सोमवार, 3 दिसंबर 2018

फोटी-फोटी

2 दिसंबर 2018
बदलाव की चर्चा और कांग्रेस नेताओं के सीटों के दावे भले ही बढ़-चढ़कर किए जा रहे हों। मगर वास्तविकता यह है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियां इस उधेड़बून में लगी है कि सीटों की संख्या अगर 40 के आसपास आकर ठहर गई तो ऐसे में कौन सा फार्मूला सही रहेगा। बीजेपी के अंदरखाने में सारे विकल्पों पर विचार किया जा रहा है। तो उधर बताते हैं, दिल्ली में राहुल गांधी ने कांग्रेस नेताओं की मीटिंग में यही टिप्स दिया….गोवा और मणिपुर जैसा नहीं होना चाहिए। वहां कम सीटें पाकर भी बीजेपी सरकार बनाने में कामयाब हो गई थीं। राहुल ने कहा कि एकदम मुस्तैद रहना है। सरकार बनाने का दावा करने में देर नहीं करना। बैठक में इस पर भी गंभीरता से चर्चा हुई कि अगर सरकार बनाने के जादुई संख्या तक सीटें नहीं मिली तो पार्टी की रणनीति क्या होगी। कांग्रेस में इस पर भी मंथन हो रहा कि अगर बहुमत मिल गई तो दिक्कत नहीं, लेकिन 40 के आसपास रुक गया तो फिर जोगी की बजाए बसपा को साधा जाए। क्योंकि, बसपा के विधायक अगर पाला बदल लें तो एकाध निर्दलीय को मिलाकर गवर्नमेंट फर्म कर लिया जाए। क्योंकि, कांग्रेस अगर जोगी को मिलाकर सरकार बनाएगी तो उसे बहुत बड़ी कीमत अदा करनी पड़ेगी। राजनीति के जादूगर जोगी यूं ही कांग्रेस का साथ नहीं दे देंगे। जाहिर है, सीएम भी लगभग वे ही तय करेंगे। और, पुनिया, भूपेश और टीएस ऐसा कतई नहीं चाहेंगे। लेकिन, ये स्थिति तभी बनेगी, जब जोगी की झोली में कम-से-कम पांच सीटें आ जाएं। फिर, जोगी के लिए कंफर्ट कौन रहेगा….बीजेपी या कांग्रेस, ये सबसे बड़ा सवाल है।

राजभवन की भूमिका

चौथे विधानसभा चुनाव में अगर दोनों ही पार्टियां सरकार बनाने के जादुई आंकड़े तक नहीं पहुंच पाईं तो राजभवन की भूमिका अहम हो जाएगी। क्योंकि, फिर तोड़-फोड़ समर्थन देने-लेने का दौर चलेगा। ऐसे में, गेंद राज्यपाल आनंदी बेन पटेल के पाले में जाएगा। हाल ही में, जम्मू-कश्मीर का राजभवन चर्चा में रहा, जब महबूबा ने सरकार बनाने का दावा किया तो राजभवन का फैक्स मशीन खराब हो गई थी।

15 निर्णायक सीटें

जोगी के बसपा गठबंधन को कितनी सीटें मिलेगी….सियासी प्रेक्षकों की नजर में इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह हो गया है कि जोगी का बैल और हाथी किस करवट बैठेगा….किसको डैमेज करेगा। सूबे में करीब 15 सीटों पर जोगी कांग्रेस और बसपा ने मजबूत प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं। इनमें 15 हजार से 40 हजार तक वोट खींचने की क्षमता वाले चेहरे भी हैं। अजीत जोगी खुद मरवाही से हैं। खैरागढ़, भाटापारा, चंद्रपुर, अकलतरा, चांपा, मस्तूरी, कोटा, तखतपुर, बेलतरा, बिल्हा, कसडोल जैसे 15 सीटों पर ट्रेंगुलर फाइट हैं। इनमें से कितनों के भाग्य में विधानसभा पहुंचना लिखा है, ये तो 11 दिसंबर को पता चलेगा। मगर भाजपा और कांग्रेस के लिए उम्मीद और आशंका की वजह जरूर बन गए हैं। आप समझ सकते हैं, जब कुछ सौ वोटों में जीत-हार के फैसले होते हों, वहां 15 से 40 हजार वोट पाने वाले प्रत्याशी किसी भी पार्टी को डूबोने या वैतरणी पार कराने में अहम भूमिका तो निभा ही सकते हैं। इन्हीं 15 सीटों से बीजेपी को सबसे अधिक उम्मीद तो कांग्रेस को सबसे अधिक आशंका।

किंग मेकर जोगी

जोगी परिवार को खबरों में रहने की कला में निपुणता हासिल है। अब देखिए, जोगीजी का परिवार चुनावी थकान मिटाने गोवा की सैर पर है। लेकिन, अपने ट्वीट से राजनीतिज्ञों का बीपी ही नहीं बढ़ा रहा बल्कि आउट ऑफ स्टेट होने के बाद भी खबरों के केंद्र में भी बना हुआ है। छोटे जोगी कभी भावी सीएम के साथ गोवा ट्रिप तो कभी मां रेणु और अपनी पत्नी ऋचा को भावी विधायक बताते हुए ट्वीट कर रहे हैं। गोवा के समुद्र तट से फोटो भी ऐसे पोस्ट हो रहे हैं, जिसमें जोगीजी के परिवार का बॉडी लैग्वेज और कांफिडेंस देखकर लग रहा….किंग मेकर बनने से उन्हें कोई रोक नहीं पाएगा।

किस-किसको साधें

बदलाव की चर्चा से सर्वाधिक कोई उलझन में है तो वे हैं सूबे के नौकरशाह। आखिर वे किस-किसको साधे। कांग्रेस में एक-दो नहीं, मुख्यमंत्री के आधा दर्जन दावेदार हैं। भूपेश बघेल, टीएस सिंहदेव, चरणदास महंत, रविंद्र चौबे और ताम्रध्वज साहू। ये पांच नाम तो ओपन हैं। कुछ चेहरे ऐसे हैं, जिन्हें लगता है कहीं बिल्ली के भाग्य से सिकहर टूट जाए तो उन्हें भी मौका मिल सकता है। इनमें कांग्रेस के अनुसूचित जाति, जनजाति वर्ग के कुछ नेता बेहद उत्साहित हैं। ऐसे में बेचारे नौकरशाहों की मानसिक यंत्रणा समझी जा सकती है। कहां-कहां हाजिरी लगाएं। ठीक है, वे पाला बदलने में माहिर माने जाते हैं। 2003 के चुनाव के बाद अफसरों के इस कौशल को लोगों ने देखा ही है। लेकिन, इस बार स्थिति जुदा है। पांचों के चौखट पर वे जा नहीं सकते। पहले सबसे अधिक टीएस से उम्मीद थी। लेकिन, राहुल ने ताम्रध्वज को भी मैदान में उतार दिया। अब, शिगूफा चल रहा, जमीन तैयार भूपेश ने की है तो उन्हें राहुल नजरअंदाज नहीं करेंगे। उधर, महंत भी दावेदारी में पीछे नहीं हैं। अफसरों के लिए ये उलझन ही तो हैं।

पहली बार आईएएस

आईएफएस राकेश चतुर्वेदी को लघु वनोपज संघ का प्रमुख बनाने के बाद जीएडी ने आईएएस जीतेन्द्र शुक्ल को प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क का सीईओ अपाइंट कर दिया। रुरल एरिया में सड़क बनाने वाली इस एजेंसी का कभी आईएएस सीईओ नहीं बना। सालों से इस पोस्ट पर आईएफएस का कब्जा रहा। चुतुर्वेदी से पहिले आलोक कटियार, सुधीर अग्रवाल, पीसी पाण्डेय सभी आईएफएस थे। हालांकि, राकेश के प्रमोशन के बाद यह पद खाली था, इसलिए मंत्रालय के गलियारों में इसे टेम्पोरेरी पोस्टिंग मानी जाती है….लोग मान रहे हैं कि 11 दिसंबर के बाद लिस्ट निकलेगी, उसमें फायनल होगा। लेकिन, जानने वाले को पता है कि जब तक आरपी मंडल पंचायत विभाग के एसीएस रहेंगे, जीतेंद्र को कोई हिला नहीं पाएगा। पंचायत विभाग की कमान संभालते ही जीतेंद्र को मंडल डायरेक्टर पंचायत बनाकर लाए थे। अब, सीईओ भी बनवा लिए हैं। दरअसल, मंडल और जीतेंद्र में बड़ी अच्छी केमेस्ट्री है। दोनों सालों से एक साथ काम कर रहे हैं। मंडल पिछले दस साल में जिस भी विभाग में रहे, जीतेंद्र उनके साथ रहे। अरबन, पीडब्लूडी, पंचायत सभी में। जोड़ी तभी ब्रेक होगी, जब जीतेंद्र कलेक्टर बन जाएं।

कांग्रेस के 90 विधायक!

रायपुर के राजीव भवन में कांग्रेस नेताओं ने सभी 90 प्रत्याशियों को बुलाकर पूछा कि कौन-कौन जीत रहा है तो एक-एक कर सभी 90 खड़े हो गए। इस पर जमकर ठहाके लगे। हालांकि, बाद में चरणदास महंत ने चुटकी ली….पहली और आखिरी बार आप सभी 90 भावी विधायकों को एक साथ बुलाया गया है। उनका इशारा इस ओर था कि सभी 90 तो जीत कर आएंगे नहीं। इसलिए पहली और आखिरी बार ही हुआ न।

अंत में दो सवाल आपसे

1. रमन सरकार के कितने मंत्री अपनी सीट बचा पाएंगे?
2. कांग्रेस के सीएम पद के किस दावेदार की सीट फंस गई है?

शनिवार, 10 नवंबर 2018

जातिवादी राजनीति

11 नवंबर
छत्तीसगढ़ में जातिवादी राजनीति के लिए कभी कोई स्पेस नहीं रहा। मध्यप्रदेश के समय भी यहां दो ही पार्टियों का वर्चस्व रहा। कांग्रेस और भाजपा। दोनों पार्टियां अपने मेनिफेस्टो पर वोट मांगती थी। 2003 में कांग्रेस ने जरूर जातिवादी कार्ड को चलने की कोशिश की लेकिन, यहां की जनता ने उसे सिरे से खारिज कर दिया। लेकिन, चौथे विधानसभा चुनाव में कुछ राजनीतिक पार्टियां जातिवाद को उभारकर चुनावी वैतरणी पार करने का प्रयास कर रही हैं, वह छत्तीसगढ के लिए शुभ संकेत नहीं है। आखिर, यूपी, बिहार के पिछड़ने की मूल वजह जातिवादी राजनीति ही रही है। हालांकि, ये अच्छी बात है कि छत्तीसगढ़ के लोग जाति और धर्म का चश्मा पहनकर वोट डालने नहीं जाते। वरना, स्वाभिमान मंच का शटर नहीं गिरता। दरअसल, जब राजनीतिक प्रत्याशियों के पास जब मुद्दों का टोटा हो जाता है, तो फिर इस तरह की बांटने वाली राजनीति शुरू हो जाती है। विस्मय यह कि जातिवाद के तवे पर रोटी सेंकने में कोई भी पार्टी पीछे नहीं रहती।

सीटों का गुणाभाग

चुनाव के समय नौकरशाहों के पास कोई काम नहीं होता। चुनाव में ड्यूटी लगती नहीं। उपर से आफिस में बैठने की मजबूरी। मुख्यालय जो नहीं छोड़ना है। ऐसे में, करें क्या? नोटपैड पर सीटों के गुणाभाग में समय व्यतीत कर रहे हैं। जिन अफसरों की बीजेपी से कंफर्टनेस है, वे इसी सरकार को रिपीट करने के हिसाब से उसे सीट दे रहे हैं और जो अनकंफर्टनेस महसूस करते हैं, वे संख्याबल में कांग्रेस को उपर कर दे रहे हैं। हालांकि, कुछ दिन पहले तक हंड्रेड परसेंट नौकरशाह इसी सरकार को रिपीट होते देखना चाह रहे थे। लेकिन, सीडी कांड के बाद एक कांग्रेस नेता का खौफ अफसरों पर से हट गया है। लिहाजा, स्थितियां कुछ बदली है।

कोरबा और तानाखार

कोरबा और तानाखार ऐसी सीट हैं, जहां जिस पार्टी के विधायक बनते हैं, उस पार्टी की सरकार नहीं बनती। तानाखार में 15 साल से कांग्रेस के विधायक थे और सरकार रही बीजेपी की। उससे पहिले गोंडवाना पार्टी से हीरा सिंह मरकाम एमएलए रहे और सरकार रही कांग्रेस की। कोरबा का मामला भी कुछ इसी तरह का है। 2008 में कटघोरा से अलग होकर कोरबा विधानसभा बना था। तब से कांग्रेस के जय सिंह विधायक हैं। उससे पहिले कटघोरा में बोधराम कंवर विधायक थे तो बीजेपी की सरकार रही। कंवर से पहले बनवारी लाल अग्रवाल कटघोरा से विधायक चुने गए और सरकार बनी कांग्रेस की। हालांकि, कई बार मिथक टूटते भी हैं। मसलन, कोरबा जिले का ही रामपुर सीट के बारे में कहा जाता था कि जो वहां का विधायक बनता है, राज्य में उस पार्टी की सरकार बनती है। हालांकि, पिछले बार इसमें ब्रेक लग गया। ननकीराम कंवर वहां से चुनाव हार गए।

भाईचारा!

