शनिवार, 23 दिसंबर 2023

Chhattisgarh Tarkash: मंत्रिमंडल में भगवान

 तरकश, 24 दिसंबर 2023

संजय के. दीक्षित

मंत्रिमंडल में भगवान

इसे संयोग कहें या सरकार का अच्छा योग...छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री से लेकर लगभग सभी मंत्रियों के नाम भगवान से जुड़े हुए हैं। राज्य के मुखिया खुद विष्णुदेव। विष्णु को जगत का पालनहार माना जाता है। विष्णु के बाद बृजमोहन। विष्णु के ही रुप हैं मोहन। फिर लक्ष्मी...। लक्ष्मी की कृपा के बिना कुछ संभव नहीं। विष्णु, मोहन और लक्ष्मी के बाद श्यामबिहारी, लखन और केदार भी। श्याम बिहारी भगवान कृष्ण, वहीं लखन याने भगवान राम के सबसे प्रिय छोटे भाई। केदार माने देवों के देव महादेव। टंक में भी राम...रामविचार में राम। ओपी में ओम। अरुण का मतलब प्रातःकालीन सूर्य और बचे विजय...तो जिस मंत्रिमंडल में इतने सारे भगवान हों तो समझा जाना चाहिए कि उसकी विजय होगी ही। अलबत्ता, इन मंत्रियों के समक्ष दोहरी चुनौती होगी...मोदी की गारंटी पर खरा उतरने और नाम के अनुरूप आचरण की भी।

किस्मत की बात

कांग्रेस सरकार के लिए घोषणा पत्र बनाने वाले टीएस सिंहदेव भले ही मुख्यमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुंच सके मगर मंत्री के बाद डिप्टी सीएम बन गए। मगर बीजेपी का घोषणा पत्र बनाने वाले तीनों नेताओं का ग्रह दशाओं ने साथ नहीं दिया। घोषणा पत्र कमेटी के संयोजक विजय बघेल और सह संयोजक शिवरतन शर्मा चुनाव नहीं जीत पाए। दूसरे सह संयोजक अमर अग्रवाल पहले की तुलना में दुगुने से ज्यादा मार्जिन से चुनाव जीतने के बाद भी मंत्री नहीं बन सके। अमर ने यहां तक कैलकुलेशन बता दिया था कि लोकलुभावन घोषणाओं से कितने हजार करोड़ का रेवेन्यू जुटाना होगा। खैर किस्मत अजय चंद्राकर की भी अच्छी नहीं कही जा सकती। विधानसभा में पांच साल तक सरकार को अकेला घेरने के बाद भी मंत्री की दौड़ में पिछड़ गए।

एक अनार...

मंत्रिमंडल में एक सीट सुरक्षित रखी गई है। लोकसभा चुनाव में जिसका पारफारमेंस अच्छा रहेगा, उसे ईनाम के तौर पर मंत्री पद मिलेगा। हालांकि, अंदरखाने की खबर ये भी है कि दो-एक मंत्रियों को भी लोकसभा चुनाव में उतारा जा सकता है। सो, हो सकता है कि इलेक्शन के बाद कुछ और मंत्री पद खाली हो जाए। उसके बाद फिर कंप्लीट विष्णुदेव मंत्रिमंडल बनेगा। खैर, एक पद खाली है उसके लिए कतार लंबी है।

देखन में सीधन लगै

तीन दिन के सत्र में एक दिन विधायकों के शपथ में निकल गया और दूसरे दिन राज्यपाल के अभिभाषण में। तीसरे दिन अनुपूरक बजट पर चर्चा हुई। नेता प्रतिपक्ष ने इस अवसर पर आंकड़ों से भरा लंबा-चौड़ा भाषण न देकर नपे-तुले शब्दों में प्वाइंटेड और चुटकी लेते हुए सदन के माहौल का हल्का रखा। उन्होंने साफगोई से कह दिया...इस सरकार को अभी जुम्मा-जुम्मा सात दिन हुए हैं, इनके खिलाफ में क्या बोलूं। बड़ी शालीनता से उन्होंने सरकार पर कटाक्ष की तो चुटकी भी लेने से नहीं चूके। दरअसल, महंत जी 40 साल से संसदीय राजनीति में हैं। अर्जुन सिंह और दिग्विजय सिंह के साथ काम करने का तजुर्बा है। तरकश में सियासी तीर भी। सो, सत्ताधारी दल को सतर्क रहना होगा, क्योंकि, सदन में नेता प्रतिपक्ष का टीजर बिहारी के दोहे को चरितार्थ कर रहा है...देखन में सीधन लगै, घाव करे गंभीर।

