दें, आजकल प्लेसमेंट में भर्ती के लिए भी लोगों को मोटा रिश्वत देना पड़ रहा है। शर्त ये भी होती है कि महीने की सेलरी का इतना परसेंट प्लेसमेंट एजेंसी को देना होगा। फिर, किस एजेंसी के कितने लोग कागजों पर काम कर रहे और कितने टेबल पर, इसे कोई देखता नहीं। जो देखने वाला है, वह पहले ही अपनी कीमत ले चुका होता है। बड़े अफसरों को उपकृत करने उनके कुछ नाते-रिश्तेदार या करीबी को लाखों की सेलरी में इंगेज कर देती हैं। कुल मिलाकर प्लेसमेंट के इस खेल में पिस रहे हैं तो वहां काम करने वाले कर्मचारी। पहले सरकारी नौकरी के लिए पैसे देने होते थे मगर अब प्लेसमेंट में भी घूस देने पड़ रहे, उपर से कुछ महीने में रिचार्ज कराने का झंझट भी। उपर से, प्लेसमेंट कर्मचारियों की कोई एकाउंटबिलिटी होती नहीं, सो कई ऐसी जानकारियां भी लीक हो रही, जो पहले गोपनीय होती थीं।

स्पीकर की नसीहत

दिव्यांग कॉलेज के खाली पदों का मामला विधानसभा में उठा तो समाज कल्याण मंत्री लक्ष्मी रजवाड़े ने विपक्ष पर ठीकरा फोड़ते हुए कहा कि 2017 में पद स्वीकृत हुए थे, 2018 में हमारी सरकार हार गई। इसके बाद कांग्रेस की सरकार ने पांच साल में कुछ नहीं किया। दरअसल, पिछले कुछ सत्रों में कई मंत्रियों ने पिछली सरकार का नाम लिया तो इसका औचित्य भी था। मगर अब काफी समय हो गया है। सो, विधानसभा अध्यक्ष डॉ. रमन सिंह ने इसे पकड़ लिया। उन्होंने तल्खी से कहा...आप ये कहकर बच नहीं सकतीं...अब आपको डेढ़ साल हो गया है...सीधा-सीधा बताइये कि आप कब तक व्यवस्था सुधार देंगी। स्पीकर के इस दो टूक पर मंत्री किंचित सकपकाई, फिर बोली...जल्द-से-जल्द वे कोशिश करेंगी।

जेम का खेल

छत्तीसगढ़ में करप्शन का रिकार्ड बन जाता। 32 हजार में स्टील का जग आदिवासी हॉस्टल में सप्लाई हो चुका होता...मगर उससे पहले पकड़ में आ गया। और, राज्य का नाम खराब होने से बच गया। दरअसल, जेम का यह खेल सिर्फ छत्तीसगढ़ में नहीं है। बाकी राज्यों में कार्रवाई होती है, इसलिए वहां सप्लायरों में डर होता है...छत्तीसगढ़ में आज तक किसी सप्लायर और अधिकारी को उल्टा टांगा नहीं गया, सो लिमिट क्रॉस कर गया है। खैर, सिस्टम के लिए यह गंभीर चिंतन का सब्जेक्ट हो सकता है कि सप्लायरों ने सरकारी मुलाजिमों के साथ मिलकर जेम का तोड़ निकाल लिया है, उससे निबटा कैसे जाए। छत्तीसगढ़ में सीजीएमएससी से लेकर जितने विभागों में सप्लाई के काम हो रहे, सभी में एक ही खेल चल रहा। पहले संबंधित अधिकारियों के साथ मिलकर डील कर लो। टेंडर में ऐसा क्लॉज जोड़ दिया जाएगा, जो वह कंपनी ही पूरी करती है। फिर एक ही सप्लायर कई फार्म बनाकर रखता है। अपने ही तीन फार्मों के नाम पर तीन टेंडर भर देगा। और एल1 के नाम पर काम हासिल कर लेता है। 32 हजार में स्टील का जग इसी तरह एल1 आ गया था। इन फार्मो का पता-ठिकाना खोजने जाने पर कोई किराना दुकान मिलेगा या फिर कोई मुहल्ले के बीच एक बंद पड़ा मामूली कमरा मिलेगा। अब वक्त आ गया है कि सप्लायरों के खेल का तोड़ निकाला जाएगा। उसी तरह जिस तरह जीएसटी सिकरेट्री ने जीएसटी चोरी को तोड़ निकाला है। जीएसटी से रेवेन्यू में तभी छत्तीसगढ़ ने सारे बड़े राज्यों को पीछे छोड़ दिया है।

सिस्टम पर सप्लायर भारी

कुछ अरसा पहले सीजीएमएससी में मोक्षित कारपोरेशन के इशारे के बिना पत्ता नहीं हिलता था। टेंडर, सप्लाई तो छोटी बात थी, सीजीएमएससी में किस अफसर की पोस्टिंग करनी है और किसे हटवाना, ये वही तय करता था। चलिये वो तो एक नमूना था...छत्तीसगढ़ में ऐसे कई मोक्षित हैं, जो खुला खेल...फर्रुखाबादी की तरह काम कर रहे हैं। पिछले कुछ सालों में वे इतने ताकतवर हो गए हैं कि उनका कोई कुछ कर भी नहीं सकता। उनकी नेटवर्किंग इतनी जबर्दस्त है कि मैदानी अफसरों से पहले उन्हें पता चल जाता है कि सरकार में क्या चल रहा, क्या खरीदी करनी है। और वे उन जिलों में धमक जाते हैं। उनके पास हर बीमारी का इलाज होता है। जन्मदिन से लेकर दशहरा, दिवाली में महंगे गिफ्ट भेंटकर सारे बड़े हाउसों को ऐसे सेट करके रखते हैं कि एक ने उनका काम रोका, तो दूसरी जगह, दूसरी नहीं तो तीसरी जगह से फोन करा देंगे। यहां से अगर बात नहीं बनी तो फिर यूपी या दिल्ली से कनेक्शन ढूंढ निकालेंगे। ऐसे में, छत्तीसगढ़ में ठेका, सप्लाई और टेंडर में करप्शन रोकना नामुमकिन जैसा प्रतीत होता है।

आईएएस को बदनाम, ट्रांसफर

सिस्टम पर सप्लायर किस कदर भारी पड़ रहे हैं, इस वाकये से आपको पता चल जाएगा। तीन-चार साल पहले की बात है। सीजीएमएससी में धोखे से एक ठीकठाक छबि वाले आईएएस को एमडी बना दिया गया था। चूकि अफसर ईमानदार होगा, तो मक्खी गिरा दूध नहीं पियेगा। सो, उसने सारे गड़बड़झालों की फाइलों को रोक दी। इसके बाद सप्लायरों ने ऐसा बवाल काटा कि पूछिए मत! हर तरफ एक ही चर्चा थी...फलां ने दवा और मेडिकल इक्विपमेंट की फाइलें रोक दी...कोई काम ही नहीं हो रहा...अस्पतालों में हाहाकार मचा हुआ है। इसका नतीजा यह हुआ कि आईएएस का वहां से ट्रांसफर हो गया। छत्तीसगढ़ में यह है सप्लायरों और ठेकेदारों का पावर।