निर्वाचन आयोग ने कलेक्टरों का चुनावी ज्ञान परखने के लिए परीक्षा आयोजित की तो उसमें सारे डायरेक्ट आईएएस बनें कलेक्टरों को ऐन-केन-प्रकारेण पास कर दिया गया। फेल हुए सिर्फ तीन प्रमोटी कलेक्टर। इसी तरह कौवा मारकर लटकाने की बारी आई तो चुनाव आयोग ने आबकारी विभाग के सिकरेट्री डीडी सिंह की छुट्टी कर दी। छत्तीसगढ़ बनने के बाद तीन विधानसभा और तीन लोकसभा चुनाव हुए हैं, लेकिन, कभी किसी सचिव पर कार्रवाई नहीं हुई। हर चुनाव में दो-एक कलेक्टर, एसपी नपे। ये पहला मौका है कि आयोग ने सचिव को हटाया। वो भी प्रमोटी। कहीं भाईचारा तो नहीं निभाई जा रही।

गजब की वसूली

कहते हैं, पैसा कमाने वाले समुद्र की लहरें गिनकर भी पैसा कमा लेते हैं। छत्तीसगढ़ के नौकरशाहों का भी इस मामले में जवाब नहीं है। चुनाव आयोग ने तीन साल से जमे अधिकारियों को हटाने का आदेश दिया तो मंत्रालय के अफसरों की लाटरी लग गई। मलाईदार पदों पर तीन साल से अधिक समय से बैठे अफसरों से ट्रांसफर के नाम पर जमकर खेल किया गया। जिनने गुलाबी नोट पहुंचा दिया वे बच गए, बाकी नप गए। कुछ विभागों ने अपनों को बचाने के लिए जीएडी को लिखकर भेज दिया कि हमारे अफसरों की निर्वाचन में ड्यूटी नहीं लगती। जीएडी का तो भगवान ही मालिक है। उसने चेक भी नहीं किया और ओके कर दिया। जीएडी या सीईओ सुब्रत साहू एक बार चेक करवा लें कि पंजीयन विभाग में कितने तीन साल वालों के ट्रांसफर हुए हैं और उसने जीएडी को क्या लिखकर भेजा था। सारा माजरा सामने आ जाएगा।

सरकार में गोल?

भाजपा की सरकार है, और सरकार के ही अफसर। फिर भी सबसे अधिक सामान बीजेपी प्रत्याशियों के ही जब्त किए जा रहे हैं। नेता भी चकित हैं तो प्रत्याशी भी पार्टी आफिस में दुखड़ा रो रहे हैं। दरअसल, चुनाव आयोग के कुछ आब्जर्बर काफी टफ आ गए हैं। एक वीआईपी डिस्ट्रिक्ट के कलेक्टर को तो प्रेक्षक ने भरी मीटिंग में निगेटिव कमेंट कर दिया। हालांकि, कुछ कलेक्टर, एसपी भी चतुराई भरा रोल अदा कर रहे हैं। पता चला है, ऐसे अफसरों को सरकार चुपचाप वॉच कर रही है।

अंत में दो सवाल आपसे

1. पीएल पुनिया, भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव जगदलपुर से एक ही गाड़ी से रायपुर लौटे, क्या तीनों में सुलह हो गई है क्या?
2. किस मंत्री को निबटाने के लिए बीजेपी की एक महिला नेत्री ने कांग्रेस के एक नेता से हाथ मिला लिया हैं?

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

सीएम-सीएम का खेल!

21 अक्टूबर
बसपा के साथ गठबंधन करने से चूकी कांग्रेस पार्टी गोंडवाना गणतंत्र पार्टी से भी तालमेल करने में नाकाम हो गई। गोंगपा ने समाजवादी पार्टी से समझौता कर लिया। इससे कम-से-कम चार सीटों पर कांग्रेस के समीकरण गड़बड़ाएंगे। उधर, सीपीआई ने भी बस्तर खास कर कोंटा में प्रत्याशी का ऐलान कर वहां के कांग्रेस के विनिंग कंडिडेट कवासी लखमा की मुश्किलें बढ़ा दी है। कांग्रेस के एक और विनिंग कंडिडेट रामदयाल उईके को पार्टी पहले ही गंवा चुकी है। सूबे के सियासी प्रेक्षक भी मानते हैं, कांग्रेस डे-टू-डे राजनीतिक चूक कर रही है। बसपा को लेकर पार्टी कोई भी तर्क या आरोप लगा लें, ये तो सभी को मालूम है कि पार्टी नेता उसे पांच से अधिक सीटें देने सहमत नहीं थे। आखिर, कांग्रेस 90 की 90 सीट तो जीतेगी नहीं। बसपा को अगर 10 सीट दे दी होती तो कांग्रेस की आज स्थिति कुछ और होती। आज से एक महीने पहिले याने 19 सितंबर तक बीजेपी और कांग्रेस में नेक-टू-नेक फाइट की स्थिति थी। दोनों पार्टियों के सर्वे में 19-20 का फर्क था। लेकिन, 20 सितंबर को जोगी कांग्रेस से बसपा का गठबंधन होने के बाद से कांग्रेस के सामने चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं। इसकी मुख्य वजह सीएम की कुर्सी मानी जा रही। सीएम-सीएम के खेल में कांग्रेस के बड़े लीडर इतने लीन हो गए हैं कि बसपा, गोंगपा कब उनके हाथ से निकल गई, पता ही नहीं चला। चुनाव की बेला में पीसीसी चीफ भूपेश बघेल और नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव पिछले एक महीने से साथ नजर नहीं आए हैं। जनघोषणा पत्र को लेकर सिंहदेव राजधानी के एक होटल में प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे तो बघेल भाजपा कार्यालय में अटलजी की अस्थि कलश को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे। इसी हफ्ते कांग्रेस के सिंहदेव समेत कई नेता जब राजनांदगांव में थे तो भूपेश रायपुर में पत्रकार से नेता बने रुचिर गर्ग को प्रेस से इंट्रोड्यूज करा रहे थे। चरणदास महंत ताम्रध्वज साहू को रमन सिंह के खिलाफ राजनांदगांव से लड़ाने के लिए अलग प्रेशर बनाने में जुटे हैं। कांग्रेस कार्यकर्ताओं में इसके अच्छे संदेश नहीं जा रहे। कांग्रेस नेताओं को इसे समझना चाहिए….छोटी-छोटी चूक उन्हें कहीं भारी न पड़ जाए।

इंटेलिजेंस फेल्योरनेस

विधानसभा चुनाव के दौरान खुफिया पुलिस की भूमिका अहम हो जाती है। लेकिन, पीसीसी चीफ भूपेश बघेल और महिला नेत्री करुणा शुक्ला के नेतृत्व में कांग्रेस कार्यकर्ता जिस तरह बीजेपी मुख्यालय के गेट तक पहुंच गए, उससे राज्य की इस खुफिया एजेंसी की पोल खुल गई। खुफिया पुलिस को पता ही नहीं चला कि कांग्रेस इस तरह प्रदर्शन की कोई योजना बना रही है। जबकि, एनएसजी सुरक्षा प्राप्त मुख्यमंत्री डा0 रमन सिंह और उनके मंत्रिमंडल के कई सदस्य मुख्यालय में मौजूद थें। चीफ मिनिस्टर आफिस ने इसे बेहद गंभीरता से लिया है। चुनाव के दौरान सीएम को राज्य भर में दौरे करने होते हैं। इंटेलिजेंस के इस पारफारमेंस को देखते सीएमओ की चिंता लाजिमी है। ये तो कांग्र्रेस नेता थे, कहीं नक्सली या आतंकवादी पहुंच जाएं तो….? इंटेलिजेंस का ये हाल तब है, जब मुख्यमंत्री ने खुफिया तंत्र को मजबूत करने के लिए सिक्रेट मनी को 45 लाख से बढ़ाकर नौ करोड़ रुपए कर दिया है। वास्तव में स्थिति चिंताजनक है।

ब्यूरोक्रेसी का खाता

कांग्रेस ने आखिरकार पूर्व आईएएस एसएस सोरी को कांकेर से मैदान में उतार दिया। सोरी ने 2013 के विधानसभा चुनाव से पहिले टिकिट की आस में आईएएस से इस्तीफा दे दिया था। लेकिन, तब उन्हें मौका नहीं मिल पाया। लेकिन, इस बार कांग्र्रेस ने सोरी के साथ दरियादिली दिखाकर राजनीति में आए रिटायर नौकरशाहों की उम्मीदें जवां कर दी है। जाहिर है, अबकी बड़ी संख्या में रिटायर ब्यूरोक्रेट्स ने भाजपा और कांग्रेस ज्वाईन किया है। लेकिन, पहला खाता सोरी का खुला है। हालांकि, बीजेपी ने भी देर रात ओपी चौधरी की टिकिट दे दिया। लेकिन पहला खाता खुलने का क्रेडिट तो सोरी को मिलेगा ही।

एक परिवार, तीन पार्टी

एक घर में तीन पार्टी….तीनों की अलग-अलग दलों से चुनाव लड़ने की तैयारी…..ऐसा आपने पहले नहीं सुना होगा। ग्वालियर में विजय राजे सिंधिया जरूर बीजेपी से चुनाव लड़ती थीं और उनके बेटे माधव राव सिंधिया कांग्रेस से। दिग्विजय सिंह के भाई लक्ष्मण सिंह भी कुछ साल तक बीजेपी में रहे। साउथ में भी कुछ वाकये ऐसे मिलते हैं। लेकिन, देश के किसी राजनीतिक परिवार में तीन अलग-अलग पार्टियों से चुनाव लड़ने का दृष्टांत नहीं मिलता। लेकिन, छत्तीसगढ़ में अबकी ऐसा होने जा रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की बहू ़ऋचा जोगी बसपा से प्रत्याशी घोषित हो गई हैं। अमित जोगी अपनी पार्टी से किस्मत आजमाएंगे तो उनकी मां रेणु जोगी कोटा से कांग्रेस टिकिट की प्रबल दावेदार हैं। हालांकि, ये सर्वविदित है, इसके पीछे कोई पारिवारिक विवाद नहीं है। विशुद्ध तौर पर सियासी नफा-नुकसान वाला यह मामला है।

बसपा में विलय?