नाम का चक्कर

लोग बोलते हैं, नाम में क्या रखा है। मगर नाम के फेर में लोग रिटायर आईएएस उमेश अग्रवाल को सीएम विष्णुदेव साय के सचिवालय में पोस्टिंग करा दिए। दरअसल, तीन ओएसडी के साथ एक निज सहायक की पोस्टिंग सीएम सचिवालय में हुई, उसमें एक नाम उमेश अग्रवाल का भी है। ये वाले उमेश पत्थलगांव के रहने वाले हैं। विष्णुदेव साय जब दिल्ली में इस्पात राज्य मंत्री थे, तब निज सहायक बनाकर उन्हें दिल्ली ले गए थे। दिल्ली में वे मंत्रीजी के सियासी और निजी कार्यों को संभालते थे। दिल्ली में रहे हैं, पढ़े-लिखे हैं, अंग्रेजी भी जानते हैं, सो ठीक च्वाइस हो सकता है। बहरहाल, उमेश अग्रवाल का नाम देखते ही लोग एक्स आईएएस समझ बैठे। बता दें, उमेश 2004 बैच के राप्रसे से आईएएस बनें थे। आखिरी पोस्टिंग उनकी राजस्व बोर्ड चेयरमैन की रही। उमेश अग्रवाल को संविदा पोस्टिंग मिलने का सवाल ही पैदा नहीं होता। बाकी आईएएस अधिकारियों के विपरीत उनकी रीढ़ की हड्डी बची हुई थी। जाहिर है, पोस्ट रिटायरमेंट पोस्टिंग उन्हें ही मिलती है, बैठने बोला जाए तो लेट जाएं।

दिल्ली से आईएएस!

सीएम सचिवालय में पी. दयानंद की बतौर सिकरेट्री फर्स्ट पोस्टिंग हुई है। उनके साथ तीन ओएसडी भी। मगर इससे से काम नहीं चलेगा। सीएम के सचिवालय के पास वर्कलोड काफी रहता है। वैसे भी सीएम सचिवालय में तीन से चार आईएएस होते हैं। रमन सिंह के सचिवालय में एसीएस से लेकर स्पेशल सिकरेट्री तक रहे। बैजेंद्र कुमार, अमन सिंह, सुबोध सिंह, रजत कुमार, मुकेश बंसल, एमके त्यागी। इनके अलावे बतौर एडवाइजर एक्स चीफ सिकरेट्री शिवराज सिंह भी। भूपेश बघेल सचिवालय में भी एसीएस के साथ तीन आईएएस सिकरेट्री रहे। एक रिटायर आईएएस भी। ऐसे में संकेत हैं, विष्णुदेव सचिवालय में आजकल में दो-तीन नियुक्तियां और होंगी। बताते हैं, विष्णुदेव के पिछले दिल्ली दौरे में छत्तीसगढ़ कैडर के एक आईएएस की करीब घंटा भर मुलाकात हुई। हो सकता है कि सीएम सचिवालय में उनकी नियुक्ति हो जाए। उनके अलावे भी दो और आईएएस पोस्ट होंगे और जल्दी होंगे क्योंकि, सीएम के शपथ लिए दसेक दिन से ज्यादा हो गए हैं।