छत्तीसगढ़ कैडर के ऐसे आईएएस

छत्तीसगढ़ कैडर के आईएएस रहे बीवीआर सुब्रमणियम विजन डॉक्यूमेंट के विमोचन के सिलसिले में रायपुर में थे। सुब्रमणियम जब 2017 में जम्मू-कश्मीर के चीफ सिकेरट्री बनकर श्रीनगर गए थे, तब यहां एसीएस होम थे। वे अगर छत्तीसगढ़ में रहे होते तो हो सकता था कि यहां सीएस बन जाते। मगर वे ऐसा चाहते नहीं थे, न ही उनका कोई प्रयास दिखा। मोदी सरकार ने उन्हें खुद ही बुलाकर जेके का चीफ सिकरेट्री बना दिया। अपने मित्रों में बीवीआर के नाम से जाने जाने वाले सुब्रमणियम ने कश्मीर से धारा 370 हटाने का ड्राफ्ट बनाने में अहम भूमिका निभाई। इसका उन्हें ईनाम भी मिला। केंद्र में सिकरेट्री बनने वाले वे छत्तीसगढ़ कैडर के पहले आईएएस बने। और वहां से रिटायर होने के बाद मोदी सरकार ने उन्हें नीति आयोग का सीईओ बनाया। सुब्रमणियम रिजल्ट देने वाले अफसर माने जाते हैं। नीति आयोग में भी उन्होंने रिफार्म कर दिया। छत्तीसगढ़ की ब्यूरोक्रेसी को सुब्रमणियम पर गर्व हो सकता है। एसीएस रहते उन्होंने छेड़छाड़ के आरोपी एआईजी को चौतरफा प्रेशर के बाद भी बर्खास्त कराकर ही माना। तब कैबिनेट के कई सदस्य मन मसोसकर रह गए थे। ये अलग बात है कि उनके जाने के बाद एआईजी फिर बहाल हो गए।  

आईएएस की लिस्ट

चिंतन शिविर के बाद अब विधानसभा का मानसून सत्र भी निबट गया है। राज्योत्सव से पहले सरकार के सामने कोई बड़ा इवेंट नहीं है। सरकार अब योजनाओं के क्रियान्वयन पर अपना फोकस बढाएगी। ग्राम सुराज में आए आवेदनों का रिव्यू किया जाएगा। दो-तीन जिलों के कलेक्टरों का ट्रांसफर भी हो सकता है। आईएएस अवार्ड वाले अधिकारियों में से वैसे तो ज्यादातर अच्छी पोस्टिंग में हैं, मगर जो बचे हैं, उन्हें उम्मीद होगी कि आईएएस के अनुरूप में पदास्थापना मिलेगी। बालोद जिले में कुछ महीने से जिला पंचायत सीईओ का पद खाली है, उसे भी भरा जा सकता है। गरियाबंद और जीपीएम जिले में तबाही की स्थिति है...भगवान भरोसे पूरा सिस्टम चल रहा। पीएम आवास सरकार का अहम प्रोजेक्ट है, इस पर भी कई जिलों के कलेक्टरों का ध्यान नहीं है। सरकार जब तक दो-चार कौवा मारकर नहीं लटकाएगी, तब तक सब....ऐसा ही चलता रहेगा।

कांग्रेस में नो चेंज!

कुछ महीने पहले की ही बात है। दीपक बैज की जगह टीएस सिंहदेव को पीसीसी का अध्यक्ष तय मान लिया गया था...कभी भी उनके नाम का ऐलान होने के दावे किए जा रहे थे। मगर अब स्थिति यह है कि इस पर कोई बात भी नहीं कर रहा। अलबत्ता, रायपुर में पार्टी की जंगी सभा के बाद तो दीपक बैज का वजन और बढ़ गया है। डेढ़ साल पहले करारी पराजय के बाद कांग्रेस इतनी जल्दी उठ खड़ी होगी, इसको देख सियासी पंडित भी चकित हैं। जाहिर है, 2018 की हार के बाद बीजेपी को संभलने में लंबा वक्त लगा। पांचवे साल में भी मोदी, अमित भाई, मनसुख भाई और नीतीन नबीन ने जलवा नहीं दिखाया होता, तो बीजेपी किस हाल में होती, पता नहीं। बहरहाल, बात दीपक बैज की तो बरसते पानी में हजारों की सभा कराने के बाद वे आदिवासी नेताओं की बैठक में शिरकत कर दिल्ली से लौट चुके हैं। राहुल गांधी के साथ उनकी नजदीकियां बढ़ने की भी खबरें आ रही हैं। ऐसे में, नहीं लगता कि आने वाले समय में दीपक बैज को पार्टी पीसीसी चीफ से हटाएगी। उमेश पटेल, देवेंद्र यादव, विकास उपध्याय और शिव डहरिया में से दो-तीन कार्यकारी अध्यक्ष जरूर बनाए जा सकते हैं।

मंत्रियों का हनीमून, नेताओं के सपने

अचरज की बात यह है कि हमेशा लाइव रहने वाले बीजेपी के नेता इस समय किधर हैं, पता नहीं चल रहा। विपक्ष के बेसिर पैर के आरोपों पर भी पार्टी नेताओं की चुप्पी नहीं टूट रही। दीपक बैज ने 32 हजार के ऐसे जग पर ट्वीट कर सनसनी पैदा कर दी, जो खरीदी ही नहीं गई। ऐसे कई मसले हैं, जिस पर पार्टी खुल कर प्रतिक्रिया नहीं दे रही और न ही सरकार में बैठे मंत्री। असल में, दिक्कत यह है कि विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित जीत से पार्टी के लोकल नेताओं का दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ गया...सरकार हमने बनवाई तो हमारा कुछ होना चाहिए। सबको लाल बत्ती चाहिए या फिर बड़ा ठेका और सप्लाई। वास्तविकता यह है कि कैडर बेस पार्टी कही जाने वाली बीजेपी ने डेढ़ साल में ढंग का एक कार्यक्रम नहीं किया है। सरकार के मंत्री हनीमून से उबर नहीं पा रहे तो नेता लाल बत्ती के सपने से बाहर नहीं आ रहे। चिंतन शिविर में पार्टी अध्यक्ष जगतप्रकाश नड्डा ने मंत्रियों को आखिर ऐसे थोड़े ही चेताया। कुछ मंत्रियों का ये हाल है कि जो कार्यकर्ता उनके चुनाव में बढ़-चढ़कर काम किया, बंगले में उसकी इंट्री नहीं है, फोन उठाने की बात दीगर है।

अंत में दो सवाल आपसे

1. अधिकारियों द्वारा होमवर्क करवा कर भेजने के बाद भी कई मंत्री विधानसभा में जाकर विभाग का नाम क्यों खराब कर डालते हैं?

2. एक मंत्री का नाम बताइये, जो छंटनी के खतरे से घबराकर इन दिनों सामाजिक कार्यक्रम कराने में जुट गए हैं?