अजीत जोगी की बहू ऋचा जोगी और जोगी कांग्रेस की गीतांजलि पटेल को बसपा से चुनाव लड़ाने की सियासी कलाबाजी के बीच सूबे में ये अटकलें तेज हो गई है कि विधानसभा चुनाव के बाद जोगी कांग्रेस का बसपा में विलय हो जाएगा। इसके पीछे तर्क यह दिए जा रहे कि जोगी कांग्रेस को अभी सियासी वजूद बनाने में वक्त लगेगा। इस पार्टी का फिलवक्त जो भी वजन है, वह सिर्फ और सिर्फ अजीत जोगी के कारण है। आपने देखा ही, जोगीजी की तबियत बिगड़ने पर किस तरह उनके लोग लगे थे छोड़-छोड़कर भागने। जबकि, बसपा सालों पहले से अपनी सियासी जमीन बना चुकी है। उसके सिम्बॉल पर वोट मिलते हैं। बिना किसी मशक्कत के उसके हमेशा दो-एक विधायक जीतते आए हैं। अब, जोगीजी का साथ मिल जाएगा तो जाहिर है, उसकी स्थिति और सुदृढ़ होगी। ऐसे में, इन अटकलों को एकदम से खारिज नहीं किया जा सकता। जोगीजी और मायावती की राहें भी जुदा हैं। लिहाजा, टकराव की आशंका भी नहीं होगी। मायावती को यूपी की राजनीति करनी है या फिर केंद्र की। छत्तीसगढ़ से उन्हें क्या मतलब?

शराब लॉबी एक

शराब ठेके का सरकारीकरण करके शराब ठेकेदारों को बेरोजगार कर देने वाले आबकारी मंत्री अमर अग्र्रवाल की मुश्किलें इस बार बढ़ सकती है। पता चला है, बिलासपुर से उन्हें पराजित करने के लिए शराब ठेकेदारों ने हाथ मिला लिया है। अमर बिलासपुर से लगातार चार बार विधायक हैं। पांचवी बार वे मैदान में होंगे। शराब ठेकेदारों ने उन्हें निबटाने के लिए पिटारा खोल दिया है।

राजनांदगांव पेंडिंग

कांग्रेस ने पहले चरण की 18 में से बस्तर की 12 सीटों के प्रत्याशियों का ऐलान कर दिया। लेकिन, राजनांदगांव की छह सीटों को पेंडिंग कर दिया। राजनांदगांव की छह में से चार सीटें अभी कांग्रेस के पास है। इन चार में से दो सीटों पर वह चेहरा बदलने वाली है। जिन दो विधायकों की टिकिट कटेगी उस पर जाहिर है, विरोधी पार्टियां डोरे डालेंगी। इसी वजह से कांग्रेस ने राजनांदगांव की सूची को पेंडिंग रखने में ही भलाई समझी।

अंत में दो सवाल आपसे

1. बस्तर के विधायक दीपक बैज को फिर टिकिट देकर कांग्रेस अपने को धन्य क्यों समझ रही है?
2. चुनाव से पहिले किस जिले के कलेक्टर को बदलने पर आयोग विचार कर रहा है?

सोमवार, 15 अक्तूबर 2018

ब्यूरोक्रेट्स के सीएम

14 अक्टूबर
नौकरशाही के लिए वैसे तो डा0 रमन सिंह से बेहतर कोई सीएम नहीं हो सकता। डाक्टर साब से 15 साल में अफसरों को कोई दिक्कत नहीं हुई। उन्होंने किसी का कोई नुकसान नहीं किया। वरना, अजीत जोगी का कार्यकाल अफसरों को अभी भी याद है। वे मीटिंग से अफसरों को उठा देते थे। बहरहाल, चुनाव के बाद इन केस स्थिति बदली तो स्वाभाविक सा प्रश्न है, नौकरशाह सीएम के रूप में किसे देखना पसंद करेंगे? रमन सिंह के विकल्प के रूप में अफसर टीएस सिंहदेव को देख रहे हैं। टीएस रमन सिंह से विनम्रता और सौम्यता में इक्कीस नहीं है तो उन्नीस भी नहीं बोल सकते। ब्यूरोक्रेट्स को सबसे अधिक भय भूपेश बघेल से था। भूपेश के नाम से ही अफसरों में बेचैनी थी। लेकिन, सीडी कांड के बाद अफसर बेहद राहत महसूस कर रहे हैं।

आचार संहिता के मजे

आचार संहिता प्रभावशील होने के बाद सबसे अधिक कोई पावरफुल हुआ है तो वह हैं सीईओ सुब्रत साहू। सूबे का सारा सिस्टम सूब्रत साहू के ईर्द-गिर्द घूम रहा है। मामूली सा आदेश या टेंडर निकालना है तो सुब्रत के दरबार में दौड़ लगानी पड़ेगी। और, आचार संहिता से मजे में कोई है, तो वह है अफसरशाही। निर्वाचन से जुड़े अफसरों के पावर बेहिसाब बढ़ जाते हैं। मंत्री, मिनिस्टर, सरकार सब गौण। जो इलेक्शन से नहीं जुड़े हैं, वे भी फुली आराम के मोड में हैं। कुछ भी काम लेकर जाइये, जवाब मिलेगा मालूम नहीं….आचार संहिता लगी है। मंत्रालय के अधिकांश अफसरों की आजकल अघोषित छुट्टियां चल रही हैं। नहीं भी गए तो कौन पूछने वाला है।

वार्म अप-1

आचार संहिता लगने के बाद चुनाव आयोग दो-एक कलेक्टर, एसपी को जरूर नापता है। आयोग इन अफसरांं की छुट्टी इसलिए भी करता है कि चुनाव को लेकर बाकी अफसर गंभीर हो जाएं। छत्तीसगढ़ बनने के बाद हुए तीनों चुनावों में कलेक्टर, एसपी को आयोग ने हटाया है। इस बार आचार संहिता लगने के बाद सात दिन गुजर गए हैं। लेकिन, किसी भी कलेक्टर, एसपी का नम्बर नहीं लगा है। लिहाजा, सताईसां जिले के कलेक्टर, एसपी यह सोचकर सहमे हुए हैं…अबकी आखिर किसका नम्बर लगता है। चुनाव आयोग ने इस बार चार एक्सट्रा प्लेयर भी रखा है। वे भी वार्मअप हो रहे हैं। कलेक्टर, एसपी के हिट विकेट होने पर ही एक्सट्रा प्लेयर को मौका मिलेगा। अब देखते हैं, बेचारों को कब तक अवसर मिलता है।

वार्म अप-2

वार्म अप तो बीजेपी-कांग्रेस ज्वाईन करने वाले अफसर भी हो रहे हैं। जाहिर है, इस बार थोक में रिटायर अफसरों ने दोनों पार्टियों को ज्वाईन किया है। लेकिन, चुनाव में कितनों के नम्बर लगेंगे, उनके राजनीतिक आका भी ठीक से बता पाने की स्थिति में नहीं हैं। यह सोचकर रिटायर अफसरों का मन तड़प रहा है। दोनों ही पार्टियों में अब तक जितने भी अफसर ज्वाईन किए हैं, उनमें टिकिट का फायनल इशारा सिर्फ ओपी चौधरी को हुआ है। बाकी अभी टकटकी लगाए बैठे हैं।

बस्तर से भी एक

रामदयाल उईके के बीजेपी प्रवेश के बाद बस्तर से भी एक कांग्रेस विधायक के भाजपा में शामिल होने की काफी चर्चा है। हालांकि, बस्तर के आदिवासी विधायक के कांग्रेस छोड़ने की बातें उईके से पहले शुरू हुई थी। लेकिन, उईके के पास कार्यकारी अध्यक्ष जैसा अहम पद था। इसलिए, पहले आपरेशन उईको को अंजाम दिया गया। सूत्रों की मानें तो अब बस्तर विधायक का नम्बर लगेगा।

तीन सीटों की चुनौती

कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष रामदयादल उईके के बीजेपी में शामिल होने से सत्ताधारी पार्टी की एक सीट सुनिश्चित हो गई। पाली तानाखार सीट से उन्हें कोई हरा नहीं सकता। लेकिन, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के कारण बीजेपी की अब तीन सीटों पर चुनौती बढ़ गई है। कांग्रेस अब गोंगपा से हाथ मिलाने की तैयारी कर रही है। कांग्रेस-गोंगपा का तालमेल होने पर कोटा, कटघोरा और मरवाही में बीजेपी की चुनौती और बढ़ जाएगी। इन तीनों सीटों पर गोंगपा का खासा प्रभाव है। 15 से 20 हजार वोट गोंगपा को मिलते हैं। हालांकि, तीन में दो सीटें अभी कांग्रेस के पास है। कोटा से रेणु जोगी, कटघोरा से बीजेपी से लखनलाल देवांगन और मरवाही से अमित जोगी भी कांग्रेस की टिकिट पर चुनाव जीते थे।

अंत में दो सवाल आपसे

1. रामदयाल उईके की घर वापसी में सरकार के किस मंत्री ने मध्यस्थता अहम रही?
2 अबकी विधानसभा चुनाव में बीजेपी के कितने मंत्रियों की टिकिट कटने वाली है?

जरा बच के…!

30 सितंबर
नौकर-चाकर के नाम पर इंवेस्ट करने वाले नेताओं और अफसरों के लिए ये घटना चेतावनी हो सकती है। कुछ साल पहिले पीडब्लूडी के एक ईई ने अपने ड्राईवर के नाम 80 लाख रुपए में दस एकड़ जमीन खरीदकर कागज अपने पास रख ली थी। ड्राईवर को लगा इस काले-पीले में उसका भी कुछ हिस्सा बनता है। इसी महीने उसने ईई से 50 हजार रुपए उधारी मांगा। ईई कुछ दिन टरकाते रहे। एक दिन ड्राईवर ने बंगले में बवाल कर दिया….पैसा दो नहीं तो ंकाला चिठ्ठा खोल दूंगा। दूसरे रोज नशे में धुत होकर फिर पहुंच गया और एमाउंट पांच लाख बढ़ाते हुए धमकी दे दी कि होशियारी की तो अपनी पत्नी के साथ अनाचार की रिपोर्ट लिखवा दूंगा। इस पर ईई ने ड्राईवर के हाथ-पैर जोड़कर दो लाख रुपए में समझौता किया। दरअसल, राजधानी बनने के बाद रायपुर में बड़ी संख्या में नेताओं और अफसरों ने नौकर-चाकरों, साले-सालियों के नाम पर जमीन और मकानों में पैसा लगाया है। एक नौकरशाह ने 2005 में नया रायपुर से लगे एरिया में अपने साले के नाम पर 60 एकड़ जमीन खरीदी थी। राजधानी बनने के बाद जमीन का रेट करोड़ों हुआ तो साले की नीयत डोल गई। अत्यधिक लोभ के चक्कर में अफसर की जमीन चली गई और ससुराल भी। ससुराल से उनका संबंध खतम हो गया। इन घटनाओं से नेताओं और अफसरों को सबक लेना चाहिए।

जीएडी का ये कैसा तराजू?

