रविवार, 29 अक्तूबर 2023

10 हजार करोड़ की माफ़ी

 तरकश, 29 अक्टूबर 2023

संजय के. दीक्षित

10 हजार करोड़ की माफ़ी 

सीएम भूपेश बघेल ने सरकार लौटने पर किसानों का फिर कर्जा माफ करने का बड़ा दांव चल दिया है। भूपेश का छोड़ा गया ये मिसाइल इतना खतरनाक है कि भाजपा को उसका काट ढूंढ पाना मुश्किल प्रतीत हो रहा होगा। बीजेपी के सामने अब मजबूरी आ गई है कि उसे मुकाबले में अगर टिके रहना है तो जाहिर तौर पर इससे कोई बड़ा गोला दागना पड़ेगा। बता दें, कर्ज माफी से किसानों की जेब में करीब 10 हजार करोड़ रुपए जाएगा। इसे ऐसे समझते हैं। 2018 में सरकार बनने पर 19.75 लाख किसानों का कर्ज माफ किया गया था। इस पर करीब 10 हजार करोड़ रुपए खर्च हुआ था। इस बार 24.87 लाख किसान रजिस्टर्ड हैं। इनमें से मोटे अनुमान के अनुसार करीब 70 फीसदी किसानों ने 10 हजार से लेकर तीन लाख तक का लोन लिया है। से संख्या करीब 17 लाख के करीब जा रही है। अफसरों का कहना है, इस बार चूकि राजीव न्याय योजना के तहत लगातार उनके खाते में पैसा जाता रहा, इसलिए 2018 की तुलना में इस बार कम किसानों ने लोन लिया है। इसीलिए संख्या में करीब दो लाख की कमी आई है। याने इस बार भी कर्ज माफी का एमाउंट करीब 10 हजार करोड़ ही रहेगा। बहरहाल, कर्ज माफी की घोषणा के बाद लोन नहीं लेने वाले किसान अब पछता रहे हैं...काश! हम भी कर्ज ले लिए होते।

भाजपा का राकेट...

जाहिर है, सीएम भूपेश बघेल की कर्ज माफी की घोषणा ने भाजपा के हथियार कुंद तो किए ही, चुनाव की दिशा और दशा बदल दिया है। भाजपा अभी तक ईडी, आईटी, भ्रष्टाचार से लेकर हिन्दुत्व कार्ड के जरिये हवा का रुख अपने पक्ष मे ंकरने की कोशिश कर रही थी। बिरनपुर कांड के पीड़ित पिता को साजा से टिकिट दिया गया तो हिन्दुत्व को लेकर मुखर विजय शर्मा को कवर्धा से उतारा गया। मगर छत्तीसगढ़ में अब ये स्थापित हो गया है कि धान और किसान ही इस चुनाव के मुद्दे होंगे और आगे भी इसी पर चुनाव लड़े जाएंगे। 2018 का विधानसभा चुनाव भी इसी इश्यू पड़ा लड़ा गया। तब कांग्रेस ने बोनस के साथ 25 सौ रुपए धान खरीदने का वादा किया और यही टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ। कांग्रेस के पक्ष में माहौल बना और इसका नतीजा हुआ कि बीजेपी 15 सीटों पर सिमट गई। हालांकि, बीजेपी की लोकल बॉडी ने धान पर लचीला रुख अपनाने के लिए दिल्ली के नेताओं से आग्रह किया था। मगर बात बनी नहीं। चूकि इस बार भी धान और किसान चुनाव के केंद्र बिन्दु बनते जा रहे हैं तो लगता है भाजपा भी इस बार मुठ्ठी खोलेगी। पार्टी ने अभी एक वीडियो भी जारी किया है। इसमें बताया गया है कि कांग्रेस का बम फुस्स हो गया...उनका राकेट आने वाला है। देखने की उत्सुकता होगी, बीजेपी का राकेट कांग्रेस के मिसाइल पर क्या असर डालता है।

पुलिस से चुनाव

छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद ये पहला मौका होगा, जब पहले चरण का प्रचार खतम होने में हफ्ते भर बच गए हैं मगर चुनाव जैसा माहौल कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा। न प्रत्याशियों में जोश और गरमी नजर आ रही और न ही प्रचार अभियान में तेजी। गनीमत है, चौक-चौराहे पर पुलिस वाले चेकिंग कर चुनाव जैसा अहसास करा दे रहे। वरना, बाहर से आए नेता और मीडियाकर्मी भी छत्तीसगढ़ की चुनावी स्थिति को देखकर आवाक हैं। चुनाव प्रचार का लय न पकड़ने का एक बड़ा कारण घोषणा पत्र माना जा रहा है। पिछले बार की तरह यह चुनाव भी घोषणा पत्र के आधार पर लड़ा जाना है। इसलिए, सबकी निगाहें इस बात पर टिकी है कि दोनों पार्टियों किसानों को क्या दे रही है। किसान भी अब चतुर हो गए हैं...जो ज्यादा देगा उसे वोट देंगे। दरअसल, छत्तीसगढ़ में करीब 37 लाख किसान हैं। इसमें से 30 लाख भी अगर वास्तविक किसान होंगे तब भी एक परिवार में चार वोट के आधार पर एक करोड़ से उपर मतदाता होते हैं। चुनावी उलटफेर करने के लिए ये एक बड़ा फिगर है।

ब्यूरोक्रेट्स पर प्रेशर

छत्तीसगढ़ में जैसे-जैसे चुनाव की तारीखें नजदीक आती जा रही हैं, अफसरों के खिलाफ शिकायतों की फाइल मोटी होती जा रहीं। पता चला है, अभी तक डेढ़ दर्जन से अधिक आईएएस, आईपीएस अधिकारियों के खिलाफ आयोग में कंप्लेन हो चुके हैं। एक्साइज के खिलाफ भी काफी शिकायतें की जा रही। पुलिस में एसपी, आईजी से लेकर बड़े-बड़े अधिकारियों के नाम हैं तो लगभग आधे दर्जन जिले के कलेक्टरों के नाम शिकायतों की लिस्ट में शामिल हैं। हालांकि, ये शिकायतें चुनावी होती हैं। अफसरों पर प्रेशर टेकनीक भी। सियासी नेताओं को भी पता होता है, ब्यूरोक्रेट्स किसी के नहीं होते...जिसका झंडा, उनके अफसर। 2003 के विधानसभा चुनाव में दो जिले ऐसा रहा, जहां के कलेक्टर, एसपी दोनों को आयोग ने बदल दिया था। सरकार बदलने पर उन्हें ट्रेक पर आने में चार-पांच महीना लगा। मगर उसके बाद फिर उन्हें महत्वपूर्ण पोर्टफोलियो मिल गया। एक को तो राजधानी रायपुर कलेक्टर की कमान मिल गई। तो दूसरे ने तीन जिले की कलेक्टरी की।

अफसरों पर तलवार?