रविवार, 13 जुलाई 2025

Chhattisgarh Tarkash 2025: कमीशनखोरी का चिप्स

 तरकश, 13 जुलाई 2025

संजय के. दीक्षित

कमीशनखोरी का चिप्स

छत्तीसगढ़ बनने के दो साल बाद सीएम अजीत जोगी ने स्टेट में आईटी के बेहतर इस्तेमाल के लिए छत्तीसगढ़ इंफोटेक प्रमोशन सोसाईटी याने ’चिप्स’ का गठन किया था। आईएएस अमित अग्रवाल इसके फर्स्ट सीईओ बनाए गए। बाद में रमन सिंह के कार्यकाल में रायपुर के सिविल लाईन में चार मंजिला भव्य ऑफिस बनाया गया। मगर पिछले कुछ सालों में स्थिति यह है कि चिप्स अब सफेद हाथी बनकर रह गया है। इस संस्था का रिकार्ड इतना खराब हो चुका है कि अब उस पर मंत्रालय के सिकरेट्री भी भरोसा नहीं कर रहे...कोई अहम काम चिप्स को नहीं सौंपा जा रहा। क्योंकि, एक तो अनाप-शनाप चार्ज बता दिया जाएगा, फिर टाईम पर होगा नहीं और हुआ तो कब तक काम करेगा, कहा नहीं जा सकता। जाहिर है, भारत सरकार का साफ्टवेयर नहीं होता तो सूबे में मंत्रालय से लेकर जिलों तक ई-ऑफिस लागू नहीं हो पाता। चिप्स के चलते ही पुलिस इंस्पेक्टरों की भर्ती व्यापम में लटकी रही। थक-हारकार गृह विभाग को पीएससी से बात करनी पड़ी। दरअसल, चिप्स भाई-भतीजावाद और कमीशनखोरी का अड्डा बनकर रह गया है। साफ्टवेयर तैयार करने में अपनों को उपकृत करना या फिर भारी कमीशन की डिमांड...ऐसे में चिप्स से क्वालिटी वर्क की अपेक्षा कैसे की जा सकती है। हालांकि, सरकार ने एक आईएफएस अधिकारी मयंक अग्रवाल को चिप्स का सीओओ बनाया है। मगर यह भी सही है कि चिप्स के वर्तमान सीईओ प्रभात मलिक के पास तीन-तीन एडिशनल चार्ज है। चिप्स के सीईओ के अतिरिक्त ज्वाइंट सिकरेट्री आईटी, ज्वाइंट सिकरेट्री गुड गवर्नेंस और डायरेक्टर इंडर्स्ट्री। बहरहाल, आईटी के दौर में अब वक्त आ गया है कि चिप्स को पटरी पर लाया जाए।

खजाने को करोड़ों की बचत

जाहिर है, टेक्नोलॉजी में दुनिया कहां से कहां जा रही है...ऑपरेशन सिंदूर में भारतीय सेना ने अपने देश में बैठे-बैठे पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों को सटिक निशाना लगाते हुए उन्हें उड़ा दिया था। और छत्तीसगढ़ में ये हाल है कि धान के लिए पटवारी से रिपोर्ट मांगी जाती है। और पटवारी पैसे लेकर बंजर और परती जमीन में भी 21 क्विंटल धान उपजा देते हैं। चिप्स अगर साफ्टवेयर तैयार कर दे तो रायपुर में बैठे-बैठे बताया जा सकेगा कि किस किसान के खेत में कितना बोया गया है और कहां नहीं। चिप्स चाहे तो ये भी पता चल सकता है कि कितना धान दूसरे राज्यों से आ रहा तो कितना धान बिचौलिये और राईस मिलर अलटी-पलटी कर सरकार के खजाने को चूना लगा दे रहे हैं। एक मोटे अनुमान के तहत मॉनिटरिंग सिस्टम नहीं होने की वजह से सरकार को 30 परसेंट एक्स्ट्रा धान खरीदना पड़ता है। 2024-25 में 149 लाख मीट्रिक टन धान खरीदा गया, ये सब कलाबाजियां नहीं होती तो सरकार को कम-से-कम 40 से 50 मीट्रिक टन कम परचेज करना पड़ता। याने चार से पांच करोड़ क्विंटल। पांच करोड़ क्विंटल से अगर 3100 से गुणा करें तो 1.55 खरब रुपए होता है। इससे समझा जा सकता है कि खजाने का कितना पैसा बचता। यह पैसा स्कूल, कॉलेज, अस्पताल पर व्यय होता, जो माफियाओं की जेब में जा रहा है। टेक्नोलॉजी की मदद से राईस मिलरों के झोल का पता लगाया जा सकता है कि कितने वॉट बिजली का उपयोग किया गया। अधिकांश राईस मिलों की जितनी कैपिसिटी नहीं होती, उससे अधिक मिलिंग दिखा दिया जाता है। कहने का आशय यह है कि चिप्स को अगर स्ट्रांग कर दिया जाए तो पारदर्शिता के साथ भ्रष्टाचार को रोकने में भारी मदद मिल सकती है।

भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ी चोट

भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार ने इस हफ्ते एक प्रेस नोट जारी किया, उसके मजमूं से लगता है कि सरकार अब जीरो टॉलरेंस को लेकर काफी अग्रेसिव मोड में आ गई है। प्रेस नोट के कंटेंट और भाषा से प्रतीत हो ही रहा...सरकार के करीबी लोगों का भी मानना है कि विधानसभा सत्र के बाद सरकार करप्शन पर प्रभावी चोट करेगी। 22 एक्साइज अफसरों का निलंबन इसी का हिस्सा था। एसीबी को भी सरकार ने फ्री हैंड दिया है। राज्य बनने के बाद यह पहली बार हुआ कि चार-चार आईएएस अधिकारी को पूछताछ के लिए एसीबी मुख्यालय बुलाया जा चुका है। सीजीएमएससी घोटाले में सीजीएमएससी की वर्तमान और पूर्व एमडी, पूर्व हेल्थ डायरेक्टर और एनएचएम की एमडी से एसीबी हेडक्वार्टर में घंटों की पूछताछ की गई। इनमें सिर्फ एक प्रमोटी आईएएस है। बाकी तीन आरआर आईएएस अफसर हैं। सरकार के रणनीतिकारों का मानना है कि जिस तरह 2023 के विधानसभा चुनाव में करप्शन सबसे बड़ा मुद्दा रहा, उसी तरह 2028 के चुनाव में करप्शन पर जीरो टॉलरेंस को मुद्दा बनाया जाएगा। अनेक स्टडी में ये बात सामने आई भी है कि विकास कार्य एक बार ना भी हो तो चलेगा मगर करप्शन पर प्रहार जनता को प्रभावित करता है। पड़ोसी राज्य ओड़िसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक हर साल कुछ अफसरों को कौवा मारकर लटका देते थे...और चुनाव जीतते रहे। छत्तीसगढ़ में भी अब जीरो टॉलरेंस को टॉप प्रायरिटी बनाया जाएगा।

डीजीपी को भरोसा?