आईएएस अमिताभ जैन को पीएस से एसीएस बनाने कल मंत्रालय में डीपीसी हुई और जीएडी ने तुरंत उनका आदेश निकाल दिया। डीपीसी के बाद ऐसी तत्परता होनी भी चाहिए। आखिर, टकटकी क्यों लगवाना। लेकिन, मंत्रालय में खासकर आईएफएस के साथ ऐसा हो रहा है। पीसीसीएफ केसी यादव के डीपीसी के साढ़े तीन महीने बाद पोस्टिंग का आदेश निकला। इसी तरह डीएफओ से सीएफ और सीएफ से सीसीएफ बनाने एक दर्जन से अधिक आईएफएस की 20 जुलाई को डीपीसी हुई थी। दो महीने से अधिक हो गए, आदेश के लिए फाइल घूम रही है। आखिर, जीएडी के न्याय का ये कैसा तराजू है। आईएएस, आईपीएस का आर्डर डीपीसी के सेम डे और, आईएफएस को महीनों चक्कर लगाना पड़े। जीएडी पर अफसरों का विश्वास कायम रहे, सरकार को कुछ करना चाहिए।

कलेक्टरों पर खतरा

मतदाता पुनरीक्षण का काम खतम होने के बाद अफसरों के ट्रांसफर पर से चुनाव आयोग का प्रतिबंध समाप्त हो गया है। आयोग ने 27 सितंबर तक पांच विभागों के अफसरों और कर्मचारियों के ट्रांसफर पर रोक लगा रखी थी। इनमें कलेक्टर, एडिशनल कलेक्टर, डिप्टी कलेक्टर प्रमुख थे। बैन हटते ही अफसरों पर अब ट्रांसफर की तलवार लटक गई है। खास तौर से कलेक्टरों पर। आचार संहिता प्रभावशील होते तक सरकार अब इन अफसरों का तबादला करने के लिए फ्री है। अब कलेक्टरों को बदलने के लिए तीन नामों की जरूरत नहीं पड़ेगी। जैसे, रायपुर कलेक्टर का मामला पेनल के चक्कर में गड़बड़या था। ओपी चौधरी ने जब इस्तीफा दिया था तक चुनाव आयोग का प्रतिबंध लगा था। लिहाजा, चौधरी की जगह पर सरकार अंकित आनंद को कलेक्टर बनाना चाहती थी। लेकिन, पेनल के चक्कर में सरकार को अंकित के साथ दो नाम और भेजने पड़े। और, आयोग ने बसव राजू के नाम पर टिक लगा दिया था। मगर अब सरकार के हाथ खुल गए हैं। ऐसे में, ट्रांसफर हो या न हो….कलेक्टरों में खौफ तो रहेगा ही।

मुदित जीत

मुदित कुमार आखिरकार हेड ऑफ फॉरेस्ट फोर्स बनने में कामयाब हो गए। आरके सिंह के आज रिटायर होने के बाद वे पदभार ग्रहण करेंगे। पिछले साल जब सिंह की नियुक्ति हो रही थी, उस दौरान मुदित भी इस पद के प्रबल दावेदार थे। लेकिन, एक बड़े नौकरशाह ने ऐसा रोड़ा लगाया कि सरकार को हाथ पीछे खींच लेना पड़ा। लेकिन, वक्त बलवान होता है। इस बार सिंह के रिटायरमेंट के महीने भर पहले ही सरकार ने मुदित का नाम डिसाइड कर दिया था। हालांकि, सीनियरिटी में शिरीष अग्रवाल उपर थे। लेकिन, डीपीसी ने मुदित का नाम ओके कर दिया। बहरहाल, मुदित की ताजपोशी के बाद जाहिर है, माटी पुत्र राकेश चतुर्वेदी को अभी वेट करना पड़ेगा। राकेश को एडिशनल पीसीसीएफ से पीसीसीएफ प्रमोट करने 3 अक्टूबर को डीपीसी होने जा रही है।

रात वाली का कमाल

अपने ही एक विधायक से सरकार इन दिनों बड़ा परेशान है। वे सोशल मीडिया में ऐसा पोस्ट डाल दे रहे हैं कि पार्टी को जवाब देते नहीं सूझ रहा। हाल ही में उन्होंने नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव को बेहतर सीएम होने की भविष्यवाणी कर डाली। मीडियावालों ने इस पर सीएम डा0 रमन सिंह से सवाल कर डाला। सीएम भी क्या बोलते, जिसकी जैसी सोच…बोलकर आगे बढ़ गए। विधायकजी चूकि शौकीन तबीयत के हैं….फिर, विवादित पोस्ट वे रात 11 से 1 बजे के बीच करते हैं। सो, पार्टी नेताओं को यह समझने में देर नहीं लगी कि ये गड़बड़ कहां से हो रहा है।

जोगी फायदे में

जोगी कांग्रेस और बीएसपी के गठबंधन से दोनों पार्टियों को कितना फायदा होता है, ये तो वक्त बताएगा। लेकिन, ये जरूर है कि सीटों के गुणाभाग में जोगीजी बसपा पर भारी पड़े। छजपा ने बीएसपी को 35 सीटें दी है। लेकिन, उसे कई आधा दर्जन से अधिक ऐसी सीटें टिका दी, जहां पिछले चुनाव में उसे दो से ढाई हजार वोट मिले। यही नहीं, आधा दर्जन से अधिक आदिवासी सीटें भी बसपा के खाते में चली गई। उन सीटों पर बीएसपी का कोई वजूद नहीं है। अलबत्ता, छजपा कुछ ऐसी सीटें लेने में कामयाब रही, जहां पिछले चुनाव में बीएसपी को 15 हजार से अधिक वोट मिले थे। जाहिर है, सीटों के तालमेल में भी जोगीजी ने जादू दिखा दी।

10 के बाद

छत्तीसगढ़ बनने के बाद वैसे तो तीनों विधानसभा चुनावों के लिए अक्टूबर के फर्स्ट वीक में आचार संहिता लगी है। लेकिन, इस बार तेलांगना का चुनाव आ जाने के कारण बताते हैं, टाईम कुछ आगे बढ़ सकता है। जिस तरह से संकेत मिल रहे हैं, 10 से पहिले तो आचार संहिता नहीं ही लगेगी। 9 अक्टूबर को सरकार ने भी बहुत सारे शिलान्यास और लोकार्पण के कार्यक्रम रख डाले हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कार्यक्रम भी हो सकता है।

अंत में दो सवाल आपसे

1. रिटायर आईएएस डीएस मिश्रा और आईएफएस मुदित कुमार की धमाकेदार वापसी के पीछे का समीकरण क्या हैं?
2. प्रधानमंत्री के जांजगीर आने के बाद भी जांजगीर में स्थापित साढ़े नौ हजार करोड़ के मड़वा पावर प्लांट का लोकार्पण क्यों नहीं कराया गया?

भाजपाई ब्यूरोक्रेट्स?

23 सितंबर
चुनाव के दौरान नौकरशाहों पर सरकार के लिए काम करने के आरोप लगते रहे हैं। इस बार भी कुछ अफसरों के खिलाफ चुनाव आयोग में शिकायतें की गई हैं। अफसर अब सत्ताधारी पार्टी के लिए किस तरह काम कर रहे, ये जांच का विषय हो सकता है। लेकिन, फैक्ट है…..इंटरेस्टिंग भी कि छत्तीसगढ़ के 95 फीसदी से अधिक ब्यूरोक्रेट्स न कांग्रेस गवर्नमेंट को देखे हैं और न ही उनके कामकाज को। 2002 बैच के आईएएस भी जोगी सरकार के आखिरी दौर में एज ए प्रोबेशनर छत्तीसगढ़ आए थे। 2003 से लेकर 2016 तक के आईएएस अफसरों ने सिर्फ भाजपा सरकार को देखा है। छत्तीसगढ़ में इस समय पोस्टेड अफसरों में सिर्फ अजय सिंह, सुनील कुजूर, सीके खेतान, आरपी मंडल, अमिताभ जैन, रेणु पिल्ले, सुब्रत साहू, रीचा शर्मा, सुबोध सिंह, गौरव द्विवेदी, निहारिका बारिक, एम गीता और शहला निगार को ही कांग्रेस शासन काल में काम करने का मौका मिला है। बाकी ब्यूरोक्रेट्स अपने आईएएस कैरियर की शुरूआत बीजेपी सरकार से की और 15 साल से इसी को कंटीन्यू कर रहे हैं। ऐसे में, परिवेश का फर्क तो पड़ता ही है। फिर भी, अफसरों को दोष नहीं देना चाहिए। जिसका झंडा होता है, उसके अफसर होते हैं। अफसरों को पाला बदलने में कितना वक्त लगता है। 2003 में लोगों ने आखिर देखा ही।

ये संस्कृति नहीं!

बिलासपुर के एसपी आरिफ शेख कम्यूनिटी पोलिसिंग के जरिये पुलिस की इमेज बिल्डअप करने की कोशिश कर रहे थे। मगर लाठी चार्ज करके पुलिस ने उसे धो दिया। न्यायधानी की पुलिस ऐसी अराजक हो जाएगी, लोग हतप्रभ हैं। छत्तीसगढ़ पुलिस की कभी ऐसी संस्कृति रही भी नहीं। वो भी बिना किसी उपर के अफसर के आदेश के लाठी चला दें। ये वास्तव में राज्य के लिए गंभीर है। हालांकि, राजनीतिक पार्टियों को ये भी सोचना चाहिए नेताओं के घरों में कचरा और जूता फेंकना कितना जायज है। मंत्री अमर अग्रवाल का तो निजी घर है। अगर सरकारी भी होता तो भी घर का मतलब पूरा परिवार होता है। हो सकता है, उस समय उनके नाते-रिश्तेदार आए हों। सीडी कांड के समय बीजेपी ने भी हालांकि, कुछ ऐसा ही किया। पीसीसी चीफ भूपेश बघेल के घर के घेराव के दौरान उनके कैंपस में जूता फेंका…दीवारों पर अभद्र बातें लिख डाली, गालियां भी दी। छत्तीसगढ़ की ये संस्कृति नहीं है। राजनीति में यहां के लोगों ने कभी ऐसी कटुता नहीं देखी। कांग्रेस और बीजेपी के नेताओं को लोगों ने सुख-दुख में साथ खड़े होते देखा है। दोनों राजनीतिक पार्टियों को इस पर विचार करना चाहिए कि वे राजनीति़ को किस ओर ले जा रहे हैं।

कांग्रेस की टिकिट

कांग्रेस ने 15 सितंबर तक टिकिट तय करने का ऐलान जरूर किया था लेकिन, अब जैसे हालात दिख रहे हैं, आचार संहिता लगने के बाद ही कांग्र्रेस कुछ कर पाने की स्थिति में होगी। आखिर, सबसे पहिले के फायदे हैं तो खतरे भी हैं। कांग्रेस को सबसे अधिक डर सता रहा है, टिकिट न मिलने से नाराज दावेदार जोगी कांग्रेस की ओर न शिफ्थ कर जाए। दूसरा, जोगी काग्रेस और बसपा में गठबंधन होने के बाद अब नए समीकरण को देखते टिकिट वितरण करना पड़ेगा और तीसरा, चंदा वसूली। पार्टी के एक बड़े नेता ने बताया कि सिंगल नाम वाली सीटों का पार्टी घोषणा कर सकती है। मगर वसूली से घबरा रही है। जितना पहले टिकिट दिया जाएगा, उतना ही जेब भी ढीला करना होगा। चंदा-चकोरी से टिकिट के दावेदार वैसे ही परेशान हैं। टिकिट मिलने पर तो लोग टूट पड़ेंगे।

मोदी का मंच

मंत्री राजेश मूणत के हड़काने और भड़कने का भी जांजगीर के अफसरों पर कोई फर्क नहीं पड़ा। प्रधानमंत्री का मंच ऐसा बना डाला कि पीएम, सीएम, गडगरी समेत मंच पर बैठे सभी गेस्ट पूरे समय पसीना पोंछते रहे। दरअसल, मंच की प्लानिंग के समय किसी का ध्यान इस पर नहीं गया कि तीन बजे सूर्य की तीखी किरणें सीधे मंच पर आएंगी। अफसरों ने सूर्य की दिशा में मंच बनवा डाला। इससे वहां पहुंचते ही प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री को परेशानी होने लगी। सीएम कई बार चेहरे के उपर हाथ से सूर्य की किरणों से बचने की कोशिश करते नजर आए। तो पीएम को आधा दर्जन से अधिक बार रुमाल से चेहरा पोंछना पड़ा।

वक्त बलवान

रिटायर आईएएस डीएस मिश्रा ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उन्हें बिजली विनियामक आयोग का चेयरमैन बनने का मौका मिल जाएगा। विवेक ढांड के चीफ सिकरेट्री बनने के बाद डीएस को मंत्रालय से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था। लोक आयोग में उन्हें उलझाने की कोशिश की गई। 9 साल सीएम के विभाग में काम करने के बाद भी रिटायरमेंट के बाद पोस्टिंग के लिए रिरियाना पड़ा। कुछ नहीं मिला तो आखिरकार उन्हें सहकारिता चुनाव प्रमुख के पद से संतोष करना पड़ा। लेकिन, उपर वाला देता है तो छप्पड़ फाड़ कर। उन्हें ऐसे आयोग की चेयरमैनशिप मिल गई है, जहां बिल्डरों से भी बड़ी-बड़ी बिजली कंपनियां उनके आगे-पीछे चक्कर लगाएंगी।