सिकरेट्री बैच

भूपेश बघेल सचिवालय में 2006 बैच के दो आईएएस रहे। अंकित आनंद और डॉ. एस भारतीदासन। इसी बैच के पी दयानंद नए सीएम विष्णुदेव साय के सिकरेट्री बनाए गए हैं। कहने का आशय यह कि पावरफुल सीएम सचिवालय के लिए यह लकी बैच है। इससे पहले 2005 बैच के दो आईएएस रमन सिंह सचिवालय में स्पेशल सिकरेट्री रहे। रजत कुमार और मुकेश बंसल। इसी बैच के राजेश टोप्पो भी सचिवालय के हिस्सा टाईप ही रहे। बहरहाल, 2006 बैच में छह आईएएस हैं। अंकित आनंद, श्रुति सिंह, पी दयानंद, डॉ. एस भारतीदासन, डॉ. सीआर प्रसन्ना, भूवनेश यादव और एलेक्स पाल मेनन। बहरहाल, इस बैच में तीन ही दक्षिण भारतीय अफसर हैं...पी. दयानंद नाम से आप कंफ्यूज मत होइयेगा। वे ठेठ गंगा किनारे वाले हैं। अंदाज भी गंगा किनारे वाला ही।

अफसरों के साथ पूर्वाग्रह?

छत्तीसगढ़ के नए सीएम विष्णुदेव साय ने स्पष्ट किया है कि पूर्वाग्रह से हमारी सरकार कोई फैसला नहीं करेगी। भूपेश बघेल के सचिवालय के अफसरों को हटाने के फैसले में यह बात झलकी। किसी को भी अतिरिक्त प्रभार से नहीं हटाया गया है। हालांकि, ये फाइनल सर्जरी नहीं...टेम्पोरेरी है। मगर फायनल में भी एकाध को ही मुख्य धारा से हटाया जाएगा। बाकी कुछ तो रमन सिंह के सचिवालय में रहे हैं और उपर से काम करने वाले अफसर माने जाते हैं। ऐसे में नहीं लगता कि नई सरकार उन्हें साइडलाइन करेगी।

फंस गई नियुक्ति

कांग्रेस सरकार ने आखिरी दिनों में मुख्य सूचना आयुक्त और आयुक्त का पद भरने का प्रयास किया मगर सरकार बदल जाने की वजह से फाइल राजभवन में रखी रह गई। दरअसल, मुख्यमंत्री की सिफारिश से राजभवन को फाइल भेजी गई थी। राजभवन ने इसमें कुछ क्वेरी निकाली। मगर मंत्रालय से क्वेरी पूरी करने में देरी हो गई। कुछ दिन पहले क्वेरी पूरी कर फाइल राजभवन भेजी गई। तब तक सरकार बदल गई। रिटायर आईएएस एमके राउत और अशोक अग्रवाल के मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त के रिटायर होने से ये दोनों पद 2022 में खाली हुए थे। मगर मंत्रालय को प्रॉसेज करने में लेट हो गया। बरहाल, रिटायर आईएएस टीएस महावर को मुख्य सूचना आयुक्त बनाया जाना था और राजधानी रायपुर के एक मीडियाकर्मी को सूचना आयुक्त। उधर, सहकारी निर्वाचन में एक एक्स चीफ सिकरेट्री को नियुक्त करने के लिए मुख्यमंत्री ने ओके कर दिया था। इस पद के लिए सीएम का अनुमोदन अंतिम होता है। मगर सामान्य प्रशासन विभाग में फाइल दबी रह गई। तब तक चुनाव का ऐलान हो गया। इन दोनों आयोगों में नई सरकार को अपने लोगों को बिठाने का मौका मिल गया।