आचार संहिता लागू होने के पहिले माना जा रहा था कि छत्तीसगढ़ की ब्यूरोक्रेसी जिस तरह ईडी और आईटी के राडार पर है, उसमें बड़ी संख्या में अफसरों की छुट्टी होगी। इलेक्शन कमीशन के फुल बोर्ड ने कलेक्टर, एसपी की मीटिंग में तीखे तेवर दिखाए ही थे। मगर छत्तीसगढ़ में दो कलेक्टर और तीन एसपी को हटाने के बाद कार्रवाई ठहर गई। जबकि, राजस्थान और तेलांगना में कई अफसर निबट गए। तेलांगना में तीन पुलिस कमिश्नर समेत 13 आईपीएस अफसर हटा दिए गए। छत्तीसगढ़ को लेकर चुनाव आयोग अगर उदार है तो इसकी एक वजह डिप्टी इलेक्शन कमिश्नर आरके गुप्ता भी हैं। गुप्ता केंद्रीय मंत्रालय कैडर के अफसर हैं। काफी मैच्योर भी। उन्हीं के पास छत्तीसगढ़ का प्रभार है। ब्यूरोक्रेसी के लोग भी मानते हैं कि गुप्ता की जगह अगर कोई आईएएस अफसर छत्तीसगढ़ का इंचार्ज होता तो अभी तक कई की लाईन लग गई होती। वैसे मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी रीना बाबा कंगाले भी अफसरों को लेकर कोई पूर्वाग्रह नहीं है। अफसरों के कार्रवाई से बचने ये भी एक बड़ा कारण है। हालांकि, सेकेंड फेज के इलेक्शन में बीसेक दिन का समय है...कोई खुद से हिट विकेट हो जाए तो इसमें आयोग और सीईसी क्या करेंगी।

30 पर नजर

30 अक्टूबर का दिन खासकर कांग्रेस के लिए बड़ा महत्वपूर्ण रहेगा। इस दिन दूसरे और अंतिम चरण के नामंकन का अंतिम दिन है। कांग्रेस की सियासत में इस बात की हलचलें तेज हैं कि इस दिन जिन नेताओं को टिकिट नहीं मिला है वे निर्दलीय या किसी और पार्टी से अपना पर्चा दाखिल कर सकते हैं। हालांकि, कांग्रेस पार्टी द्वारा उन्हें समझाने की कोशिशें भरपूर की जा रही मगर इसके बाद भी दो-से-तीन नेता अपना सूर नहीं बदल रहे। उल्टे प्रचारित किया जा रहा कि कुछ सीटों पर प्रत्याशी बदले जा सकते हैं, जो कि अब होना नहीं है। धमतरी से गुरमुख सिंह होरा के तेवर कायम हैं तो मनेंद्रगढ़ से विनय जायसवाल और रायपुर उत्तर से अजीत कुकरेजा के बारे में भी कई तरह की बातें सुनाई पड़ रही है। हालांकि, कांग्रेस को दोनों स्थितियों में नुकसान था। इनमें से कुछ को पार्टी अगर टिकिट देती तो वे जीतते नहीं। और अगर बगावत कर खड़े हो गए तो भी वे अधिकृत प्रत्याशी को नुकसान पहुंचाएंगे। अंतागढ़, पामगढ़ और सराईपाली में पार्टी के तीन नेता पाला बदलकर अलग मैदान में उतर रहे हैं। ऐसे में, अब कांग्रेस भी नहीं चाहेगी कि कोई और नेता बगावत करें। जाहिर है, 30 अक्टूबर पर सबकी निगाहें रहेंगी।

अंत में दो सवाल आपसे

1. विधानसभा अध्यक्ष कभी चुनाव नहीं जीतते...चरणदास महंत क्या अबकी इस मिथक को तोड़ देंगे?

2. टिकिट न मिलने से नाराज एक भाजपा नेता अधिकृत प्रत्याशी के खिलाफ एक महिला को मैदान में उतारने की तैयारी कर रहे हैं...नाम?


शनिवार, 21 अक्तूबर 2023

Chhattisgarh Tarkash: विधायक जी का एमएमएस

 तरकश, 22 अक्टूबर 2023

संजय के. दीक्षित

विधायक जी का एमएमएस

एक बड़ी पार्टी से विधानसभा चुनाव लड़ रहे युवा विधायकजी के प्रायवेट एमएमएस की चर्चा इन दिनों बड़ी तेज है। हालांकि, विधायकजी मैनेज करने की कोशिशें तो खूब कर रहे हैं मगर दिक्कत यह है कि एमएमएस इतने सारे लोगों के पास पहुंच गया है कि बेचारे कितनों को साध पाएंगे। एमएमएस में विधायकजी मुंबई के मरीन ड्राईव में एक महिला मित्र का हाथ पकड़े समुद्र की लहरों को निहारते...रोमांटिक अंदाज में बात करते नजर आ रहे हैं, तो दूसरा वाला कुछ ज्यादा है, उसे यहां कोट नहीं किया जा सकता। बताते हैं, विरोधी पार्टी विधायकजी के नामंकन की प्रतीक्षा कर रही है। उसके बाद किसी रोज उसे वायरल किया जाएगा। एमएमएस अगर पब्लिक डोमेन में आ गया तो निश्चित तौर पर विधायक की मुश्किलें बढ़ जाएगी। क्योंकि, मौसम चुनावी है। और, ऐसे चटपटे आडियो, एमएमएस को पंख लगते देर नहीं लगते।