सीईओ या चना-मुर्रा

गरियाबंद जिला पंचायत सीईओ की नियुक्ति में सरकार कुछ ज्यादा ही प्रयोग कर रही है। चार साल में अब तक आधा दर्जन सीईओ की नियुक्ति हो चुकी है। 2014 में राजकुमार खूंटे को हटाकर रीतेश अग्रवाल को भेजा गया था। इसके बाद जगदीश सोनकर, फिर विनीत नंदनवार और पिछले हफ्ते नंदनवार को हटाकर फिर आरके खूंटे। याद होगा, इस साल लोक सुराज में सीएम गरियाबंद जिले के पुअर पारफरमेंस पर बेहद नाराज हुए थे। अब, सरकार यूं ही चना-मुर्रा की तरह सीईओ बदलते रहेगी तो उस जिले के विकास का तो भगवान ही मालिक हैं।

नो वैकेंसी

बिजली विनियामक आयोग का चेयरमैन की नियुक्ति करके सरकार ने रिटायर होने वाले नौकरशाहों के लिए अब नो वैकेंसी कर दी है। रेरा, सूचना आयोग, बिजली विनियामक आयोग, राज्य निर्वाचन रिटायर नौकरशाहों का पसंदीदा ठौर रहा है। हालांकि, पीएससी में भी रिटायर ब्यूरोक्रेट्स को चेयरमैन बनाया जाता है। लेकिन, दो साल का कार्यकाल होने के कारण अफसरों की इसमें खास दिलचस्पी होती नहीं। लिहाजा, अगले दो-एक साल में सेवानिवृत्त होने वाले अफसरों के लिए ढंग की जगह नहीं मिलेगी। रेरा, मुख्य सूचना आयुक्त और बिजली विनियामक आयोग, तीनों जगहों पर इसी साल पोस्टिंग हुई है।

पहली बार

छत्तीसगढ़ के दो आईएफएस अफसरों को सरकार ने प्रिंसिपल सिकरेट्री बना दिया। देश में ऐसा कभी नहीं हुआ। आईएफएस को सिकरेट्री से उपर प्रमोट नहीं किया गया। लेकिन, मोबाइल योजना में रिजल्ट देने के एवज में संजय शुक्ला को सरकार ने प्रमोशन दे दिया। तो उनके सीनियर पीसी मिश्रा भी प्रमुख सचिव बन गए। अहम यह है कि संजय रिटायर चीफ सिकरेट्री विवेक ढांड के बेहद करीबी माने जाते हैं। लेकिन, ढांड के चार साल सीएस रहने के बाद भी संजय प्रमुख सचिव नहीं बन पाए। चलिये, आवास एवं पर्यावरण विभाग में अमन िंसंह के साथ काम करने का लाभ हुआ।

अंत में दो सवाल आपसे

1. टिकिट के लिए सौदा करते किस नेता की सीडी बाजार में आने की चर्चा है?
2. बीजेपी में जिस तरह अधिकारियों का प्रवेश हो रहा है, उनके लिए पार्टी क्या अधिकारिक प्रकोष्ठ बनाएगी??

शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

एक सीट कांग्रेस को!

9 सितंबर
विधानसभा चुनावों में पहिले बीजेपी और कांग्रेस में तीन-चार सीटों का गिव एंड टेक होता था। याने तू मुझे जीता, मैं तूझे….। दरअसल, उन सीटों पर जानबूझकर कमजोर प्रत्याशी उतारे जाते थे। ताकि, डील न गड़बड़ाए। रायपुर की एक सीट पर एक बड़े नेता के खिलाफ विरोधी पार्टी पिछले कई चुनाव से डमी प्रत्याशी उतार रही है। मगर इस दफा चुनाव में मुकाबला इतना टफ और नजदीकी रहेगा कि कोई पार्टी रिस्क लेने की स्थिति में नहीं है। भले ही सामने वाले नेता कितना करीबी और उपयोगी क्यों न हो। हां, कोरबा में बीजेपी जरूर कांग्रेस को जीताने का प्रयास कर सकती है। इसके पीछे मिथक यह है कि वहां जिस पार्टी का विधायक चुना जाता है, राज्य में उसके विरोधी दल की सरकार बनती है। जय सिंह अग्रवाल दो बार से कोरबा से कांग्रेस के विधायक हैं। इससे पहिले 2003 में कटघोरा विस मे कोरबा आता था, तब कांग्रेस के बोधराम कंवर वहां से जीते थे। तब राज्य में बीजेपी की सरकार बनी थी। 1998 में बीजेपी के बनवारी लाल अग्रवाल जीते, तो अविभाजित मध्यप्रदेश में सरकार कांग्रेस की बन गई थी। ऐसे में, कोरबा से जय सिंह अग्रवाल खड़े हों या आरपीएस त्यागी, सत्ताधारी पार्टी कैसे नहीं चाहेगी कि कांग्रेस वहां से जीत जाए।

भूपेश का फेस

कांग्रेस में मुख्यमंत्री के चेहरे को लेकर भले ही अलग-अलग दावे और अटकलें लगाई जा रही हों मगर सर्वे के आधार पर बात करें तो पीसीसी चीफ भूपेश बघेल का पलड़ा भारी होता जा रहा है। अभी तक जितने सर्वे हुए हैं, सबमें पसंदीदा मुख्यमंत्रियों में डा0 रमन सिंह के बाद भूपेश का नाम प्रमुखता से आ रहा है। हालांकि, कांग्रेस में दावेदारों की कमी नहीं है। भूपेश के साथ टीएस सिंहदेव, चरणदास महंत, रविंद्र चौबे, धनेंद्र साहू, सत्यनारायण शर्मा अग्रिम पंक्ति के अनुभवी लीडर हैं। आदिवासियों में चार बार के विधायक रामदयाल उईके भी कम आशान्वित नहीं हैं। दिल्ली की राजनीति में सांसद ताम्रध्वज साहू अलग अपनी स्थिति मजबूत करते जा रहे हैं। कांग्रेस पार्टी के भीतर ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो मानते हैं कि पार्टी कहीं सत्ता में आई तो भूपेश की बजाए फलां को सीएम बनाया जाएगा….एक बड़े वर्ग का ये भी विश्वास है कि मुख्यमंत्री हमेशा दिल्ली से आता है। याने सांसद सीएम बनता है। जाहिर है, इशारा ताम्रध्वज की ओर है। लेकिन, सर्वे एकतरफा भूपेश की ओर जा रहा है। सियासी पंडितों का कहना है, इससे पार्टी के भीतर भूपेश की न केवल दावेदारी मजबूत हो रही है बल्कि कांग्रेस के अपने समकक्ष नेताओं में एक बड़े फेस के रूप में वे स्थापित हो रहे हैं।

कलेक्टर्स….हिट विकेट?

विधानसभा चुनाव में अबकी कलेक्टरों के हिट विकेट होने की आशंका से सरकार भी चिंतित है। चार दिन की सुबह से शाम तक की ट्रेनिंग और परीक्षा पास करने के बाद भी भारत निर्वाचन आयोग के फुल कमीशन के समक्ष कलेक्टर्स और एसपी का पारफारमेंस कैसा रहा आखिर सबने देखा ही। दो कलेक्टर्स और एक एसपी की कमीशन ने जमकर क्लास ले डाली। असल में, सूबे के 27 में से सिर्फ एक बिलासपुर को छोड़कर बाकी सभी नए हैं। जिला निर्वाचन अधिकारी के रूप में 26 कलेक्टरों का ये पहला विधानसभा चुनाव होगा। राजनांदगांवक कलेक्टर भीम सिंह लोकसभा चुनाव के दौरान नाइट वाचमैन के तौर पर जरूर धमतरी के कलेक्टर बनाए गए थे। लेकिन, लोकसभा और विधानसभा चुनाव में बड़ा फर्क होता है। बहरहाल, बिलासपुर कलेक्टर दयानंद ऐसे डिस्ट्रिक्ट इलेक्शन आफिसर होंगे, जिन्हें 2013 का विधानसभा और 2014 का लोकसभा चुनाव कराने का तजुर्बा है। 2013 में वे कवर्धा कलेक्टर थे। ये उनका दूसरा विधानसभा चुनाव होगा।

सिद्धार्थ और दयानंद

बात कलेक्टर और इलेक्शन की निकली तो सिद्धार्थ कोमल परदेशी का जिक्र स्वाभाविक है। 2003 बैच के आईएएस सिद्धार्थ ने लगातार चार जिलों की कलेक्टरी की ही है। इनमें वीवीआईपी डिस्ट्रिक्ट कवर्धा और राजनांदगांव के साथ ही रायपुर और बिलासपुर जैसे पहले और दूसरे नम्बर का सबसे बड़ा जिला शामिल हैं। यही नहीं, सिद्धार्थ छत्तीसगढ़ के पहले ऐसे कलेक्टर रहे, जिन्हें दो विधानसभा और दो लोकसभा इलेक्शन कराने का अवसर मिला। उन्होंने 2008 और 2013 के विधानसभा और 2009 और 2014 का लोकसभा चुनाव करवाया। अलबत्ता, बिलासपुर कलेक्टर दयानंद अपने तीन बरस सीनियर सिद्धार्थ का बड़ी तेजी से पीछा कर रहे हैं। उन्होंने परदेशी के लगातार चार जिलों में कलेक्टर रहने की बराबरी कर ली है, अगर लोकसभा चुनाव तक बिलासपुर में टिक गए तो सबसे अधिक चुनाव कराने वाले सिद्धार्थ की बराबरी कर लेंगे।

बंद कमरे में परीक्षा

चुनाव आयोग की परीक्षा में फेल तीन कलेक्टरों के नामों का खुलासा न हो सकें, इसके लिए आयोग के अफसरों ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। नीचे से लेकर उपर तक फारमान जारी किया गया, किसी भी सूरत में नाम बाहर नहीं जाना चाहिए। वरना, आईएएस बिरादरी की बदनामी होगी। हाल ही में फेल कलेक्टरों के लिए आयोग ने दोबारा परीक्षा आरगेनाइज की। निमोरा स्थित प्रशासन अकादमी में ऐसी व्यवस्था की गई कि फेल्योर कलेक्टर पीछे के दरवाजे से आए और बंद कमरे में एग्जाम देकर निकल लिए। इसे कहते हैं, यूनिटी। ये आईएएस में ही संभव है।

उल्टा-पुलटा

सरकार ने शिक्षक दिवस की पूर्व संध्या पर जीतेंद्र शुक्ला को पंचायत में आरपी मंडल के पास भेज कर गुरू-शिष्य को फिर से एक साथ कर दिया। लेकिन, सरकार ने ऐसा करके जितेंद्र के साथ अन्याय कर दिया। नगरीय प्रशासन के अनुभवी इस ब्राम्हण अफसर को कलेक्टर बनाने की बजाए सरकार शराब बिकवाती रही और, चुनाव का समय आया तो पंचायत में भेज दिया। जबकि, जीतेंद्र को नगरीय प्रशासन का खासा अनुभव है। पंचायत में वे कभी रहे नहीं। बिलासपुर, रायपुर और कोरबा के वे नगर निगम कमिश्नर रहे। मंत्रालय में भी इसी विभाग के डिप्टी कमिश्नर रहे। उधर, तारण सिनहा, जिन्हें पंचायत का तजुर्बा है, उन्हें शराब और संस्कृति में भेज दिया। याने पूरे ही उल्टा-पुलटा।

मौके का फायदा

सरकार चुनावी कसरत में जुटी है तो कुछ अफसर मौके का फायदा उठाने में नहीं चूक रहे। आदिवासी संभाग के एक एसपी ने तो उगाही का संगठित कारोबार चालू कर दिया है। हाल ही में उसने एक कोयला व्यापारी की नस पकड़ी तो पूरे पेटी खोखा वसूल लिया। काले कोटधारी एक विचौलिये को उन्होंने इसी काम के लिए लगा दिया है। हालांकि, एसपी से तब रांग नम्बर डायल हो गया, जब उन्होंने एक दूसरे कोयला व्यापारी की गर्दन पकड़़ते हुए 50 पेटी की डिमांड कर डाली। उन्हें पता नहीं था कि जिस व्यापारी से वे अपने बिकने का रेट बताएं हैं, वह भाजपा ज्वाईन कर चुका है। अब एसपी को काटो तो खून नहीं। फिर, लगे माफी पर माफी मांगने।

पतली गली से….