सबके भईया, मोहन भईया

राजभवन में मंत्रियों के शपथ ग्रहण में रायपुर के बड़े लोग बृजमोहन अग्रवाल को लेकर चुटकी लेते रहे...अपना भईया, मोहन भैया। मोहन भैया को अब सबको ढोना पड़ेगा। दरअसल, मंत्रिमंडल में अधिकांश नए चेहरे हैं, जिनका रायपुर से खास नाता नहीं रहा। रमन सिंह के समय रमन खुद रायपुरिया हो गए थे, उनके अलावा बृजमोहन, राजेश मूणत, गौरीशंकर अग्रवाल जैसे कई पावर सेंटर थे। इनके अलावा कुछ अफसर भी प्रभावशाली थे। सो, कहीं-न-कहीं से काम हो जाता था। इस बार सीएम जशपुर से हैं। दोनों डिप्टी सीएम मुंगेली और कवर्धा से। दयालदास बघेल के बारे में बताने की जरूरत नहीं। रामविचार नेताम पहले मंत्री रहे हैं मगर उनसे वैसी केमेस्ट्री नहीं। नए मंत्रियों में ओपी चौधरी जरूर रायपुर नगर निगम कमिश्नर, डीपीआर और रायपुर कलेक्टर रहे हैं। मगर पहली बार मंत्री बने हैं जाहिर तौर पर उनकी अपनी लक्ष्मण रेखा होगी। ऐसे में, फिर बचते हैं मोहन भैया।

अंत में दो सवाल आपसे

1. कितने ऐसे आईएएस हैं, जो सरकार रिपीट होने की आस में न्यू ईयर में बाहर जाने के लिए अवकाश स्वीकृत करा लिए थे, मगर सरकार पलटते ही अर्जी देकर छुट्टी निरस्त करा लिए?

2. कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी पद से सैलजा के हटने से क्या चरणदास महंत की स्थिति कमजोर होगी?


शनिवार, 16 दिसंबर 2023

Chhattisgarh Tarkash: नई सरकार, 18 लाख मकान और अफसर

 तरकश, 17 दिसंबर 2023

संजय के. दीक्षित

नई सरकार, 18 लाख मकान और अफसर

विष्णुदेव साय कैबिनेट ने पहली ही बैठक में सूबे में गरीबों के लिए 18 लाख नए मकान बनाने के फैसले पर मुहर लगा दी। जाहिर है, बीजेपी के संकल्प पत्र का यह अहम बिंदु तो था ही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी सभी सभाओं में आवास बनाने का ऐलान प्रमुखता से किया था। मगर बड़ा सवाल यह है कि वर्तमान सिस्टम में 18 लाख आवास का मेगा प्रोजेक्ट पूरा हो पाएगा? वो भी जब दो महीने बाद लोकसभा चुनाव है। खैर, दो महीने में कदापि संभव नहीं मगर इस दिशा में क्या प्रॉग्रेस है...ये तो जनता को बताना होगा। अफसरशाही को इस योजना में रुचि नहीं होगी क्योंकि, इसमें ज्यादा कुछ मिलना नहीं। वैसे भी, अधिकांश अफसरों का संतुष्टि लेवल काफी हाई हो गया है। पहले से करीब डबल। ऐसे में, जो काम उनके सेचुरेशन लेवल के नीचे का होगा, उसमें उनकी दिलचस्पी नहीं होगी। ब्यूरोक्रेसी में अब जनरल ट्रेंड बन गया है...योजना लागू करने से पहले पतासाजी कर लेना कि उसमें मिलेगा क्या? तभी फाइल खिसकती है। सो, नए सीएम को इस योजना के लिए किसी दमदार और रिजल्ट देने वाले अधिकारी को चुनकर बिठाना होगा।