दोनों हाथ में लड्डू

कांग्रेस ने पहली सूची में 30 प्रत्याशियों की घोषणा की, उनमें सबसे अधिक गिरीश देवांगन का नाम चौंकाया। उन्हें राजनांदगांव में एक्स सीएम डॉ0 रमन सिंह के खिलाफ मैदान में उतारा गया है। लोग आज भी इसका राज जानने उत्सुक हैं। हालांकि, कांग्रेसी खेमे की तरफ से कहा गया कि रमन सिंह को गिरीश के अलावा कोई टक्कर नहीं दे सकता था। मगर यह भी सही है कि बड़े चेहरों के मुकाबले चुनाव लड़ने के भी अपने फायदे हैं। इसमें दोनों हाथ में लड्डू होते हैं। एक तो आदमी पहचान का मोहताज नहीं रहता। माइनिंग कारपोरेशन के चेयरमैन के तौर पर कुछ परसेंट लोग उन्हें जानते होंगे। अब गिरीश सुखिर्यो में रहेंगे। फिर बड़े व्यक्ति से हारने के बाद सहानुभूति वेटेज भी मिलता है। कई बार राज्यसभा की टिकिट मिल जाती है। अगर गिरीश जीत जाएंगे, तो सोचिए क्या होगा। वे बड़े नेता के तौर पर स्थापित हो जाएंगे, जो 15 साल के सीएम को परास्त कर दिया। देश भर के मीडिया में वे चर्चाओं में रहेंगे।

19-1 का स्कोर

छत्तीसगढ़ के फर्स्ट फेज में जिन 20 सीटों पर इलेक्शन होने जा रहे हैं, उनमें भाजपा के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। उसे सिर्फ पाना ही है। जाहिर है, इन 20 में से सिर्फ एक सीट बीजेपी के पास है। एक्स सीएम डॉ. रमन सिंह की। यद्यपि, 2018 के विस चुनाव में दंतेवाड़ा से भीमा मंडावी भी जीते थे। मगर नक्सली घटना में उनकी मौत के बाद उपचुनाव में बस्तर की इकलौती सीट भी बीजेपी के हाथ से फिसल गई। इन 20 सीटों में बस्तर की 12 और राजनांदगांव, मोहला मानपुर, खैरागढ़ और कवर्धा जिले की आठ सीटें शामिल हैं। सियासी पंडितों की मानें तो इन 20 में से अभी के हालात में आठ सीटें बीजेपी को मिलती दिख रही हैं। आगे चलकर यह फिगर अप हो जाए या डाउन कहा नहीं जा सकता।

धान वाली 50 सीटें

बस्तर और ओल्ड राजनांदगांव जिले में पिछले चुनाव की तुलना में कांग्रेस की सीटें कम हो रही हैं, उधर सरगुजा की स्थिति भी जुदा नहीं है। सरगुजा की 14 में से अभी की स्थिति में बीजेपी को पांच से छह सीटें आती दिखाई पड़ रही हैं। सरगुजा में बीजेपी अभी जीरो पर है। बहरहाल, ऐसे सिचुएशन में कांग्रेस और भाजपा दोनों पार्टियां धान उत्पादन करने वाली 50 मैदानी सीटों पर पूरा जोर लगाने की कोशिश करेंगी। इन्हीं सीटों पर कांग्रेस का धान, किसान और लोगों को टच करने वाला छत्तीसगढ़ी अस्मिता है तो बीजेपी का एंटी इंकांबेंसी के साथ हिन्दुत्व और भ्रष्टाचार का मुद्दा। इन्हीं इलाकों में बसपा का हाथी भी है। बिलासपुर और जांजगीर जिले की कई सीटों पर बीएसपी जीत हार में अहम फैक्टर बनती है। अभी भी पामगढ़ और जैजैपुर बसपा के पास है। 2018 के विधानसभा चुनाव में इन्हीं 50 में बीजेपी की 12, जोगी कांग्रेस की पांच और बसपा की दो सीटें आईं थीं। वहीं कांग्रेस को एकतरफा 31 सीटें मिली थीं। कुल मिलाकर इन्हीं 50 सीटों पर रोचक फाइट देखने का मिलेगी।

गुटीय आधार पर टिकिट

बिलासपुर छत्तीसगढ़ का पहला जिला होगा, जहां सत्ताधारी पार्टी ने योग्यता और जीतने वाले कंडिडेट की बजाए गुटीय आधार पर सीटें बांटी हैं। केंद्रीय चुनाव समिति ने इस बार किसी भी नेता को निराश नहीं किया...बल्कि सभी गुटों को बराबरी से संतुष्ट किया। ये मेरा, ये आपका, ये तुम्हारा...जब टिकिट वितरण का आधार बनेगा तो फिर क्वालिटी की उम्मीद करनी भी नहीं चाहिए। बिलासपुर की छह में से इस समय कांग्रेस के पास दो सीटें हैं और इस चुनाव में भी इसी के आसपास फिगर रहना है। वो भी इसलिए क्योंकि एक टिकिट काम के आधार पर दिया गया है। कांग्रेस के लोगों का भी मानना है कि इस बार बिलासपुर में कांग्रेस पार्टी को सीटें बढ़ाने का मौका था। इसी तरह जांजगीर में भी कांग्रेस को और अच्छा पारफार्मेंस करने का अवसर था। गुटीय सियासत में वहां भी सीटें प्रभावित होती दिख रही हैं। कोरबा में अवश्य कांग्रेस फिर पुरानी स्थिति दोहराने के करीब लग रही है। कोरबा में इस समय तीन कांग्रेस और एक बीजेपी है।

बीजेपी की स्ट्रेटजी

बीजेपी ने जिन 86 सीटों पर टिकिटों का ऐलान किया है उनमें कुछ प्रत्याशियों को देखकर प्रतीत होता है कि जीतने वाला कंडिडेट के साथ ही उसने इस फार्मूले पर टिकिट बांटा है कि हम नहीं तो कांग्रेस भी नहीं। जिन सीटों पर भाजपा को लगा कि उसकी वहां दाल नहीं गल सकती तो उसने ऐसा प्रत्याशी उतार दिया कि गैर कांग्रेस को वहां फायदा मिल जाए। वैसे भी कांग्रेस के लोग बसपा और जोगी कांग्रेस को भाजपा की बी टीम होने का आरोप लगाते ही हैं। जाहिर है, भाजपा ने एक सीट पर ऐसे प्रत्याशी को उतार दिया है, जहां बसपा की सीट सुरक्षित हो गई है।

एडिशनल बोझ

टिकिट के लिए आवेदन करने का फार्मूला लगा कर कांग्रेस नेताओं को रिचार्ज करने में सफल रही मगर उसका खामियाजा अब प्रत्याशियों को उठाना पड़ रहा है। टिकिट डिक्लेयर होने के बाद प्रत्याशियों ने सबसे पहले उनकी लिस्ट निकाली, जिन्होंने टिकिट के लिए अप्लाई किया। चूकि कांग्रेस को भीतरघात का सबसे बड़ा खतरा है इसलिए जो जिस लेवल का है, उस लेवल से उसे संतुष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है। ऐेसे में प्रत्याशियों की जेब पर यह एडिशनल बोझ पड़ जा रहा है।