छत्तीसगढ़ में पूर्णकालिक डीजीपी न होने से परेशानियां अब परिलक्षित होने लगी है। जिला पुलिस को पेटी कंट्रक्शन रिपेयरिंग के नाम पर हर साल पांच से 10 लाख रुपए का बजट जारी किया जाता था, अभी तक वह नहीं हो पाया है। इस पैसे से थानों या पुलिस के भवनों की मरम्मत के छोटे-मोटे काम होते थे। वैसे प्रभारी डीजीपी अरुणदेव के फ्रंट फुट पर नहीं खेलने की जायज वजहें भी हैं। आखिर, दूध का जला...मुहावरा है ही। सितंबर 2024 में गौतम को प्रभारी डीजीपी बनाने प्रॉसेज प्रारंभ होने वाला था कि दिल्ली से फोन आ गया...अशोक जुनेजा को एक्सटेंशन के लिए प्रस्ताव भेजिए। एसीएस होम मनोज पिंगुआ ने प्रस्ताव भेजा और 15 घंटे के भीतर दिल्ली से ओके होकर आ गया। फिर, 30 जून को चीफ सिकरेट्री नियुक्ति एपिसोड में जो हुआ, उससे गौतम क्या...प्रदेश की जनता अनभिज्ञ नहीं है। ऐसे में, कोई यह समझे कि गौतम देश के बाकी प्रभारी डीजीपी की तरह छत्तीसगढ़ की पोलिसिंग में जान लगा दें तो यह भला कैसे संभव है। यद्यपि, यूपी ऐसा स्टेट है कि पिछले तीन बार से वहां प्रभारी डीजीपी अपाइंट हो रहे और वे अपना कार्यकाल पूरा कर रिटायर हो रहे। बहरहाल, छत्तीसगढ़ की बात करें तो सिस्टम को दो काम करना होगा। या तो पूर्णकालिक डीजीपी की नियुक्ति की जाए या फिर गौतम को कोई खतरा नहीं का भरोसा दिया जाए।

5 विभागों के लिए एक बिल

विधानसभा के मानसून सत्र में इस बार अब तक का सबसे महत्वपूर्ण विधेयक आने वाला है, वह है जनविश्वास अधिनियम विधेयक। यह पहला बिल है, जिसमें एक साथ पांच विभागों के नियम बदलेंगे। इनमें नगरीय प्रशासन, पंचायत, गृह और सहकारिता जैसे विभाग शामिल हैं। यह बिल अलग इस मायने में भी है अलग है कि इसे तैयार करने का दायित्व इन पांचों से अलग किसी तीसरे विभाग को सौंपा गया है। राज्य सरकार ने उद्योग विभाग को इसका नोडल डिपार्टमेंट बनाया है। विभाग के सिकरेट्री रजत कुमार ने पखवाड़े भर के भीतर इस बिल को तैयार कर डाला। बता दें, भारत सरकार के कंसेप्ट पर राज्यों में अंग्रेजों के टाईम के नियम बदले जा रहे हैं।

पेनाल्टी नहीं, अब अर्थदंड

जनविश्वास बिल के पारित होने के बाद छत्तीसगढ़ में छोटे-छोटे मामलों में अब पेनाल्टी या जुर्माना शब्द का उपयोग हमेशा के लिए सामाप्त हो जाएगा। मसलन, अभी तक वाहन चालक अगर चौक पर जेब्रा लाइन को क्रॉस कर गया, या गाड़ी में लायसेंस नहीं है या फिर सड़क पर पंडाल बना दिया, नाली पर स्लैब डालने पर उसे फाईन करने का अधिकार संबंधित संस्थाओं को दिया गया था। आश्चर्य की बात ये कि इन विभाग ने नियम बना दिया था कि फलां नियम को ओवरलुक करने पर इतने साल की सजा और इतने का जुर्माना किया जाएगा। मगर भारतीय दंड विधान में उसका प्रावधान नहीं था। लिहाजा, इस तरह की स्थिति अगर निर्मित हुई तो पहले परिवाद दायर करना होगा। सीजेएम के आदेश पर फिर एफआईआर किया जाएगा। जनविश्वास अधिनियम में इन पेचीदगियों को खतम कर दिया गया है। एक तो अब जुर्माना या पेनाल्टी की बजाए अब अर्थदंड किया जाएगा। इसके पीछे मंशा यह है कि छोटे-छोटे ये मामले अपराध की श्रेणी में नहीं आते और फिर यह भी कि जुर्माना या पेनाल्टी लगाने का अधिकार सिर्फ कोर्ट को है, विभागों को नहीं। जनविश्वास अधिनियम में 50 से लेकर 200, 300 के जुर्माने को हटाकर राशि को बढा दी गई है। पहले निगम कमिश्नरों को जुर्माना करने का अधिकार दिया गया था, उसमें लिखा था कि 5000 रुपए तक निगम आयुक्त या सीएमओ पेनाल्टी कर सकते हैं। इससे प्रभावशाली लोग घोखे से फंस भी गए तो मामूली पेनाल्टी कराकर बच जाते थे। मगर अब इसे 5 हजार फिक्स कर दिया गया है। याने सबके उपर यह लागू होगा। इससे सरकार का राजस्व भी बढ़ेगा। फिर 100 साल पुराने हिसाब से 50 से 100 रुपए पेनाल्टी की नोटिस भेजने में भी अफसरों को हिचक आती थी...उससे अधिक नोटिस पहुंचाने में कर्मचारियों का पेट्रोल जल जाता था। ऐसे में, इसे बड़ा रिफार्म समझा जाना चाहिए।

आखिरी सत्र

विधानसभा का पांच दिन का मानसून सत्र कल 14 जुलाई से प्रारंभ हो जाएगा। विधानसभा के इस टेम्पोरेरी बिल्डिंग का यह आखिरी सेशन होगा। इसके बाद अब 25 साल की यादें शेष रह जाएंगी। अगला शीतकालीन सत्र नवा रायपुर के नवा विधानसभा भवन में होगा। नई एसेंबली को अंतिम रूप देने जोर-शोर से तैयारी शुरू हो गई है। राज्योत्सव के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से नए विधानसभा भवन का लोकार्पण कराने की तैयारी चल रही है। विस अध्यक्ष डॉ0 रमन सिंह इसके लिए पीएम मोदी को आमंत्रण देकर आ चुके हैं।

एकमात्र विधायक

छत्तीसगढ़ बनने के बाद प्रथम विधानसभा सत्र से लेकर छठवे तक सिर्फ एक नेता हमेशा विधानसभा में पहुंचता रहा, वो रहे रायपुर के विधायक बृजमोहन अग्रवाल। 1989 में बृजमोहन पहली बार विधायक बनकर एमपी विधानसभा में पहुंचे थे। फिर नवंबर 2000 में छत्तीसगढ़ बनने के बाद राजकुमार कॉलेज में पहला सत्र हुआ था, उसमें भी वे मौजूद रहे और जनवरी 2024 के छठवें सत्र में भी। ये अलग बात है कि उनकी इच्छा के विरूद्ध उन्हें प्रमोशन देकर अब लोकसभा भेज दिया गया है। मगर यह कीर्तिमान उनके नाम दर्ज रहेगा कि पहले से लेकर छठवी विधानसभा तक पहुंचते-पहुंचते कई बड़े दिग्गज चुनाव हारे मगर बृजमोहन अजातशत्रु बने रहे। अलबत्ता, रविंद्र चौबे अगर 2013 का चुनाव नहीं हारे होते तो वे बृजमोहन अग्रवाल के समकक्ष होते।