सियासत और किस्मत-1

सियासत में काम के साथ ही किस्मत की बड़ी भूमिका होती है...जिसके माथे पर राजयोग लिखा होता है...उसे ही कुर्सी मिलती है। विष्णुदेव साय को सीएम बनना लिखा था तो बन गए वरना, एक दूसरे वाले सायजी को बुढ़ापा खराब करनी थी तो चुनाव के ऐन पहले पाला बदल कर बचा-खुचा अपना सम्मान भी गंवा डाले। खैर, र्शीर्षक...अरुण साव जस्टिस होते...आपको चौंकाएगा। मगर यह सही है कि अरुण साव को सूबे की दूसरी बड़ी कुर्सी तक पहुंचाने में भाग्य का प्रबल योग रहा है। बताते हैं, 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान टिकिट के लिए अरुण साव को बुलाया गया मगर उन्हें आभास नहीं था कि मुझे टिकिट मिल सकती है, वे पुरी में थे। वहां उनका फोन लग नहीं पाया। ऐसे में, पार्टी ने लखनराम साहू को टिकिट दिया और वे जीते भी। 2019 में चूकि पार्टी को चेहरा बदलना था, सो अरुण को मैदान में उतारा गया और वे सांसद बन गए। उससे पहले रमन सरकार की दूसरी पारी में अरुण साव उप महाधिवक्ता रहे थे। 2018 में जस्टिस पार्थ प्रतीम साहू के साथ अरुण का भी नाम था। मगर वक्त ने अरुण साव के लिए कुछ और सोच रखा था। सो, पार्थ प्रीतम जस्टिस बन गए। सोचिए अरुण अगर 2014 में सांसद बन गए होते तो जरूरी नहीं था कि 2019 में उन्हें कंटीन्यू किया जाता। क्योंकि, 2018 में पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया था। और अगर जस्टिस बन गए होते तो सियासत से उनका नाता हमेशा के लिए जुदा हो गया होता।

सियासत और किस्मत-2

छत्तीसगढ़ के सियासत में किस्मत का बड़ा रोल रहा है। वरना, दिसंबर 2018 में सबसे अधिक नाम उछलने और ढाई-ढाई साल के एपीसोड के बाद भी टीएस सिंहदेव को डिप्टी सीएम के पद से संतोष करना पड़ा। वहीं, भूपेश बघेल पूरे पांच साल सीएम रहे और अपने हिसाब से काम किए। डॉ0 रमन सिंह के साथ भी कुछ ऐसा ही रहा। 2003 में वे सीएम जरूर बन गए थे मगर काफी दिनों तक चर्चा रही कि रमन कुछ दिनों के लिए सीएम बनाए गए हैं, सुषमा स्वराज फाइनली रमेश बैस को सीएम बनवा देगी। मगर उसके बाद क्या हुआ सभी को मालूम है। रमन 15 साल मुख्यमंत्री रहे। छत्तीसगढ़ के सबसे बड़े नेता रहे विद्याचरण शुक्ल की मुख्यमंत्री बनने की बड़ी इच्छा रही। मगर ऐन वक्त पर अजीत जोगी उनकी कुर्सी ले उड़े। दिलीप सिंह जूदेव जैसे नेता के साथ भी किस्मत वाला ही मामला रहा। वरना, 2003 का विधानसभा चुनाव उनके नाम पर लड़ा गया था और वे ट्रेप नहीं हुए होते तो अत्यधिक संभावना थी कि वे मुख्यमंत्री बनते। उन्हें ट्रेप भी इसलिए किया गया ताकि, प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने की राह आसान हो सके। जूदेव परिवार के लिए यह चुनाव भी अच्छा नहीं रहा। जूदेव का बेटा और बहू चुनाव हार गए मगर किस्मत देखिए कि उनसे जुड़कर राजनीति में पहचान बनाने वाले यूथ लीडर सुशांत शुक्ला अच्छी लीड से चुनाव जीत गए।

खरवास का मिथक

विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के एक लीडर से टिकिट वितरण में देरी को लेकर सवाल पूछा गया तो जवाब मिला...पितृ पक्ष निकल जाए, फिर देखते हैं। वहीं, बीजेपी जैसी धर्म से जुड़ी पार्टी ने पितृ पक्ष के बावजूद टिकिट बांटा और चुनाव निकाला भी। ऐसे में, जो लोग खरवास में मंत्रियों के शपथ लेने पर संशय व्यक्त कर रहे हैं...उनके जिज्ञासा का समाधान हो जाएगा। दरअसल, बीजेपी के सीनियर नेता भी मानते हैं...सरकार खरवास के पहले बन गई है। मंत्रियों के शपथ में खरवास का कोई इश्यू नहीं है। क्योंकि, महत्वपूर्ण होता है मुख्यमंत्री। मंत्री मुख्यमंत्री में समाहित होते हैं। राजकाज में मुख्यमंत्री का हाथ बंटाने...सुचारु संचालन के लिए मंत्रियों की व्यवस्था की गई है। जाहिर है, खरवास मंत्रियों के शपथ में रोड़ा नहीं बनेगा।

व्हाट एन आइडिया!