30 फीसदी नए चेहरे

कांग्रेस पार्टी ने अपनी दो लिस्ट में 83 उम्मीदवारों का ऐलान किया है, इनमें 17 नए चेहरे हैं। याने इन 17 सीटिंग विधायकों की टिकिट कट गई है। पता चला है, आजकल में घोषित होने वाली तीसरी लिस्ट में सभी सात नए प्रत्याशी होंगे। इनमें धमतरी में पहले से भाजपा की रंजना साहू विधायक हैं। बची छह। इन सभी छह सीटों पर पार्टी नए चेहरों को उतारेगी। इस तरह 72 में से 24 विधायकों की टिकिट कांग्रेस ने काट डाली। ये 30 फीसदी होते हैं। इसकी तुलना में भाजपा ने 13 में से सिर्फ एक विधायक को बदला है। डमरुधर पुजारी को। वहीं बसपा ने अपने दोनों विधायकों पर फिर से दांव लगाया है।

अंत में दो सवाल आपसे

1. चुनावी सियासत में बीजेपी के प्लान बी की बड़ी चर्चा है...क्या है ये प्लान बी?

2. फूड मिनिस्टर अमरजीत भगत के सीतापुर में घिर जाने की असली वजह क्या है?



रविवार, 15 अक्तूबर 2023

Chhattisgarh Tarkash: चुनाव आयोग ने पैनल पलटा

 


तरकश, 15 अक्टूबर 2023

संजय के. दीक्षित

चुनाव आयोग ने पैनल पलटा

चुनाव आयोग ने दो कलेक्टर और तीन पुलिस अधीक्षकों को नियुक्त करने भेजे गए सामान्य प्रशासन विभाग के पैनल को पलट दिया। छत्तीसगढ़ के संदर्भ में ऐसा पहली बार हुआ कि आयोग ने एक पैनल के नामों को खारिज करते हुए दूसरे पैनल के दो अफसरों को दो जिले का कलेक्टर बना दिया। बता दें, जीएडी ने बिलासपुर के लिए भीम सिंह, यशवंत कुमार और रीतेश अग्रवाल तथा रायगढ़ के लिए सारांश मित्तर, अवनीश शरण और कार्तिकेय गोयल का नाम आयोग को भेजा था। हालांकि, ये भी समझ से परे है कि अवनीश और कार्तिकेय का नाम जब आब्जर्बर के लिए भेजा जा चुका है तो फिर रायगढ़ कलेक्टर के लिए क्यों प्रस्तावित किया गया। बताते हैं, अवनीश का मिजोरम के आब्जर्बर लिए आदेश भी हो गया था। बहरहाल, आयोग ने रायगढ़ पैनल से नीचे के दोनों नामों को हरी झंडी देते हुए अवनीश को बिलासपुर और कार्तिकेय को रायगढ़ का कलेक्टर नियुक्त कर दिया। दोनों अधिकारियों ने आज ज्वाईन भी कर लिया।

तेलांगना से कम

छत्तीसगढ़ में चुनाव आयोग ने दो कलेक्टर और तीन एसपी बदले...यह फिगर तेलांगना के सामने कुछ भी नहीं। तेलांगना में हैदराबाद के पुलिस कमिश्नर समेत तीन पुलिस कमिश्नर और 10 एसपी को बदल दिया। याने पूरे 13 आईपीएस। उपर से एक कलेक्टर भी। बताते हैं, छत्तीसगढ़ की सूची भी लंबी थी। मगर राहत की बात यह कि सूची में पांच कलेक्टर, एसपी समेत आठ ही नाम आ पाए। हालांकि, ब्यूरोक्रेसी में चर्चा दूसरी सूची की भी है। उसके अनुसार कुछ और कलेक्टर, एसपी और आईजी बदले जाएंगे। लेकिन, यह भी सही है कि आयोग को चुनाव भी तो कराने हैं।

कलेक्टर का एग्जिट पोल

छत्तीसगढ़ में एक ऐसे कलेक्टर भी रहे हैं, जिन पर एग्जिट पोल कराने का आरोप लगा और आयोग ने उनकी छुट्टी भी कर दी। ये बात 2004 के लोकसभा चुनाव की है। तब महासमुंद से पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी चुनाव लड़ रहे थे और उनके सामने थे दिग्गज नेता विद्याचरण शुक्ल। तब विद्या भैया बीजेपी की टिकिट पर मैदान में उतरे थे। चुनाव के बाद आयोग को शिकायत हुई कि कलेक्टर शैलेष पाठक ने कोई एग्जिट पोल कराया है, जिसमें कांग्रेस की जीत बताई गई है। आयोग ने एक सीनियर अफसर को महासमुंद भेजकर इसकी जांच कराई और उसके अगले दिन शैलेष को हटा दिया। बता दें, यह देश का पहला चुनाव रहा, जिसमें दो कलेक्टर हटाए गए। एक ने नामंकन भरवाया, दूसरे ने चुनाव कराया और तीसरे ने काउंटिंग कराई। जब चुनाव का ऐलान हुआ तब रेगुलर कलेक्टर थे मनोहर पाण्डेय। उन पर आरोप लगा कि जोगी के नामंकन में कोई त्रुटि हो गई थी। मनोहर ने उसे सर्किट हाउस में जाकर सुधरवाया। इसके बाद पाठक आए और हिट विकेट हो गए। फिर गौरव द्विवेदी तीसरे कलेक्टर बन गए, जिन्होंने काउंटिंग कराया।

आईजी से आ गए एसपी पर

सीबीआई से डेपुटेशन से लौटे 2007 बैच के आईपीएस रामगोपाल गर्ग को अंबिकापुर का प्रभारी आईजी अपाइंट किया गया था। मगर कुछ दिनों से उनकी पोस्टिंग की चकरी उल्टी घूमनी शुरू हो गई है। रेंज के पुनर्गठन में सरकार ने उन्हें सरगुजा से हटाकर रायगढ़ का डीआईजी बनाया था और अब चुनाव आयोग ने दुर्ग का एसपी अपाइंट कर दिया है। चुनाव आयोग ने शलभ सिनहा की जगह उनकी पोस्टिंग की है। ठीक है सरगुजा में वे प्रभारी आईजी ही थे लेकिन एक बार रेंज में रहने के बाद डीआईजी तक चलता था...उनका रैंक भी यही है। मगर अब फिर से कप्तान...रामगोपाल को खटक तो रहा ही होगा।