रविवार, 6 जुलाई 2025

Chhattisgarh Tarkash: लालफीताशाही का नमूना

 तरकश, 6 जुलाई 2025

संजय के. दीक्षित

लालफीताशाही का नमूना

छत्तीसगढ़ में डॉयल 112 की गाड़ियां डेढ़-डेढ़, दो-दो लाख किलोमीटर चलकर अंतिम समय में पहुंच गई है। वहीं, अधिकांश थानों की गाड़ियां कंडम हो चुकी हैं। मगर इसका दूसरा स्याह पहलू यह है कि रायपुर से लगे अमलेश्वर बटालियन में 600 से अधिक नई बोलेरो गाड़ियां दो साल से रखे-रखे सड़ रही हैं। वजह यह कि 365 बोलेरो खरीद तो ली गई मगर डॉयल 112 सर्विस को ऑपरेट करने के लिए वेंडर फायनल नहीं हो पाया। तब तक थानों की गाड़ियों को रिप्लेस करने के लिए 300 नई बोलेरो और आ गईं। पीएचक्यू के अधिकारियों ने एक्स्ट्रा दिमाग लगाते हुए तय किया कि थानों के लिए आई गाड़ियों को डॉयल 112 के लिए रख लिया जाए और डॉयल 112 के नाम से दो साल पहले ली गई 370 बोलेरो को थानों को दे दिया जाए। पीएचक्यू के अफसर चाहते तो ये काम खुद ही कर सकते थे...इसके लिए किसी से पूछने की जरूरत नहीं थी। मगर पीएचक्यू ने अपना भार टालने के लिए मंत्रालय को लिख मारा। अब स्थिति यह है कि महीनों से नोटशीट किधर घूम रही है, ये बताने कोई तैयार नहीं। किन गाड़ियों को थाने को दिया जाए और किसे डॉयल 112 को, जब तक यह वीराट फैसला होगा, तब तक उन गाड़ियों की स्थिति क्या होगी, आप समझ सकते हैं। इसे ही कहते हैं लालफीताशाही...जनता की गाढ़ी कमाई का 50-100 करोड़ स्वाहा भी हो जाए तो क्या फर्क पड़ता है।

रायपुर टॉप पर

किराये की गाड़ियां दौड़ाने के मामले में कवर्धा और राजनांदगांव के बाद रायपुर पुलिस अब टॉप पर आ गया है। रायपुर में हर महीने साढ़े छह सौ से सात सौ गाड़ियां किराये पर ली जा रही हैं। डीजीपी अशोक जुनेजा और खुफिया चीफ अमित कुमार की पुलिस अधीक्षकों की क्लास के बाद हालाकि, कुछ जिलों में किराये की गाड़ियों में कमी आई थी। मगर सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि कोई कप्तान बुरा नहीं बनना चाहता। दरअसल, पुलिस महकमे में किराये में चलने वाली 80 परसेंट से अधिक गाड़ियां पुलिस परिवारों की है। आरआई से लेकर मुंशी, दरोगा, डीएसपी सबकी दो-दो, चार-चार गाड़ियां कागजों में दौड़ रही है। वेतन से चार गुना, पांच गुना इंकम इन गाड़ियों से आ रहा। कुछ अफसरों ने तो बकायदा ट्रेव्लर्स कंपनी बना लिया है। अब आप समझ सकते हैं...एसपी आखिर अपने ही घर में कितने लोगों से बुरा बनें...आखिर पोलिसिंग का काम भी उन्हीं लोगों से लेना है। ऐसे में, वित्त को ही कुछ करना होगा। हालांकि, फायनेंस सिकरेट्री मुकेश बंसल ने कुछ महीने पहले वाहनों की गड़बड़ियों के मामले में पीएचक्यू से कैफियत मांगी थी। पता नहीं, क्या जवाब आया।

अफसरों की क्लास

सुशासन तिहार में मैदानी इलाकों का हकीकत जानने के बाद सीएम विष्णुदेव साय योजनाओं के क्रियान्वयन की वस्तुस्थिति परखने विभागों की समीक्षा कर रहे हैं। सीएम का रिव्यू इस बार जरा दबाकर हो रहा है। वैसे भी डेढ़ साल में सीएम अब अफसरों और विभागों को काफी समझ चुके हैं तो सीएम सचिवालय के अफसरों का भी होमवर्क तगड़ा है...सो, इधर-उधर होने पर टोक दिया जा रहा। इस रिव्यू की सबसे खास बात यह है कि विभागों के अफसर आंकड़ों की बाजीगरी नहीं दिखा पा रहे। क्योंकि, सीएमओ के पास पहले से डायरेक्ट्रेट से लेकर जिलों तक का पूरा डेटा आ चुका है।

एक्सटेंशन का रिकार्ड

चीफ सिकरेट्री अमिताभ जैन के नाम एक और रिकार्ड दर्ज हो गया। फर्स्ट एक्सटेंशन का। छत्तीसगढ़ में अभी तक किसी मुख्य सचिव का सेवा विस्तार नहीं हुआ था। मगर क्रीटिकल सिचुएशन में ही सही, अमिताभ को तीन महीने का एक्सटेंशन मिल गया। इससे पहले सुनील कुजूर और आरपी मंडल के एक्सटेंशन के लिए भारत सरकार को प्रस्ताव भेजा गया था। पर मंजूरी मिली नहीं। बहरहाल, अमिताभ के तीन महीने बढ़ने की वजह से उनका कार्यकाल अब चार साल 10 महीने हो जाएगा। संभवतः यह भी अपने आप में एक रिकार्ड होगा। नेट पर सर्च करने पर इतनी लंबी अवधि वाले किसी मुख्य सचिव का नाम मिला नहीं।

अगला चीफ सिकरेट्री

अब यह पब्लिक डोमेन में आ चुका है कि दिल्ली से आए एक फोन कॉल के बाद किस तरह सिचुएशन ने यूटर्न लिया और चीफ सिकरेट्री अमिताभ जैन को विदाई की बेला में तीन महीने का एक्सटेंशन मिल गया। मगर सवाल उठता है, तीन महीने बाद कौन? इस यक्ष प्रश्न का उत्तर देने की स्थिति में कोई नहीं है। कारण कि गेंद अब केंद्र के पाले में जा चुका है। हो सकता है, बदले हालात में भारत सरकार अब अमित अग्रवाल को डेपुटेशन ब्रेक कर छत्तीसगढ़ भेज दे। या फिर विकासशील को मनीला से वापिस बुला लिया जाए। चर्चाएं विकासशील को बुलाने की भी हैं। विकासशील इस समय एशियाई विकास बैंक मनीला में एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर हैं। विकासशील को फिलिपिंस से वापिस बुलाने वालों का तर्क यह है कि किसी भी आईएएस को पहले अपना कैडर देखना चाहिए, च्वाइस की सर्विस इसके बाद आती है। इन दोनों का अगर नही हुआ तो फिर मनोज पिंगुआ को सरकार आजमा सकती है। हालांकि, रेखाएं अगर सुब्रत साहू के हाथों में होगी तो फिर उन्हें कौन रोक पाएगा। हालांकि, कुल जमा सार यह है कि पहली बार में जब छत्तीसगढ़ के अफसरों को दरकिनार कर अगर अमिताभ को एक्सटेंशन दिया गया, तो उससे मैसेज तो यही निकला कि अब उपर से ही कोई आएगा।