इसे ही कहते हैं, पतली गली से निकलना। आईपीएस अभिषेक शांडिल्य का डेपुटेशन पर सीबीआई में हुआ था। लेकिन, राजभवन में एडीसी से वे रिलीव नहीं हो पा रहे थे। राज्यपाल बलरामदास टंडन का इस बीच देहावसान हो गया। और, अभिषेक चुपके से सीबीआई के लिए रिलीव होकर निकल लिए दिल्ली।

अंत में दो सवाल आपसे

1. चुनाव आयोग के हिट लिस्ट में किस कलेक्टर का नाम सबसे उपर है?
2. उम्र के आधार पर कहीं टिकिट न कट जाए, इस खौफ से कांग्रेस के किस वयोवृद्ध नेता ने अपना 82वां जन्मदिन नहीं मनाया?

शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

वो सात घंटे!

2 सितंबर 2018
इलेक्शन कमीशन ने चुनावी तैयारी के लिए कलेक्टर, एसपी, आईजी, कमिश्नरों की लंबी बैठक ली। सवा दो बजे से रात नौ बजे तक। याने पूरे सात घंटे। एक जगह पर बिना हिले-डुले बैठना…..आप समझ सकते हैं। आयोग के अफसरों ने बैठक प्रारंभ होते ही ऐसा हड़का दिया कि लोगों को कंपा देने वाले कलेक्टर, एसपी भीतर से कांप गए! कहीं राडार पर आ गए तो निबटने में देर नहीं लगेगी। यही वजह है कि जब तक मीटिंग चलती रही, किसी अफसर ने जबर्दस्त जरूरत पड़ने के बाद भी वाशरुम जाने की हिमाकत नहीं की। दरअसल, दिल्ली से आए निर्वाचन आयोग के अफसरों ने मीटिंग प्रारंभ होते ही कलेक्टर, एसपी पर ऐसा खौफ जमा दिया कि पूछिए मत! सबसे पहिले एक कमिश्नर ने यह बोलकर कि यहां बैठे कई सीनियर अफसर उंघ रहे हैं, अधिकारियों की नींद भगा डाली। इसके बाद बारी आई एसपी की। सरगुजा संभाग के एक एसपी उतरे सलामी बल्लेबाजी के लिए। मगर वे पहली बॉल पर आउट हो गए। आयोग ने उनसे पूछा अगस्त में वे कितनी वारंट तामिल कराए। वे लगे साल का बताने। उनके पास मंथली डेटा नहीं था। इससे झल्लाकर इलेक्शन कमिश्नर ने उन्हें यह कहते हुए बाहर भेज दिया कि आप पता करके आईये। सरगुजा संभाग के ही दूसरे एसपी खड़े हुए, वे भी आंकडों मे ंउलझ गए। बताते हैं, अधिकांश एसपी साल का फिगर लेकर आए थे। उनके पास मंथली फिगर नहीं थे। लेकिन, सरगुजा संभाग के दो ओपनर बैट्समैन को देखकर बाकी एसपी सतर्क हो गए। और, लगे मातहतों को व्हाट्सएप भेजने। मोबाइल का कमाल था कि बाकी के पास तुरंत महीने का डेटा आ गया। और, लगा जान बची, लाखों पाए। बहरहाल, वो सात घंटे के बाद अफसर जब बाहर निकले तो उनका चेहरा देखने लायक था।

धोखे में कलेक्टरी?

बलौदा बाजार से कलेक्टरी से हटने के बाद बसव राजू ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि वे राजधानी रायपुर के कलेक्टर बन सकते हैं। वे तो कहां इंटर स्टेट डेपुटेशन पर अपने होम स्टेट जाने के लिए लगेज तैयार कर रहे थे। दिल्ली से भी उन्हें एप्रूवल मिल चुका था। बस, आखिरी चरण की कुछ प्रक्रियाएं चल रही थी। याने किसी भी दिन डीओपीटी से उनका आर्डर आ जाता। लेकिन, ओपी चौधरी के इस्तीफे के बाद घटनाक्रम कुछ यूं घूमा कि उनके प्रोफाइल में रायपुर जैसे जिले की कलेक्टरी जुड़ गई। दरअसल, पहली बार जीएडी ने अंकित आनंद का नाम आयोग को भेजा था। लेकिन, आयोग ने कुछ और नाम मांग लिए। दूसरी बार बताते हैं, अंकित के साथ ही दंतेवाड़ा कलेक्टर सौरभ कुमार और बसव राजू का नाम था। जीएडी को लगा कि सौरभ ऑलरेडी कलेक्टर हैं और बसव का डेपुटेशन क्लियर हो गया है, लिहाजा अंकित का हो जाएगा। लेकिन, आयोग ने दोनों का नाम छोड़कर बसव के नाम पर मुहर लगा दी।

सजा अंकित को

जीएडी की चूक की सजा आखिरकार आईएएस अंकित आनंद को भुगतनी पड़ी। जीएडी ने सरकार को बिना इंफार्म कए अंकित का नाम डेपुटेशन के लिए भारत सरकार को भेज दिया। इसी चलते चुनाव आयोग ने उन्हें रायपुर कलेक्टर बनाने पर राजी नहीं हुआ। आयोग का कहना था, जिस अफसर को भारत सरकार ने ले लिया है, उसे कलेक्टर नहीं बनाया जा सकता। अंकित जशपुर और जगदलपुर के कलेक्टर रह चुके थे। रायपुर उनका तीसरा जिला होता। लेकिन, वे कलेक्टर बनते-बनते रह गए।

आयोग सख्त

चीफ इलेक्शन कमिश्नर ओपी रावत सौम्य और शालीन नौकरशाह माने जाते हैं। मध्यप्रदेश कैडर के आईएएस होने के कारण छत्तीसगढ़ से उनका स्वाभाविक जुड़ाव माना जा रहा था। लेकिन, शुरूआती झटके से सूबे के अफसर हतप्रभ हैं। अंकित आनंद को उन्होंने रायपुर कलेक्टर बनाने के लिए तैयार नहीं हुए वहीं, रायपुर आईजी प्रदीप गुप्ता और अंबिकापुपर कलेक्टर किरण कौशल के मामले में उन्होंने कोई राहत नहीं दी। प्रदीप का रायपुर होम डिस्ट्रिक्ट था। सरकार ने कई बार आग्रह किया कि राज्य में आईजी की कमी है। सिर्फ एक आईजी पीएचक्यू में हैं। लेकिन, आयोग टस-से-मस नहीं हुआ। आखिरकार, प्रदीप गुप्ता को बिलासपुर शिफ्थ करना पड़ा।

नो कमेंट्स

जी चुरेंद्र को सरकार ने रायपुर संभाग का कमिश्नर बना दिया है। चुरेंद्र वहीं हैं, जिन्हें पिछले साल लोक सुराज के दौरान सरकार ने गंदे ढंग से हटा दिया था। बीजेपी गवर्नमेंट के 15 साल में पहला मौका था, जब सीएम ने किसी कलेक्टर को हटाने का ऐलान हेलीपैड पर मीडिया के सामने किया होगा। बताते हैं, सरकार चुरेंद्र के पारफारमेंस से खुश नहीं थी। उन्हीं चुरेंद्र को सरकार ने रायपुर का कमिश्नर बना दिया है। खैर, ये भी एक संयोग ही है कि पहली बार पांचों कमिश्नर प्रमोटी आईएएस हैं। उस पर भी, सब एक से बढ़कर एक। अंबिकापुर कमिश्नर के खिलाफ तो डीई चल रही है। चुरेंद्र के खिलाफ भी गंभीर मामले थे। पांचों में बस्तर के धनंजय देवांगन को छोड़ दे ंतो बाकी सभी कमिश्नर प्रातः स्मरणीय हैं।

तलवार की धार

कलेक्टरों और एसपी के लिए चुनाव में काम करना वास्तव में तलवार की धार पर चलने जैसे होता है। इलेक्शन कमिश्नर घुड़की दे गए हैं कि किसी राजनीतिक पार्टी से प्रेरित होकर काम किये तो खैर नहीं। और, ज्यादा नियम-कायदे दिखाए और सरकार कहीं बैक हो गई तो क्या होगा, इसे सोच कर ही अफसर सिहर जा रहे हैं। इनमें भी लंबे समय से जो कलेक्टरी और कप्तानी कर रहे हैं, वे तो पर्याप्त पर्याप्त सुख-सुविधा भोग चुके हैं। नए कलेक्टरों का भला क्या कसूर… बेचारों को चुनाव के दौरान सरकार ने कलेक्टर बना दिया।

सीधे सुप्रीम कोर्ट

2003 के विधानसभा चुनाव के दौरान चुनाव आयोग ने पहले फेज में जांजगीर के कलेक्टर एमआर सारथी और जशपुर कलेक्टर अनंत की छुट्टी कर दी थी। आयोग के फैसले के खिलाफ दोनों हाईकोर्ट से स्टे ले आए थे। लेकिन, इलेक्शन कमीशन पीछे नहीं हटा। अगले दिन सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया और उसी दिन शाम को हाईकोर्ट के स्टे पर स्टे ले आया था। इसके बाद तो फिर किसी नौकरशाह ने आयोग के फैसले के खिलाफ कोर्ट जाने की हिमाकत नहीं की। अनंत और सारथी के बाद आयोग ने पिछले तीनों चुनाव में आधा दर्जन कलेक्टर्स और एसपी को हटाया लेकिन, किसी ने भी उसे चैलेंज नहीं किया।

कहा सो किया

कांग्रेस इस महीने की 15 तारीख तक कुछ टिकिटों का ऐलान कर सकती है। खासकर, जिन सीटों पर सिंगल नाम हैं। मसलन, रायपुर ग्रामीण, दुर्ग शहर, कवर्धा, अंबिकापुर, अभनपुर, साजा, राजिम, आरंग, कोंटा। हालांकि, पीसीसी से तो अनेक सीटों पर सिंगल नाम तय कर दिए हैं। लेकिन, आलाकमान से अभी उस पर मुहर नही लगा है। जाहिर है, जिन सीटों के दावेदारों का नाम दिल्ली से ओके नहीं हुआ है, उसमें अभी टाईम लगेगा। बाकी, दस से बारह सीटों पर दावेदारों के नाम की घोषणा 15 सितंबर तक कर दी जाएगी। इससे कांग्रेस नेताओं को ये कहने के लिए हो जाएगा कि जो कहा, सो किया। जाहिर है, कांग्रेस ने अगस्त तक प्रत्याशियों के नाम फाइनल करने का दावा किया था।

अंत में दो सवाल आपसे

1. किस पार्टी के दावेदार ने 20 करोड़ में अपना टिकिट पक्का किया है?
2. ओपी चौधरी की तोड़ निकालने के लिए कांग्रेस ने आरपीएस त्यागी को पार्टी में लाया है, इसमें वो कितना सफल होगी?