इसलिए पुराने चेहरों पर दांव

बीजेपी ने 43 लोगों को पहली बार टिकिट दिया है मगर इसके साथ ही रमन सरकार के सभी 12 मंत्रियों समेत बड़ी संख्या में पुराने चेहरों पर भी दांव लगाया है। पुराने लोगों को फिर से भरोसा जताने पर पार्टी शिकवे-शिकायतों का दौर जारी है। मगर ये भी सही है कि बीजेपी के पास और कोई चारा नहीं था। जाहिर है, 60 फीसदी से ज्यादा नए चेहरों को टिकिट देने का खामियाजा पार्टी कर्नाटक में भुगत चुकी है। छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार के खिलाफ वो भाव भी नहीं कि लोग सरकार को उखाड़ फेंकने पर अमादा हो। उपर से भूपेश बघेल जैसा 18 घंटा काम करने वाला सियासी योद्धा। पार्टी के लोगों का मानना है, महत्वपूर्ण सीटों पर अगर मजबूत लोगों को टिकिट नहीं दी गई तो नए लोग भूपेश बघेल के सामने कहां टिक पाएंगे। लोकसभा की बात अलग थी...उसमें पीएम नरेंद्र मोदी का फेस था...इसीलिए नए चेहरे को मैदान में उतारकर बीजेपी 11 में नौ सीटें झटक ली। बहरहाल, 15 साल मंत्री रहे प्रत्याशियों के पास धन-बल के साथ ही चुनाव जीतने का तजुर्बा है। फिर कोई बड़ा नेता चुनाव में उतरता है तो उसके आसपास की सीटों पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। सियासी पंडितों का भी मानना है कि 12 पूर्व मंत्रियों में से कम-से-कम 10 मंत्री टक्कर देने की स्थिति में हैं। वैसे भी इस चुनाव में बीजेपी दिल मांगे मोर के फार्मूले पर काम कर रही है। परिवारवाद का विरोध करने वाली पार्टी जशपुर राजपरिवार के दो सदस्यों को चुनावी रण में उतार दिया। प्रबल प्रताप सिंह जूदेव कोटा से खड़े हुए हैं तो चंद्रपुर में उनकी भाभी संयोगिता सिंह जूदेव को पार्टी ने दूसरी बार प्रत्याशी बनाया है। हिन्दुत्व कार्ड के फेर में साजा से ईश्वर साहू को भी उतारने में पार्टी ने कोई अगर-मगर नहीं किया। ईश्वर के बेटे भूवेनश की एक सांप्रदाय के लोगों ने हत्या कर दी थी। कुल मिलाकर भाजपा का पूरा जोर सिर्फ और सिर्फ इस बात पर है कि प्रत्याशी जीतने वाला हो। और उसे अब सत्ताधारी पार्टी के मुकाबले में अगर माना जाने लगा है तो उसकी बड़ी वजह टिकिट वितरण है।

टिकिट पर दारोमदार

पिछले हफ्ते तक कांग्रेस को 51 और भाजपा को 38 सीटें देने वाले राजनीतिक प्रेक्षक अब कुछ बोलने की स्थिति में नहीं है। सभी को कांग्रेस की टिकिट का इंतजार है। जाहिर है, कांग्रेस जितने चेहरे बदलेगी, पार्टी का पलड़ा उतना भी भारी होगा। क्योंकि, विरोधी भी मानते हैं कि सरकार के खिलाफ उतना एंटी इंकाम्बेंसी नहीं, जितना विधायकों और मंत्रियों के खिलाफ। पार्टी के लोगों का ही कहना है कि बड़ी संख्या में चेहरे बदलने होंगे, जीतने वाले प्रत्याशियों पर ही दांव लगाना चाहिए। हालांकि, दिल्ली से टिकिट पर मंत्रणा कर लौटे सीएम भूपेश बघेल ने भी यही कहा, जीतने वाले नेताओं के फार्मूले पर टिकिट दिए जाएंगे।

सियासी सबक

बिलासपुर इलाके के एक बड़े नेता के चेला ने उन्हें ऐसा सबक दिया कि नेताजी अब शायद ही किसी पर भरोसा करें। हुआ यूं कि पार्टी में टिकट को लेकर पैनल बनाते समय नेताजी ने सोचा कि सिंगल नाम देने से बेहतर है कि अपने पुराने शागिर्द का नाम जोड़ दिया जाए। चूंकि शागिर्द काफ़ी पुराना और मददगार है। लिहाजा, उन्हे इसमें उन्हें कोई ख़तरा नज़र नहीं आया। इसी बीच उम्मीदवारों के मामले में रायशुमारी को लेकर पार्टी के एक केन्द्रीय स्तर के नेता का दौरा उनके इलाक़े में हुआ। चेला ने अपने घर में लंच देने की पेशकश की तो सामान्य सी बात समझकर नेताजी ने हामी भर दी। लेकिन जब वे केन्द्रीय नेता को लेकर लंच के लिए चेले के घर पहुंचे तो वहां का आलम देखकर सकते में आ गए। वहां पार्टी पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं का जमावड़ा लगा था...महिला नेत्रियां केंद्रीय नेता पर पुष्पवर्षा कर रही थीं। यानी गुरू को डॉज देकर टिकिट के लिए पूरा शक्ति प्रदर्शन। काफ़िला पहुंचते ही नेताजी ने अपने पार्टी के लोगों से पूछ लिया कि “तुम लोगों को यहां किसने बुलाया....।” लेकिन जवाब मिलने से पहले ही पूरा माज़रा उन्हें समझ में आ गया कि...टिकट के इस मौसम में शागिर्द की भी आत्मा जाग गई है। नेताजी को अब पैनल में नाम जोड़वाने की भूल समझ में आ गई। मगर इस भूल के बदले उन्हे जो कुछ भी मिला, उसे सबक समझकर सीने से लगाने के अलावा उनके पास और कोई चारा भी नहीं। क्य़ोंकि आगे चुनाव है। व्यवस्था आखिर चेले को ही करनी है।

अंत में दो सवाल आपसे

1क्या चुनाव में उल्टा पड़ने की वजह से ईडी के छापों पर ब्रेक लग गया है?

2. भाजपा द्वारा जशपुर में पैलेस विरोधी पुअर प्रत्याशी उतारने के पीछे क्या समीकरण है?