इगो प्राब्लम और कोआर्डिनेशन

डॉक्टर डे के दिन रायपुर में एक ऐसी घटना हुई, जिसे होना नहीं था। और 25 साल में ऐसा कभी हुआ भी नहीं। असल में, कार्यक्र्रम के कोआर्डिनेशन में चूक हुई। कार्यक्रम हो रहा था मेडिकल कॉलेज में, मगर कमिश्नर मेडिकल एजुकेशन को पूछा नहीं गया। इसलिए, वे पहुंची भी नहीं। डॉक्टर डे के कार्यक्रम में कॉलेज के डीन नीचे कहीं कोने में बैठे हुए थे और जिनका उस कार्यक्रम से कोई नाता नहीं, वे नेता मंचासीन थे। बेशक, इसमें विरोधियों का हाथ रहा होगा, मगर इगो प्राब्लम और कोआर्डिनेशन की चूक से भी इंकार नहीं किया जा सकता।

हाल-बेहाल

पिछले पांच साल में कई स्वास्थ्य मंत्री, सिकरेट्री और डायरेक्टर की आंबेडकर अस्पताल का मुआयना करती फोटूएं मीडिया में आई होंगी, मगर किसी ने उन होनहारों के हॉस्टल का जायजा लेने की जरूरत नहीं समझी कि वे किस हाल में रह रहे हैं। सरकारी अस्पतालों के शौचालयों से ज्यादा बुरी स्थिति में मेडिकल कॉलेज के हॉस्टल के शौचालय हैं। जाहिर है, मेडिकल कॉलेज के स्टूडेंट प्रदेश के क्रीम होते हैं, उसमें भी सूबे के सबसे बड़े मेडिकल कॉलेज रायपुर के। याने क्रीम में क्रीम। उनका ये हाल तो बाकी मेडिकल कॉलेज का आप समझ सकते हैं...भगवान ही मालिक होंगे।

रमन-धर्मजीत की जोड़ी

वैसे तो विधानसभा उपाध्यक्ष की खास जरूरत पड़ती नहीं। सभापति के पैनल से काम चला लिया जाता है। मध्यप्रदेश में 2020 के बाद कोई उपाध्यक्ष नहीं बना है। छत्तीसगढ़ में फिर भी लगभग हर विधानसभा में उपाध्यक्ष रहे हैं। उपाध्यक्ष का पद पहले विपक्ष को दिया जाता था। अजीत जोगी सरकार के दौरान बीजेपी के बनवारी लाल अग्रवाल उपाध्यक्ष रहे। मगर किसी बात पर आवेश में आकर उन्होंने इस्तीफा दे दिया, उसके बाद यह पद विपक्ष से छीन गया। बहरहाल, इस छठवीं विधानसभा में अभी तक उपाध्यक्ष की नियुक्ति नहीं हुई है। पलड़ा धर्मजीत सिंह का भारी लग रहा है। सतीश भैया के नाम से जाने जाने वाले धर्मजीत पहले भी विस उपाध्यक्ष रह चुके हैं। उनके साथ विडंबना यह रही कि जिस हाइट के वे हैं, सियासत में उन्हें वह मुकाम मिला नहीं। मध्यप्रदेश विधानसभा में उन्हें उत्कृष्ठ विधायक का सम्मान मिला था। उनके सामने जन्म लिए लोग आज डिप्टी सीएम और मंत्री हैं, मगर सतीश भैया विधायक से उपर नहीं पहुंच पाए। असल में, रेखाओं का खेल कहें कि उनकी राजनीति हमेशा उल्टी दिशा में बहती रही। जब दिग्विजय सिंह का राज था, तो वे विद्याचरण के खेमे में थे। अजीत जोगी उन्हें छोटे भाई कहते रहे मगर कुछ दिया नहीं। 2018 में जब कांग्रेस का राज आया तो वे अजीत जोगी के साथ रहे। कांग्रेस में अगर होते भी तो उन्हें कुछ मिलता नहीं, क्योंकि भूपेश बघेल के साथ उनके गुण मिलते नहीं। और अब बीजेपी में आए तो बीजेपी वाले उन्हें अपना मानने तैयार नहीं। अलबत्ता, बीजेपी में मारामारी के बीच धर्मजीत ने कोई बड़ी ख्वाहिश पाली नहीं होगी। वैसे, विस उपाध्यक्ष के लिए धर्मजीत से कोई बेस्ट कंडिडेट हो भी नहीं सकता। सबसे अनुभवी, प्रखर वक्ता। स्पीकर डॉ0 रमन सिंह के साथ जोड़ेगी जमेगी भी। दोनों की केमेस्ट्री पुरानी है। 98 में रमन सिंह के पास जब अचानक केंद्रीय राज्य मंत्री का शपथ लेने के लिए फोन आया तो उनके पास ठीकठाक कुर्ता नहीं था। रेडिमेड उस समय इतना प्रचलित नहीं हुआ था और न रमन सिंह के साइज का कुर्ता मिल पाता। रमन के डीलडौल के धर्मजीत सिंह वहां थे। उनके पास एक नया कुर्ता था। बताते हैं, रमन सिंह ने उसे पहन केंद्रीय राज्य मंत्री की शपथ ली थी।

अंत में दो सवाल आपसे

1. साढ़े छह साल के लंबे कार्यकाल के बाद भी आईपीएस पवनदेव पुलिस हाउसिंग कारपोरेशन से मुक्त क्यों नहीं हो पा रहे हैं?

2. सफेद हाथी बनता जा रहा चिप्स की क्या कोई उपयोगिता रह गई है?

Chhattisgarh Tarkash 2025: रेखाओं का खेल है मुकद्दर...

 तरकश, 29 जून 2025

संजय के. दीक्षित

रेखाओं का खेल है मुकद्दर...

जगजीत सिंह का ये मशहूर गजल, छत्तीसगढ़ के राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के लिए मौजू है। अब देखिए न, दिसंबर 2023 में जब सरकार बदली थी तो लोग दावे कर रहे थे, मुख्य सचिव अमिताभ जैन को हटाकर रेवेन्यू बोर्ड का चेयरमैन बनाया जा रहा है। मगर अमिताभ, पूरे अमिताभ निकले। उन्होंने बचा डेढ़ साल कंप्लीट किया। और अब? रेखाओं का खेल देखिए, जिन अफसरों की नए सीएस बनने की अटकलें थी, उन्हें अब रेवेन्यू बोर्ड में दिन गुजारना पड़ेगा। जाहिर है, ब्यूरोक्रेसी में इससे पहले बीकेएस रे, पी राघवन, बीके कपूर, नारायण सिंह और सीके खेतान जैसे आईएएस रेखाओं से मात खा चुके हैं। इसी तरह राजनीति में भी...। रेखाओं के फेर में दिलीप सिंह जूदेव रमन सिंह से पिछड़ गए। वरना, ट्रेप कांड नहीं हुआ होता तो हो सकता था कि जूदेव सीएम बने होते। टीएस सिंहदेव का तो ताजा उदाहरण है। रेखाओं के मारे टीएस बंद कमरे में सिर्फ तीन लोगों के बीच भी ये नहीं कह सके कि मेरी उम्र हो रही है...मुझे पहले मौका दे दिया जाए। जाहिर है, वे इतना भर बोल गए होते तो छत्तीसगढ़ की राजनीति आज अलग दिशा में होती। मगर रेखाएं भूपेश बघेल की हथेली में थीं। इसी तरह सांसद के बाद हवाई जहाज के टेकऑफ की तरह प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंचने वाले अरुण साव ने कभी कहां सोचा था कि बगीया गांव से विष्णुदेव साय आ जाएंगे। 15 साल सीएम की कुर्सी पर बैठ चुके डॉ. रमन सिंह भी कम उम्मीद से थोड़े थे। मगर इस बार मुकद्दर ने साथ नहीं दिया। टंकराम वर्मा तथा श्याम बिहारी जायसवाल मंत्री बनेंगे और बृजमोहन अग्रवाल, अमर अग्रवाल, अजय चंद्राकर, राजेश मूणत मंत्रिमंडल से बाहर बैठेंगे, ये भी कहां किसी ने सोचा था? जगजीत सिंह की गजल की पंक्तियां सही इन सभी पर सही बैठती है...रेखाओं का खेल है मुकद्दर....रेखाओं से मात खा रहे हो...।

CS बड़ा या CM सचिवालय?