ओपी आखिरी नहीं

26 अगस्त
बीजेपी ज्वाईन कर विधानसभा चुनाव लड़ने वाले ओपी चौधरी अकेले आईएएस नहीं होंगे। कम-से-कम दो और आईएएस सरकार के रणनीतिकारों के संपर्क में हैं। बस्तर संभाग के एक कलेक्टर की बात तो फाईनल राउंड में पहुंच गई है। यदि बात बन गई तो बीजेपी उन्हें बस्तर के किसी सीट पर उतार सकती है। यही नहीं, एक एडिशनल एसपी को जांजगीर की सीट से चुनाव मैदान में उतारा जा सकता है। तानाखार से पूर्व आईजी भारत सिंह भी खम ठोंक रहे हैं। इनके अलावा भी टिकिट की दौड़ में कई और रिटायर आईएएस, आईपीएस बताए जा रहे हैं। रिटायर डीजी राजीव श्रीवास्तव भी संघ में सक्रिय हैं। टिकिट के लिए वे भी बीजेपी के संपर्क में हैं। दरअसल, 15 साल से सत्ता में जमी बीजेपी एंटी इंकाम्बेंसी का असर कम करने फ्रेश चेहरों को ढूंढ रही है। इस कड़ी में कुछ और लोगों को पार्टी में शामिल किया जा सकता है।

कलपेगी आत्मा

रमन कैबिनेट ने अटलजी के नाम पर नया रायपुर के साथ ही कई संस्थानों का नामकरण कर दिया। इसमें बाकी तो ठीक है, पर माड़वा ताप बिजली घर का नामकरण लोगों को खटक रहा है। दरअसल, कोरबा में बना माड़वा बिजली प्लांट के माथे पर देश का सबसे महंगा पावर प्लांट का दाग लगा है। 3000 करोड़ इसके बनने में फूंक गया। एक मेगावॉट पर 9.2 करोड़ रुपए लागत आई है। यह सब हुआ प्लांट निर्माण में लेट लतीफी पर। ऐसे प्लांट का नाम अगर अटलजी के नाम पर रखा जाएगा तो जाहिर है, उनकी आत्मा कलपेगी ही।

फिल्डिंग में कमजोर

अंबिकापुर जैसे बड़े जिले का कलेक्टर रह चुकीं किरण कौशल को सरकार ने बालोद जैसे छोटे जिले की कमान सौंप दी, तो लोगों का चौंकना स्वाभाविक था। दरअसल, मुंगेली के बाद अंबिकापुर भेजी गई किरण का नाम किसी बड़े जिले के लिए चल रहा था। लेकिन, बताते हैं आखिरी मौके पर जिस जिले में उन्हें भेजना था, वहां के कलेक्टर ने कुछ ज्यादा जोर लगा दिया। लिहाजा, सरकार के पास और कोई चारा नहीं बचा था। पता चला है, चुनाव आयोग भी किरण को एक बड़े जिले के लिए तैयार हो गया था। दिल्ली से पूछने पर यहां के अफसरों ने फीडबैक दिया था कि किरण के खिलाफ चुनाव आयोग के क्रायटेरिया के अलावा और कोई एडवर्स नहीं है। लेकिन, ऐन पोस्टिंग के वक्त मामला गड़बड़ा गया।

ये तो हद है!

इलेक्शन हमेशा अर्जेंट होता है। लेकिन, छत्तीसगढ़ में आलम यह है कि कलेक्टर निर्वाचन कार्यालय का ही नहीं बल्कि मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी का फोन रिसीव नहीं कर रहे। सीईओ सुब्रत साहू ने कलेक्टरों को कड़ा पत्र भेजकर चेताया है कि वे आयोग को हल्के में न लें। उन्होंने लिखा है कि मेरा फोन हो या उनके दफ्तर का, हर हाल में वे पिक करें। यदि व्यस्त हों तो कॉल बैक करें। ये तो वाकई पराकाष्ठा है। सीईओ को लेटर लिखना पड़ रहा है। दरअसल, अधिकांश कलेक्टर नए जमाने के हैं। जरूरत है चीफ सिकरेट्री मंत्रालय में एक रिफ्रेशर कोर्स आयोजित कर सभी का ज्ञानवर्द्धन करवाएं। वरना, आचार संहिता लगने पर कई कलेक्टर हिट विकेट होंगे।

दस का दम

सामान्य प्रशासन विभाग ने सेंट्रल डेपुटेशन के लिए नाम भेजकर आईएएस अंकित आनंद को भले ही उलझन में डाल दिया। लेकिन, राज्य सरकार ने दम दिखाया। सरकार ने भारत सरकार से न केवल आर्डर चेंज करने के लिए लिखा है बल्कि रायपुर कलेक्टर बनाने के लिए चुनाव आयोग के पास अंकित आनंद का नाम प्रपोज कर दिया है। अंकित अगर रायपुर कलेक्टर बन गए तो फिर जनगणना में जाने का सवाल ही नहीं उठता।

नॉन आईएएस की ताजपोशी?

बिजली विनियामक आयोग के चेयरमैन के लिए चार रिटायर नौकरशाहों ने भी आवेदन किया है। राधाकृष्णन, डीएस मिश्रा, एनके असवाल और आरएस विश्वकर्मा। लेकिन, नॉन आईएएस एसके शुक्ला के नाम को लेकर खुसुर-फुसुर कुछ ज्यादा हो रही है। शुक्ला यहां क्र्रेडा में लंबे समय तक पोस्टेड रहे हैं। पिछले साल यहां उनका समीकरण गड़बड़ाया तो सौर उर्जा अभिकरण का चेयरमैन बनकर हरियाणा चले गए। हरियाणा सरकार ने उन्हें राज्य मंत्री का दर्जा दिया है। राज्य मंत्री का ओहदा छोड़ अगर वे यहां चेयरमैन के लिए अप्लाई किए हैं, तो इसके अपने मायने होंगे। जाहिर है, नारायण सिंह के रिटायर होने के बाद विनियामक आयोग चेयरमैन का पोस्ट महीने भर से खाली है। नारायण भी रिटायर आईएएस थे। शुक्ला अगर चेयरमैन बनते हैं तो वे दूसरे नॉन आईएएस चेयरमैन होंगे। इसके पहिले बिजली बोर्ड के सचिव मनोज डे को सरकार ने एक मौका दिया था।

करप्शन पर लगाम?

किसानों के बिजली बिल का 100 रुपए लिमिट तय करने बिजली कंपनियों के कर्मचारियों को सरकार ने बड़ा झटका दिया है। क्योंकि, मीटर रीडिंग नियमित होती नहीं। एवरेज बिल के नाम पर हजारों रुपए का बिल किसानों को थमा दिया जाता था। फिर शुरू होता था उसे कम करने का खेल। जाहिर है, बिना नगद नारायण के बिल कम होता नहीं। अब लिमिट तय होने के बाद चलिये किसानों को राहत मिलेगी। और, चुनाव के समय किसान खुश हैं तो नेता भी। तभी तो कैबिनेट में जब यह प्रस्ताव आया तो सारे मंत्रियों ने एक सूर में कहा, इससे बढ़ियां बात और क्या हो सकती है।

हफ्ते का व्हाट्सएप

वो ईद पर भी खुश होते हैं, वो नानक जयंती पर भी खुश होता है, वो दीवाली पर भी खुश होता है, वो क्रिसमस पर भी खुश होता है, सरकारी कर्मचारियों का कोई मजहब नही होता, साहब वो हर छुट्टी पर खुश होता है।

अंत में दो सवाल आपसे

1. नेताओं के जोगी कांग्रेस छोड़कर जाने के पीछे असली वजह क्या है?
2. किस जिले के एसपी चुनावी माहौल में भी थाईलैंड, पटाया का सैर कर आए?

मंगलवार, 21 अगस्त 2018

तरकश के दस बरस

19 अगस्त
तरकश कॉलम के इस हफ्ते ठीक दस बरस हो गए। 2008 अगस्त के तीसरे हफ्ते से हरिभूमि में यह स्तंभ प्रकाशित होना प्रारंभ हुआ था। हालांकि, कुछ अखबारों में तरकश के तीर नाम से यह स्तंभ जरूर छपता था। लेकिन, संस्थान बदलने के क्रम में इसमें ब्रेक आ गया था। उन्हीं दिनों….तारीख तो याद नहीं है….पुराने मंत्रालय में एक सीनियर सिकरेट्री के कमरे में हरिभूमि के प्रधान संपादक हिमांशुजी से मुलाकात हो गई। मुलाकात पुरानी थी मगर उस रोज बरबस बात तरकश की निकली। और, उदार दृष्टि के हिमांशुजी ने तरकश शुरू करने के लिए न केवल हामी भरी बल्कि इसके लिए रविवार का दिन भी तय कर दिया। अब, मेरे समक्ष संकट यह था कि मैं दिल्ली के एक नेशनल डेली से जुड़ा था। इसलिए नाम से कॉलम लिखने पर खतरा था। लिहाजा, प्रारंभ में एस दीक्षित के नाम से यह स्तंभ शुरू हुआ। इसके बाद विषम परिस्थितियों में ही तरकश ब्रेक हुआ। अब तो किसी रविवार को तरकश न आने पर जिस तरह से पाठकों के फोन आते हैं, उसे देखते कॉलम को ब्रेक करने से पहले सोचना पड़ता है। हालांकि, दस बरस की अवधि बहुत लंबी नहीं होती, पर इसे एकदम छोटी भी नहीं कही जा सकती। वो भी अनवरत। यह अवसर मुहैया कराने के लिए हिमांशुजी को आभार। लाखों पाठकों को भी शुक्रिया, जिनके हौसला अफजाई से तरकश ने एक दशक पूरा किया। कुछ सालों से तरकश हरिभूमि के साथ ही अब प्रदेश के सबसे विश्वसनीय न्यूज वेबसाइट न्यूपावरगेमडॉटकॉम पर भी उपलब्ध है। वेबसाइट पर भी इसे उम्मीद से कहीं ज्यादा प्रतिसाद मिल रहा है।

रमन के पीछे अटल!

अटलजी अब नहीं रहे। मगर छत्तीसगढ़ से जुड़े कई वाकये लोगों के अब भी जेहन में हैं। डा0 रमन सिंह को मुख्यमंत्री बनाने में भी उनका अहम रोल रहा। याद होगा, पार्टी को बहुमत मिलने के बाद वेंकैया नायडू को संसदीय बोर्ड ने सीएम चुनाव का पर्यवेक्षक बनाया था। वेंकैया को हाईकमान से दो नाम मिले थे। एक रमन सिंह और दूसरा रमेश बैस का। सांसद और मंत्री के रूप में सीनियर होने के नाते बैस का दिल्ली की राजनीति में पैठ ज्यादा थी। इसलिए, रमन के लीडरशिप में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद भी बैस का नाम सामने आ गया। जबकि, रमन सिंह को केंद्रीय मंत्री से इस्तीफा दिलाकर छत्तीसगढ़ भेजा गया था। लोग कहते यह भी हैं कि प्रदेश अध्यक्ष बनने के लिए पहले बैस को ऑफर दिया गया था। लेकिन, वे केंद्रीय मंत्री का पद छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए। लेकिन, पार्टी के जीतते ही सीएम के दावेदार के रूप में बैस का नाम उछाल दिया गया। दरअसल, केंद्र का एक ताकतवर धड़ा बैस को सीएम बनाने के पक्ष में था। लेकिन, वेंकैया की रिपोर्ट के बाद तत्कालीन पीएम वाजपेयी ने रमन सिंह के नाम पर मुहर लगाने में देर नहीं लगाई।

तीन मंत्री

अटलजी छत्तीसगढ़ को बहुत वेटेज देते थे। कह सकते हैं, मध्यप्रदेश से भी अधिक। उनके प्रधानमंत्री रहने के दौरान केंद्र में छत्तीसगढ़ से तीन मंत्री रहे। डा0 रमन सिंह, दिलीप सिंह जूदेव और रमेश बैस। इससे पहिले कभी भी एक साथ तीन मंत्री नहीं रहे। राज्य निर्माण के पहिले श्रीमती इंदिरा गांधी, चंद्रशेखर और पीवी नरसिम्हाराव सरकार में विद्याचरण शुक्ल छत्तीसगढ़ की नुमाइंदगी करते रहे। जनता पार्टी सरकार में भी पुरुषोतम कौशिक मंत्री रहे। वीपी सिंह, इंद्रकुमार गुजराल और एचडी देवेगौड़ा ने तो किसी को भी मंत्री नहीं बनाया। मनमोहन िंसंह की दूसरी पारी में भी कुछ समय के लिए कांग्रेस के चरणदास महंत को राज्य मंत्री बनाया गया। अलबत्ता, मोदी सरकार में भी छत्तीसगढ़ से सिर्फ विष्णुदेव साय को केंद्रीय मंत्री बनने का अवसर मिला है।