शनिवार, 7 अक्तूबर 2023

Chhattisgarh Tarkash: बीजेपी को 38 सीट

 


तरकश, 8 अक्टूबर 2023

संजय के. दीक्षित

बीजेपी को 38 सीटें!

विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आता जा रहा है, रोमांच और बढ़ता जा रहा है। सभी चौक-चौराहों पर यही सवाल है...क्या होगा, कांग्रेस की जीत का परसेप्शन कायम रहेगा या फिर बीजेपी आखिरी समय में कुछ कर डालेगी। वैसे, विभिन्न सर्वे में बीजेपी की सीटें बढ़ी हैं। दो-तीन महीने पहिले लोग पार्टी को 30 पर समेट दे रहे थे मगर अब सीटों की संख्या बढ़कर 38 पर पहुंच गई है। सीटों की संख्या बढ़ने में बड़ी वजह जीतने वाले प्रत्याशियों को टिकिट देना है। छत्तीसगढ़ के चुनाव में बीजेपी ने जीत के लिए पुरानी मिथकों को तोड़ते या यों कहें कि सीमाओं को नजरअंदाज करते हुए ऐसे प्रत्याशियों को चुन-चुनकर टिकिट दे रही है, जो जीत सकता है। मसलन, लुंड्रा से प्रबोध मिंज ईसाई समुदाय से आते हैं। जशपुर इलाके में बीजेपी और मिशनरी का द्वंद्व सर्वविदित है। इसके बावजूद प्रबोध जीतने वाले कंडिडेट हैं, तो पार्टी ने उन्हें टिकिट देने में कोई किन्तु-परन्तु नहीं किया। बताते हैं, अमित शाह रायपुर के दो दौरों में पूरा कंसेप्ट दे गए कि किस तरह जीतने वाले प्रत्याशियों को छांट कर मैदान में उतारना है। प्रदेश प्रभारी ओम माथुर और सह प्रभारी नीतिन नबीन उसे फॉलो करवा रहे हैं। अब देखना दिलचस्प होगा कि सर्वे में आ रही बीजेपी की 38 सीटें और बढ़कर सरकार बनाने की स्थिति में पहुंचती है या इसी के आसपास सिमट जाएगी।

सीईसी और जोखिम

चुनाव के दौरान राज्यों के चीफ इलेक्शन आफिसर को असीमित पावर मिल जाते हैं मगर इसके साथ ही उनकी भूमिका जोखिमपूर्ण हो जाती है...बिल्कुल तलवार की धार पर चलने जैसा। एक्शन न लिए तो चुनाव आयोग हड़काएगा और कुछ कर दिए तो फिर सत्ताधारी पार्टी की नाराजगी। सबसे बड़ा खतरा होता है सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ कोई एक्शन लिए और सरकार रिपीट हो गई तो समझो कि पांच साल फिर वनवास में ही गुजरेगा। छत्तीसगढ़ में अभी चार विधानसभा, लोकसभा चुनाव हुए हैं, इनमें दो सीईसी से सरकार नाराज हो गई और उन्हें डेपुटेशन पर जाना पड़ गया। 2003 के पहले चुनाव में केके चक्रवर्ती हाई प्रोफाइल आईएएस थे। एसीएस रैंक के। वे राज्य सरकार के प्रेशर में नहीं आए। चुनाव के जस्ट बाद वे सेंट्रल डेपुटेशन पर चले गए। इसके बाद 2008 के चुनाव में डॉ0 आलोक शुक्ला सीईसी और गौरव ि़द्ववेदी एडिशनल सीईओ रहे। उस समय डीजीपी विश्वरंजन समेत कई अफसरों को हटाने को लेकर सरकार दोनों से नाराज हो गई थी। स्थिति यह हो गई कि दोनों सेंट्रल डेपुटेशन पर चले गए। गौरव द्विवदी को तो एनओसी भी नहीं मिल रही थी। मुश्किल से वे जा पाए। हालांकि, आलोक शुक्ला के डेपुटेशन से लौटने से पहले सरकार की नाराजगी खतम हो गई थी। तभी दिल्ली से रिलीव होने से पहले ही रमन सरकार ने 2017 में उन्हें हेल्थ और फूड विभाग का प्रमुख सचिव बना दिया था। बहरहाल, 2014 के विधानसभा चुनाव के समय सुनील कुजूर सीईसी थे। उनसे ऐसी नाराजगी हुई कि आईएएस एसोसियेशन के अध्यक्ष बैजेंद्र कुमार को उन्हें प्रमुख सचिव बनाने के लिए हल्ला करना पड़ा। तब जाकर कुजुर पीएस प्रमोट हो पाए। फिर भी 2013 से लेकर 2018 तक वे बियाबान में रहे। 2018 के चुनाव में सीईओ सुब्रत साहू थे। चूकि तब सरकार बदल गई इसलिए सत्ताधारी पार्टी नाराज थी या खुश, इसका कोई मतलब नहीं रहा। हां, इतना जरूर रहा कि उन्होंने विपक्ष को नाराज भी नहीं किया। इसका फायदा उन्हें यह मिला कि पिछले चार साल से वे सत्ता के सबसे पावरफुल गलियारा सीएम सचिवालय को वे संभाल रहे हैं।

दलित और आदिवासी कार्ड

राज्य सरकार ने चुनाव के ऐन पहले नकली आदिवासी को लेकर अजीत जोगी से लंबी लड़ाई लड़ने वाले संतकुमार नेताम को पीएससी का मेम्बर बना दिया। तो उधर नौ महीने के ब्रेक के बाद पूर्व डीजी गिरधारी नायक को फिर से मानवाधिकार आयोग का प्रमुख बनने का रास्ता साफ कर दिया। जाहिर है, नेताम आदिवासी वर्ग से आते हैं तो नायक अनुसूचित जाति से। याने इस पोस्टिंग में दोनों वगों को संतुष्ट किया गया है।

दूसरे अफसर, दूसरी पोस्टिंग

दूसरी बार पोस्ट रिटायरमेंट पोस्टिंग का सौभाग्य हासिल करने वाले गिरधारी नायक सूबे के दूसरे अफसर होंगे। उनसे पहिले एक्स चीफ सिकरेट्री विवेक ढांड को यह मौका मिल चुका है। सीएस से वीआरएस लेने के बाद उन्हें पिछली सरकार ने रेरा का चेयरमैन बनाया था और इस साल वहां से कार्यकाल खतम होने पर उन्हें नवाचार आयोग का प्रमुख बनाया गया है। इसी तरह डीजी से रिटायर होने पर भूपेश सरकार ने नायक को मानवाधिकार आयोग का सदस्य सह प्रभारी चेयरमैन बनाया और अब फिर से इसी पद पर। इन दोनों के अलावा किसी और अफसर को दूसरी बार पोस्ट रिटायरमेंट पोस्टिंग का दृष्टांत याद नहीं आता।