चीफ सिकरेट्री राज्य का प्रशासनिक मुखिया होता है। कैबिनेट का सिकरेट्री भी। मुख्य सचिव के पावर को इससे समझा जा सकता है कि सीएम तक जाने वाली कोई भी फाइल बिना सीएस के अनुमोदन के नहीं जाती। मगर वक्त के साथ प्रशासनिक स्वरूप बदलता गया। खासकर, पिछले डेढ़-दो दशक में...राज्यों में सीएम सचिवालय ताकतवर होता गया। छत्तीसगढ़ में ही देखें तो सुनिल कुमार, विवेक ढांड, शिवराज सिंह के सिकरेट्री टू सीएम रहने तक सीएम सचिवालय को कोई जानता नहीं था। 2008 के बाद बैजेंद्र कुमार, अमन सिंह और सुबोध सिंह जैसे अधिकारियों से सीएम सचिवालय का ग्लेमर बढ़ा। बावजूद इसके विवेक ढांड तक सीएस का वजूद कुछ हद तक बचा रहा। ढांड अपने पसंद का काम करा लेते थे, तो आईएएस, आईपीएस के ट्रांसफर में उनके चहेते अफसरों का नाम नोटशीट में जुड़ जाता था। मगर मार्च 2018 में उनके रिटायर होने के बाद छत्तीसगढ़ में सीएस नाम की संस्था गौण होती चली गई। सीएम सचिवालयों के भारी पड़ने की वजहें भी हैं। राज्य में सारे अधिकार सीएम में समाहित होते हैं। उस सीएम के साथ उनके सचिव 12 से 15 घंटे साथ रहते हैं। कई बार कोई मीटिंग या सीएम को दौरा पर निकलना हो तो सिकरेट्री सुबह आठ बजे हाउस पहुंच जाते हैं। सरकारी मीटिंगों के बाद सीएम से अहम चर्चाओं में कई बार आधी रात हो जाती है। सीएम से जुड़ी बारीक चीजों पर भी सीएम सचिवालय के अधिकारियों की पैनी नजरें होती हैं। जाहिर है, इतना क्लोजनेस के बाद पावर तो बढ़ेगा ही।

लिफाफे में नाम बंद

छत्तीसगढ़ के नए चीफ सिकरेट्री के नाम को लेकर भले ही संशय की स्थिति दिखलाई पड़ रही है मगर दबी जुबां से यह स्वीकार करने वालों की कमी नहीं है कि नाम का लिफाफा बंद हो चुका है। दरअसल, मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय हाल में दिल्ली गए थे। अमित शाह के साथ बीएसएफ की फ्लाइट से वाराणसी गए और उसके बाद वहां से दिल्ली। इस दरम्यान ऐसा कुछ हुआ कि हाईकमान ने सरकार की पसंद पर मुहर लगा दी। अब सवाल है कि सरकार की पसंद कौन? तो इसका जवाब मुख्यमंत्री के स्वभाव और उनके च्वाइस से आप अंदाज लगा सकते हैं कि किस तरह के अफसर उन्हें पसंद होंगे...वही इस सवाल का उत्तर होगा। हां, ये इशारा अवश्य है कि नया सीएस साफ-सुथरी छबि का होगा। इसके बाद भी आप अंदाज नहीं लगा पा रहे तो फिर 30 घंटे का वेट कर लीजिए। इसके भीतर ही नए सीएस का नाम सामने आ जाएगा।

CS का बेटा CS?

छत्तीसगढ़ के चीफ सिकरेट्री के लिए पांच दावेदार हैं, उनमें सुब्रत साहू के पिता पड़ोसी राज्य ओड़िसा के चीफ सिकरेट्री रह चुके हैं। सीनियरिटी में सुब्रत रेणु पिल्ले के बाद दूसरे नंबर पर है। अगर वे सीएस बनेंगे तो देश में पहली बार ऐसा होगा कि सीएस का बेटा सीएस बना। हालांकि, रेणु पिल्ले के पिता भी आंध्रप्रदेश के नामचीन आईएएस अधिकारी रहे हैं। वे एडिशनल चीफ सिकरेट्री से रिटायर हुए। चीफ सिकरेट्री के मजबूत दावेदारों में से एक मनोज पिंगुआ के पिता राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे हैं तो उन्हीं की बैच की ऋचा शर्मा के पिता रायपुर में जेलर रहे। अब देखते हैं इनमें से किसको सूबे के प्रशासनिक मुखिया की कुर्सी मिलती है।

सुखी मंत्री

छत्तीसगढ़ में अभी हैं तो 10 मंत्री मगर इनमें से दो-तीन ही सुखी याने अफसरशाही की दृष्टि से कंफर्टेबल होंगे। बाकी मंत्रियों का न तो अपना पारफर्मेंस ठीक है और न ही वे जो करना चाह रहे, सिकरेट्री उन्हें करने दे रहे। कुछ मंत्री अपनी महिला सचिवों से संतुष्ट नहीं हैं...वे अपनी चलाना चाहते हैं मगर सख्त महिला अधिकारी उनकी चलने नहीं दे रहीं। डेपुटेशन से लौटे एक तेज-तर्रार सिकरेट्री ने एक मंत्रीजी के सपनों को तोड़ दिया। मंत्रीजी अब खुद ही रजिस्टर लेकर 10-10, 20-20 हजार का हिसाब देख रहे। कंफर्टेबल मंत्रियों में आप अरुण साव, ओपी चौधरी, टंकराम वर्मा को मान सकते हैं। अरुण साव के सिकरेट्री कमलप्रीत सिंह की खासियत यह है कि जिसके साथ उन्हें लगा दो, मंत्री को दिक्कत नहीं होती। ओपी चौधरी के सचिवों की तो बात ही अलग है...चेले, दोस्त, यार जो बोल लो। अविनाश चंपावत भी टंकराम वर्मा को कभी दुखी नहीं होने देते।