ट्रांसफर पर लगाम

चुनाव आयोग ने छह अगस्त तक प्रशासनिक अफसरों को बदलने का मौका दिया था। इसके बाद मतदाता सूची के पुनरीक्षण का काम प्रारंभ हो जाने के कारण आयोग ने अब 27 सितंबर तक चुनाव कार्य से जुड़े किसी भी अफसर को हटाने पर रोक लगा दी है। याने कलेक्टर, डिप्टी कलेक्टर अब 27 सितंबर तक आयोग के नियंत्रण में रहेंगे। इसके करीब हफ्ते भर बाद आचार संहिता प्रभावशील हो जाएगी। याने अब जो भी करना होगा, 27 सितंबर के दो-तीन दिन के भीतर ही। क्योंकि, फिर पूरा सिस्टम चुनाव आायोग के नियंत्रण में आ जाएगा। हालांकि, पता चला है सरकार आयोग की विशेष अनुमति से कुछ कलेक्टरों को बदलना चाहती है।

बड़े जिले प्रभावित

आयोग से अनुमति मिलते ही बड़े जिले के तीन-से-चार कलेक्टर बदले जा सकते हैं। इनमें पहला नाम अंबिकापुर कलेक्टर किरण कौशल का है। सरकार के आग्रह के बाद भी चुनाव आयोग उन्हें रिलीफ देने तैयार नहीं हुआ। किरण पिछले विस चुनाव के दौरान अंबिकापुर में सीईओ थी। और, आयोग के क्रायटेरिया के अनुसार पिछले चुनाव के दौरान पोस्टेड अफसर उसी जिले में इस चुनाव में उस पोस्ट या प्रमोशन के पोस्ट पर नहीं रह सकता। लिहाजा, किरण का बदला जाना तय है। सरकार चूकि किरण को राहत दिलाने आयोग तक में दरख्वास्त की थी….अमित शाह के कार्यक्रम के बाद उनका नम्बर काफी बढ़ा हुआ है। जाहिर है, उन्हें अंबिकापुर से चेंज करने पर सरकार उन्हें छोटा-मोटा जिला तो देगी नहीं। उन्हें एक बड़ा जिला मिलने जा रहा है। किरण के अलावे तीन और बड़े जिलों के कलेक्टरों को बदलने की अटकलें हैं। इनमें से एक को मंत्रालय भेजा जाएगा और दूसरे को अपग्रेड करके बड़े जिले में शिफ्थ किया जाएगा। इनमें कुछ नाम ऐसे होंगे, जो आपको चकित करेंगे।

डीएस का पलड़ा भारी

बिजली विनियामक आयोग के चेयरमैन और मेम्बर के लिए आधा दर्जन आवेदन आएं हैं। लेकिन, इनमें दो का ही पलड़ा सबसे भारी है। रिटायर ब्यूरोक्रेट्स डीएस मिश्रा और जीएस मिश्रा। डीएस एसीएस से रिटायर हुए और जीएस प्रिंसिपल सिकरेट्री से। जीएस माटी पुत्र हैं और सत्ता के गलियारों में उनकी पैठ भी अच्छी है। लेकिन, डीएस के लिए आईएएस लॉबी जुटी है। असल में, आईएएस लॉबी में हमेशा से डायरेक्ट आईएएस का प्रभाव रहा है। वो नहीं चाहती कि राज्य निर्वाचन के बाद बिजली विनियामक आयोग का पोस्ट भी प्रमोटी आईएएस के पास चला जाए। निर्वाचन में ठाकुर राम सिंह कमिश्नर हैं। लिहाजा, दोनों मिश्र बंधुओं में डीएस का पलड़ा अभी तक भारी दिख रहा है। ऐन वक्त पर अगर उपर से कोई नाम आ गया तो फिर बात अलग है।

अंत में दो सवाल आपसे

1. चुनाव आयोग की परीक्षा में फेल एक कलेक्टर को सरकार ने प्रमोशन कैसे दे दिया?
2. अमित शाह के छत्तीसगढ़ विजिट में किस अफसर के बीजेपी प्रवेश की जबर्दस्त चर्चा है?

रविवार, 12 अगस्त 2018

धोखे में या इरादतन?

12 अगस्त
आईएएस अंकित आनंद के भारत सरकार में डेपुटेशन से ब्यूरोक्रेसी स्तब्ध है। हर कोई जानना चाह रहा है कि सरकार के इस पसंदीदा अफसर का नाम धोखे में भारत सरकार को चला गया या इरादतन। आखिर, अंकित साढ़े तीन साल से बिजली वितरण कंपनी संभाल रहे हैं। सरकार को उनका कोई विकल्प नहीं मिल रहा था। जिन आईएएस को अच्छे कामों की वजह से सरकार ने कलेक्टर नहीं बनाया, उनमें राजेश टोप्पो के अलावा अंकित भी हैं। जाहिर है, सरकार अगर लौटी तो उन्हें कम-से-कम एक बड़े जिले का कलेक्टर बनना तय था। लेकिन, जीएडी ने सब गु़ड़ गोबर कर दिया। बताते हैं, भारत सरकार ने जनगणना डायरेक्टर के लिए भारत सरकार से तीन नाम मांगे थे। जीएडी ने अंकित आनंद, यशवंत कुमार समेत एक महिला आईएएस का नाम प्रपोज कर दिया। आमतौर पर भारत सरकार उपर के दो नामों पर विचार करती है। यशवंत का चूकि विजिलेंस क्लियरेंस नहीं था। इसलिए, उनका नाम कट गया। अंकित आईआईटीयन हैं। कंप्यूटर साइंस में उन्होंने बीटेक किया है। इसलिए, उनका नाम ओके हो गया। राज्य सरकार के पास जब इसका आदेश पहुंचा तो आफिसर्स आवाक रह गए। अब सरकार केंद्र को लेटर भेज रही है कि अंकित को एडिशनल चार्ज के रूप में स्टेट में भी काम करने की छूट दी जाए। भारत सरकार ने अगर यह प्रस्ताव मान भी लिया तो भी अंकित का इसमें नुकसान ही हैं। न तो वे एडिशनल चार्ज में कलेक्टर बन पाएंगे और ना ही राज्य सरकार उन्हें महत्वपूर्ण पोस्टिंग दे पाएगी। बहरहाल, सवाल िंफर वही है कि यह सब घोखे में हुआ या इस बिहारी अफसर को ठिकाने लगाया गया?

कप्तानी ब्रेक

राजनांदगांव से हटाए गए एसपी प्रशांत अग्रवाल हफ्ते भर में जबर्दस्त वापसी करते हुए बलौदा बाजार का पुलिस कप्तान बनने में कामयाब रहे। लेकिन, कप्तानी ब्रेक होने से जाहिर तौर पर उन्हें झटका लगा होगा। 2008 बैच के इस आईपीएस का राजनांदगांव तीसरा जिला था। सरकार ने पहली लिस्ट में उन्हें पीएचक्यू में एआईजी बनाया गया। और, चार दिन बाद दूसरी सूची में बलौदा बाजार रवाना कर दिया। वैसे भी वीवीआईपी जिले के अफसरों को कम-से-कम एक पोस्टिंग अच्छी मिलती है। राजनांदगांव सीएम का निर्वाचन जिला है। लिहाजा, प्रशांत को अपेक्षाकृत बड़ा जिला मिलने की उम्मीद की जा रही थी। लेकिन, उनके साथ उल्टा हो गया। पीएचक्यू अगर उन्हें नहीं भेजा गया होता तो बलौदा बाजार उनका चौथा जिला होता। आखिर, लगातार कप्तानी के अपने मतलब होते हैं। छत्तीसगढ़ में बद्री मीणा लगातार सात जिले के एसपी रहे हैं। जो अब तक का रिकार्ड है। हालांकि, संजीव शुक्ला पांचवा जिला कर रहे हैं। जशपुर, राजनांदगांव, रायगढ़, रायपुर और अब दुर्ग। लेकिन, अब वे डीआईजी बन जाएंगे। इसलिए, दुर्ग उनका आखिरी जिला होगा। प्रशांत के डीआईजी बनने में अभी करीब चार साल बचे है। इसलिए, बद्री के रिकार्ड का उनसे खतरा हो सकता था। लेकिन, अब लगता है बद्री का रिकार्ड टूटना मुश्किल होगा।

कलेक्टर की उलझन

सरकार के आग्रह के बाद भी अंबिकापुर कलेक्टर किरण कौशल के मामले में चुनाव आयोग ने अभी तक कोई फैसला नहीं किया है। आयोग से न ना हो रहा है और न हां ही। जाहिर है, ऐसे में किसी भी अफसर के लिए असमंजस की स्थिति होगी। हालांकि, उपर से किरण को अश्वस्त किया गया है, आयोग को उन्हें कंटीन्यू करने के लिए तैयार कर लिया जाएगा। मगर जब तक वहां से कोई आदेश नहीं आएगा, तब तक तो पेंडूलम जैसी ही उनकी स्थिति रहेगी। स्वाभाविक तौर पर काम पर भी इसका असर पड़ेगा। दरअसल, पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान किरण अंबिकापुर जिपं की सीईओ थीं। चुनाव आयोग के नियमानुसार कोई अफसर अगर पिछले चुनाव के समय वहां पोस्टिंग रहा हो तो अब प्रमोशन पर वहां पोस्ट नहीं हो सकता। सरकार ने अफसरों की कमी का हवाला देते हुए इस क्लॉज से रियायत देने के लिए आयोग को सीईसी क जरिये लेटर लिखा है।

फर्स्ट टाईम-1

मंत्रालय में ज्वाइंट सिकरेट्री यशवंत कुमार को सरकार ने ऐसी पोस्टिंग दी कि लोग बोल रहे हैं….भूतो न भविष्यति। उन्हें वाणिज्य, उद्योग और उर्जा से हटाकर डायरेक्टर लोकल फंड आडिट बनाया गया है। यह पोस्ट या तो एडिशनल तौर पर रहा है या फिर किसी प्रमोटी आईएएस के पास। रेगुलर रिकू्रट्ड आईएएस के पास सिंगल विभाग के रूप में कभी नहीं रहा। 2007 बैच के आईएएस यशवंत की कलेक्टरी की गाड़ी बीजापुर से जो उतरी, अब वे ट्रेक पर आने का नाम नहीं ले रही। एक तो जवानी के तीन साल उन्हें मंत्रालय में बितानी पड़ गई और अब तो उन्हें वहां से भी बाहर का रास्ता दिखा गया है।

फर्स्ट टाईम-2

अरबन एडमिनिस्ट्रेशन में विवेक ढांड, अजय सिंह, एमके राउत, सीके खेतान, आरपी मंडल सरीखे आईएएस सिकरेट्री रहे हैं। उस विभाग को जीएडी ने स्पेशल सिकरेट्री निरंजन दास के हवाले कर दिया है। निरंजन राप्रसे से आईएएस में आए हैं। इससे पहिले इस विभाग में इतना जूनियर अफसर कभी भी पोस्ट नहीं रहा। रोहित यादव स्पेशल सिकरेट्री थे। लेकिन, वे डायरेक्ट आईएएस थे। यद्यपि, विभाग की कमान मिलने के बाद निरंजन ने गजब का उत्साह दिखाया है। हफ्ते भर में बिलासपुर और बस्तर का दौरा कर आए। अब देखना है, सरकार के इस नए प्रयोग में वे कितना खरा उतरते हैं।

अंत में दो सवाल आपसे

1. एक अफसर को बेहद सफाई से क्यों किनारे लगा दिया गया?
2. पैराशूट नेताओं को कांग्रेस टिकिट नहीं देगी तो आरसी पटेल, विभोर जैसे अफसरों का क्या होगा?