जय बजरंग बली

आचार संहिता में जैसे-जैसे देर हो रही है अधिकारियों की स्थिति विकट होती जा रही...सभी बजरंग बली की दुहाई दे रहे...हे संकटमोचक...जल्दी चुनाव का ऐलान करवा दो। दरअसल, आखिरी समय में अफसर अपना कलम फंसाना नहीं चाहते और मंत्री चाहते हैं, सारा काला-पीला जो हुआ है, उसे वे कागजों में दुरूस्त कर दें। कई मंत्री टेंडर, ठेका की फाइलें इधर-से-उधर करा रहे हैं तो कुछ की कोशिश है आचार संहिता के पहले लंबित और पेचिदा मामलों का निबटारा कर दें। अफसरों के सामने दिक्कत है कि ना किए तो मंत्री नाराज और कर दिए तो फंसे। जिन अफसरों का पेट गले तक भर गया है, वे भी अब अपना कलम नहीं फंसाना चाह रहे।

अंत में दो सवाल आपसे

1. छत्तीसगढ़ में दोनों बड़ी पार्टियों की टिकिट फंस क्यों गई है?

2. आचार संहिता से पूर्व कुछ कलेक्टरों और पुलिस अधीक्षकों को घबराहट क्यों हो रही है?

रविवार, 1 अक्तूबर 2023

Chhattisgarh Tarkash: सबसे छोटी जीत

Chhattisgarh तरकश, 1 अक्टूबर 2023

संजय के. दीक्षित

सबसे छोटी जीत

आजादी के बाद छत्तीसगढ़ की कोटा और खरसिया ऐसी विधानसभा सीटें हैं, जहां कांग्रेस पार्टी अपराजेय रही है। इन सीटों पर कभी भी किसी और पार्टी को जीत का मौका नहीं मिला। फिलहाल बात कोटा की। कोटा से मथुरा प्रसाद दुबे लगातार चार बार विधायक चुने गए। सबसे कम मतों से जीत दर्ज करने का रिकार्ड भी उन्हीं के नाम है। 1977 के विधानसभा चुनाव में कोटा में मात्र 74 वोट से उन्होंने जीत दर्ज की थी। हालांकि, विधायक वे चार बार ही रहे मगर सियासत में ख्याति उन्होंने खूब कमाई। मध्यप्रदेश विधानसभा के प्रोटेम स्पीकर रहे। विधायिकी ज्ञान के कारण उन्हें विधान पुरूष की उपाधि दी गई थी। मथुरा दुबे के सियासी विरासत को उनके भांजे राजेंद्र प्रसाद शुक्ल ने आगे बढ़ाया। उनके बाद 1985 के चुनाव में कोटा सीट से राजेंद्र प्रसाद को टिकिट दी गई और लगातार पांच बार उन्होंने जीत दर्ज की...मृत्यु पर्यंत उन्होंने इस सीट की नुमाइंदगी की।

सिंहदेव की तारीफ के मायने

ये बात पुरानी हो गई थी कि पीएम नरेंद्र मोदी के रायगढ़ के सरकारी कार्यक्रम में मंत्री टीएस सिंहदेव ने उनकी तारीफ की...सिंहदेव को इसके लिए पार्टी के हैदराबाद सम्मेलन में खेद प्रगट करना पड़ा। मगर पीएम मोदी ने आज बिलासपुर में सिंहदेव की तारीफ और कांग्रेस पार्टी पर तंज कस मामले को फिर से ताजा कर दिया। मोदी के इस कटाक्ष के निहितार्थ समझे जा सकते हैं। दरअसल, ढाई-ढाई साल के इश्यू को लेकर सिंहदेव पार्टी से खफा थे। चुनाव से ऐन पहिले डिप्टी सीएम की कुर्सी देकर कांग्रेस द्वारा उन्हें साधने की कोशिश की गई थी। मगर मोदी और सिंहदेव की एक-दूसरे की तारीफ ने उनकी स्थिति विचित्र कर दी है। जाहिर है, कांग्रेस पार्टी ने सिंहदेव को डिप्टी सीएम बनाकर कार्यकर्ताओं को एकजुटता का संदेश दिया था। मगर इस तारीफ एपीसोड ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। पहला सवाल सिंहदेव के सियासी भविष्य को लेकर है। राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है, मोदी ने सिंहदेव की तारीफ कर उन्हें साधने की कोशिश की है तो कांग्रेस की एकजुटता में सेंध भी लगा दिया। अब देखना होगा, मोदी के तरकश के इस तीर से कांग्रेस पार्टी कैसे निबटती है?

कांग्रेस की टिकिट

टिकिट वितरण में बीजेपी जरूर आगे निकल रही है मगर सत्ताधारी पार्टी होने के नाते कांग्रेस के लिए टिकिट फायनल करना आसान नहीं है। खासकर ऐसे में और मामला और पेचीदा हो जाता है, जब 90 सीटों के लिए 2200 से अधिक दावेदार हों। पता चला है, सिंगल या कम दावेदारी वाली दो दर्जन सीटों पर प्रत्याशियों के नामों का ऐलान जल्द ही कर दिया जाएगा मगर करीब 50 से 60 सीटें नामंकन के आखिरी दिनों में क्लियर होने के संकेत मिल रहे हैं। कांग्रेस के साथ दिक्कत यह है कि पार्टी में नेताओं की संख्या काफी है। याद कीजिए, 2018 में कांग्रेस जब विपक्ष में थी, तब भी टिकिट का क्रेज कम नहीं था। आलम यह रहा कि नामंकन शुरू हो गया था और दिल्ली में मशक्कत जारी रही। अब तो पार्टी सरकार में है। दरअसल, कांग्रेस पार्टी इस बार बड़ी संख्या में चेहरे बदलने जा रही है। पार्टी के सर्वेक्षणों में यह बात आई है कि विधायकों के एंटी इंकाम्बेंसी ज्यादा है...71 में से करीब दो दर्जन से अधिक विधायकों की टिकिट काटनी पड़ेगी। ये ऐसे विधायक हैं, जो कांग्रेस की लहर में वैतरणी पार हो गए और उसके बाद अपनी छबि भी नहीं बना पाए। टिकिट कटने पर असंतुष्टों को डैमेज करने का मौका नहीं मिल पाए, इसलिए दूसरी और बड़ी लिस्ट नामंकन के दौरान ही निकल पाएगी।