CM के सिकरेट्री CS

मुख्यमंत्री के सचिव रहने के बाद राज्य का चीफ सिकरेट्री बनने वाले आईएएस अधिकारियों की बात करें, तो चार अफसरों के नाम जेहन में आते हैं। इनमें शिवराज सिंह, सुनिल कुमार और विवेक ढांड का नाम प्रमुख है। रमन सिंह की पहली पारी में दिल्ली डेपुटेशन से लौटने के बाद शिवराज सिंह प्रमुख सचिव टू सीएम बनाए गए, फिर आरपी बगाई के रिटायर होने पर 2007 में चीफ सिकरेट्री बने। इसके बाद 2011 में सुनिल कुमार मुख्य सचिव बनाए गए। इससे पहले 2000 से 2003 तक वे अजीत जोगी के सचिव रह चुके थे। सुनिल कुमार के रिटायर होने के बाद 2014 में विवेक ढांड मुख्य सचिव नियुक्त किए गए। वे भी रमन सिंह की पहली पारी में उनके सिकरेट्री रहे। यद्यपि, शिवराज सिंह के दिल्ली से आने के बाद ढांड के उपर शिवराज प्रमुख सचिव टू सीएम बन गए थे। उधर, आरपी मंडल अजीत जोगी सचिवालय में सिकरेट्री तो नहीं, पर डिप्टी सिकरेट्री जरूर रहे। सीएम सचिवालय से उन्हें बिलासपुर का कलेक्टर बनाकर भेजा गया था। इस समय सीएस बनने वाले पांच दावेदारों में सिर्फ सुब्रत साहू सीएम सचिवालय में काम कर चुके हैं। गौरव द्विवेदी को हटाने के बाद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने सुब्रत को अपने सचिवालय में पहले प्रमुख सचिव बनाया। फिर टाईम से करीब डेढ़ साल पहले प्रमोशन देते हुए उन्हें एसीएस बनाया गया। इतना जानने के बाद अब स्वाभावित उत्सुकता होगी कि शिवराज, सुनिल, विवेक और मंडल की तरह क्या सुब्रत भी मुख्य सचिव की कुर्सी तक पहुंच पाएंगे।

आधे घंटे में पोस्टिंग

चीफ सिकरेट्री से रिटायर होने के बाद अब तक जिन्हें पोस्ट रिटायरमेंट पोस्टिंग मिली है, उनमें शिवराज सिंह, सुनिल कुमार, विवेक ढांड, अजय सिंह, सुनील कुजूर और आरपी मंडल शामिल हैं। शिवराज सिंह को राज्य निर्वाचन आयुक्त बनाया गया था। हालांकि, वहां उनका मन नहीं लगा तो फिर सरकार ने बिजली कंपनियों का चेयरमैन अपाइंट कर दिया। इसके बाद सुनिल कुमार राज्य योजना आयोग के उपाध्यक्ष बनाए गए। मगर उनका आर्डर करीब तीन महीने बाद निकला। विवेक ढांड रेरा सीएस रहते रेरा के चेयरमैन सलेक्ट हो गए थे, इसलिए उन्हें पोस्टिंग का इंतजार नहीं करना पड़ा। अजय सिंह को सीएस से हटाकर भूपेश बघेल सरकार ने प्लानिंग कमीशन भेज दिया था, सो रिटायरमेंट के बाद वे वहीं कंटीन्यू हो गए थे। उनके बाद आए सुनील कुजूर को भी रिटायरमेंट के करीब छह महीने बाद सहकारिता निर्वाचन का कमिश्नर बनाया गया। सुनील कुजूर की ताजपोशी में वक्त इसलिए लगा क्योंकि, सरकार को निर्वाचन से जीएस मिश्रा को हटाने में वक्त लगा। इन सभी में सबसे अधिक किस्मती रहे आरपी मंडल। 30 नवंबर 2020 को रिटायर होने के बाद भूपेश सरकार ने शाम 04.35 बजे अमिताभ जैन का सीएस बनाने का आदेश निकाला और उसके ठीक 10 मिनट बाद 04.45 बजे मंडल को नया रायपुर विकास प्राधिकरण का चेयरमैन नियुक्त करने का आर्डर जारी हो गया। बताते हैं, अमिताभ की नियुक्ति और मंडल को पोस्ट रिटायरमेंट पोस्टिंग आदेश एक साथ तैयार हुआ था, जारी करने में 10 मिनट का गैप हुआ। इस बार भी तैयारी कुछ ऐसी ही थी। मगर सीआईसी का मामला हाई कोर्ट में फंस गया। जीएडी ने आखिरी मौके पर हाथ-पैर खुब चलाया मगर हाई कोर्ट में केस की लिस्टिंग नहीं हो सकी।

प्रमोशन के बाद झटका

कई महीनों की मशक्कत के बाद सूबे के 46 इंस्पेक्टर प्रमोट होकर डीएसपी बने। इस प्रमोशन के लिए उन्हें बड़े पापड़ बेलने पड़े। दावेदारों से व्यवस्था कर पांच-छह पेटी खर्च किया गया। जाहिर है, दरोगा हो या डीएसपी, आजकल बिना लक्ष्मीनारायण का काम कहां होता है। ऐसे में, पीएससी से लेकर मंत्रालय तक फाइल खिसकाने के लिए स्पेशल एफर्ट करना पड़ा। मगर सरकार ने उनके इस संघर्ष का सम्मान नहीं किया। 46 में से 21 को एक झटके में बस्तर भेज दिया। दंतेवाड़ा, बीजापुर, सुकमा, नारायणपुर जाकर बेचारे पछता रहे हैं...इससे बढ़ियां तो बिना प्रमोशन के थे। अफसरी करने का शौक ले डूबा...थानेदारी गई ही, उपर से बस्तर पटक दिया गया।

ऑनलाइन वसूली

एसीबी के एक्शन मोड में आने के बाद भी भ्रष्ट तंत्र पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। पुलिस महकमे के कुछ लोग अब नया इनोवेशन किए हैं...ऑनलाईन करप्शन का। आपको याद होगा, पिछले साल दो-तीन ऐसे मामले आए थे, जिसमें मुंशी और सब इंस्पेक्टर ने एकाउंट में ऑनलाइन रिश्वत ले ली थी। महकमे के लोग अब सिस्टमेटिक ढंग से इस काम को आगे बढ़ा रहे हैं। खासकर, गाड़ियों की चेकिंग में। असल में, कई बार लोगों के पास फाईन पटाने के लिए कैश नहीं होते। उपर से पुलिस वालों की कोशिश होती है कि पेमेंट ऑनलाईन हो जाए। हाल में एक जिले से होकर गुजरना हुआ, वहां क्यूआर कोड के जरिये फाईन लिया जा रहा था। पता करने पर लोगों ने बताया कि डिजिटल युग में डिजिटल रिश्वत का ये नया आईडिया है। इसमें पूरी ईमानदारी बरती जाती है। प्रायवेट व्यक्ति थाने से किसी-न-किसी रुप में जुर्म-जरायम के जरिये जुड़ा होता है। जुर्माने से आए पैसे वो पूरी ईमानदारी के साथ पुलिस को दे देता है। उसमें से 10 परसेंट कमीशन उसे मिल जाता है। इसके अलावा पुलिस वाले से संबंध प्रगाढ़ होने से वह जुर्म की दुनिया का दो-चार काम थाने वालों से करा लेता है, वह अलग है। पुलिस मुख्यालय को इसके लिए कप्तान साहबों के नाम सर्कुलर जारी करना चाहिए।

अंत में दो सवाल आपसे?

1. 30 जून को छत्तीसगढ़ रेवेन्यू बोर्ड का चेयरमैन किस आईएएस अधिकारी को बनाया जाएगा?

2. क्या ये सही है कि मंत्रीपरिषद के अचानक विस्तार की सूचना देकर सरकार लोगों को चौंकाने वाली है?