आखिरी चुनाव

81 की उम्र में रामपुकार सिंह पत्थलगांव से टिकिट की दावेदारी कर रहे हैं और उम्मीद भी है कि कांग्रेस पार्टी इस वरिष्ठ नेता का सम्मान करते हुए उन्हें टिकिट दे दें। उम्र के मद्देनजर ये उनका आखिरी चुनाव होगा। जाहिर तौर पर इसके बाद वे चुनाव लड़ने की स्थिति में नहीं होंगे। उम्र और स्वास्थ्य के हिसाब से देखें तो कृषि मंत्री रविंद्र चौबे और रामपुर के विधायक और पूर्व मंत्री ननकीराम कंवर का भी ये आखिरी चुनाव है। कंवर को इसी नजरिये से टिकिट देने पर विचार किया जा रहा है कि मेरा आखिरी चुनाव...के दांव पर उनकी सीट निकल जाए।

नॉट आउट एसपी

पिछले पांच साल में लगातार हुए ट्रांसफर के बीच छत्तीसगढ़ में दो ऐसे एसपी हैं, जो छह साल से ज्यादा समय से नॉट आउट क्रीज पर टिके हुए हैं, और उनकी वर्किंग से समझा जाता है, आगे भी बैटिंग करते रहेंगे। इनमें पहला नाम है बिलासपुर एसपी संतोष सिंह और दूसरा कबीरधाम के एसपी डॉ. अभिषेक पल्लव। दोनों पिछली सरकार में एसपी अपाइंट हुए थे और आज भी जिला संभाल रहे हैं। संतोष का ये आठवां जिला है और अभिषेक का चौथा। संतोष कोंडागांव, नारायणपुर, महासमुंद, कोरिया, राजनांदगांव, रायगढ़, कोरबा के बाद बिलासपुर में कप्तानी कर रहे हैं। संतोष इतना बैलेंस काम कर रहे हैं कि पिछली सरकार में भी उनका ठीक ठाक था और इस सरकार में भी। बिलासपुर के बाद बहुत संभावना है कि वे रायपुर जिले का एसपी बन बद्री मीणा का नौ जिले का रिकार्ड ब्रेक करें। उधर, अभिषेक दंतेवाड़ा, जांजगीर, दुर्ग जिले के बाद अब कबीरधाम के एसपी हैं। दंतेवाड़ा में करीब चार साल एसपी रहने का उन्होंने रिकार्ड बनाया। सोशल मीडिया सक्रियता की वजह से वे अपने ही आईपीएस बिरादरी के निशाने पर आ गए वरना कामकाज और साफ-सुथरी छबि के मामले मे वे चुनिंदा पुलिस अफसरों में उनका नाम शुमार किया जाता है। फिर भी अच्छी बात यह है कि एसपी के ट्रेक पर बने हुए हैं। सबसे जरूरी भी है...ट्रेक पर बने रहना। संतोष सिंह को इसी सरकार ने जब रायगढ़ से हटाकर कोरिया भेजा था, तब कहा गया था संतोष की पारी अब खतम है। मगर उसके बाद वे राजनांदगांव, कोरबा के बाद बिलासपुर के एसपी हैं। इन दोनों के अलावा 2018 के चुनाव वाले तीन एसपी और हैं, जो इस समय भी जिला संभाल रहे हैं। मगर ये तीनों बीच में कुछ समय के लिए ट्रेक से बाहर रहे। इनमें दीपक झा, जीतेंद्र मीणा, अभिषेक मीणा और लाल उम्मेद सिंह शामिल हैं। दीपक इस समय बलौदा बाजार, जीतेंद्र बस्तर, अभिषेक राजनांदगांव और लाल उम्मेद बलरामपुर के एसपी हैं।

स्पीकर की चुनौती

छत्तीसगढ़ में मिथक था...नेता प्रतिपक्ष और विधानसभा अध्यक्ष चुनाव नहीं जीतते। प्रथम नेता प्रतिपक्ष नंदकुमार साय से लेकर महेद्र कर्मा और रविंद्र चौबे तक चुनाव हार गए। इनमें से सबसे अधिक धक्का चौबे को लगा। साजा सीट पर तीन दशक से उनके परिवार का कब्जा रहा। मगर 2013 के चुनाव में उन्हें भाजपा के अल्पज्ञात व्यापारी नेता से पराजय का सामना करना पड़ा। चौबे की हार के बाद टीएस सिंहदेव नेता प्रतिपक्ष बनें। उन्हांंने 2018 के चुनाव में जीत दर्ज कर नेता प्रतिपक्ष के चुनाव न जीतने के मिथक को तोड़ दिया। रही बात स्पीकर की, तो यह मिथक अभी कायम है। राज्य बनने के बाद राजेंद्र शुक्ल स्पीकर बने और 2003 का चुनाव जीते। मगर उनके बाद कोई भी स्पीकर चुनाव नहीं जीत पाया। प्रेमप्रकाश पाण्डेय से लेकर धरमलाल कौशिक और गौरीशंकर अग्रवाल अपनी सीट नहीं बचा पाए। ऐसे में, स्पीकर डॉ. चरणदास महंत के सामने इस मिथक को तोड़ने की बड़ी चुनौती होगी। खासकर ऐसे में, जब सक्ती में प्रायोजित ही सही...राजपरिवार द्वारा उनका विरोध किया जा रहा।

कलेक्टर, एसपी के ट्रांसफर?

आचार संहिता लागू होने से पहिले कलेक्टर, एसपी की एक लिस्ट निकल सकती है। इनमें ऐसे अफसरों का नाम हो सकता है, जो चुनाव आयोग के राडार पर हैं। वैसे, चार अक्टूबर तक वोटर लिस्ट का काम चलेगा, उसके बाद ही कलेक्टरों का ट्रांसफर हो सकता है। किन्तु एसपी का सरकार जब चाहे तब कर सकती है। एसपी की इस हफ्ते चर्चा भी उड़ी थी, मगर लिस्ट निकल नहीं पाई।

अंत में दो सवाल आपसे

1. क्या राज्य सरकार पीएससी केस में कोई बड़ा एक्शन लेने की तैयारी कर रही है?

2. आसन्न विधानसभा चुनाव में बसपा दो-एक सीट निकालेगी या वोट प्रभावित करेगी?