ये बीजेपी है...जहां विधानसभा चुनाव के बाद बड़े-बड़ों को किनारे कर दिया गया मगर कहीं से कोई आवाज नहीं आ रही। मंत्रिमडल गठन को लेकर भी कोई सुगबुगाहट नहीं। मुख्मयंत्री के शपथ ग्रहण के दिन छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान...तीनों राज्यों में बड़ी उत्सुकता रही...मंत्री में किसका नंबर लग रहा। मगर जैसे-जैसे वक्त निकलता जा रहा, चर्चाएं भी क्षीण पड़ती जा रही हैं। पुराने नेताओं की मंत्री बनने की स्वाभाविक दावा भी कमजोर पड़ता जा रहा है। बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व भी यही चाह रहा है। बड़े नेता मानसिक तौर पर तैयार हो जाएं...नए लोगों का समय आ गया है।

दो-से-तीन पुराने मंत्री?

छत्तीसगढ़ में सीएम समेत 13 मंत्री बन सकते हैं। इनमें से सीएम और दो डिप्टी सीएम शपथ ले चुके हैं। बचे 10। इनमें से दो सीटें लोकसभा चुनाव के बाद के लिए रिजर्व रखी जाएगी ताकि जो बढ़ियां काम करेगा, उसे पारितोषिक दिया जा सके। याने आठ मंत्री और बनेंगे। इनमें से अगर सबके सब नए हो जाएंगे, जैसा कि बीजेपी के अंदरखाने में चर्चाएं हैं, तो थोड़े दिनों तक सरकार चलाने में दिक्कत तो जाएगी। खासतौर से फरवरी में बजट सत्र होगा। संसदीय कार्य मंत्री को सदन की पूरी व्यवस्था देखनी होती है। संसदीय परंपराओं की उन्हें जानकारी होनी चाहिए। छत्तीसगढ़ में रविंद्र चौबे और अजय चंद्राकर जैसे संसदीय कार्य मंत्री रहे हैं। ठीक है...विपक्ष कमजोर है, बावजूद उसके पास भूपेश बघेल और चरणदास महंत जैसे अनुभवी नेता हैं। सदन में अगर सभी नए रहेंगे तो उन्हें छह महीने से ज्यादा ट्रेक पर आने में लग जाएगा। वो भी तब जब तगड़ी स्टडी करेंगे। लिहाजा, दो-तीन ऐसे पुराने मंत्रियों को मौका मिलने की अटकलें चल रही हैं, जिनका प्रदर्शन बढ़ियां और रिजल्ट देने वाला रहा है। वैसे भी पुराने मंत्री अब सिर्फ पावर चाहते हैं...पैसा कमाना उनका ध्येय नहीं। क्योंकि, 15 साल वाले को ही संभालने में वे परेशान होंगे...नया झमेला कर मोदी और ईडी के राडार पर क्यों आएंगे?

नौकरशाहों की कुंडली

डीओपीटी ने भले ही कई मौकों पर आईएएस, आईपीएस के मूल्यांकन के लिए 360 डिग्री सिस्टम से इंकार किया है। मगर ये तो जाहिर है भारत सरकार में पोस्टिंग पाने वाले अफसरों पर निगरानी करने वाला कोई सिस्टम अवश्य है। बिना क्रॉस चेक किए वहां किसी अफसर को नियुक्ति नहीं मिलती। छत्तीसगढ़ में सरकार बदलने के बाद अफसरों की पोस्टिंग में हो रही देरी के पीछे इसी 360 डिग्री सिस्टम की बात आ रही है। पता चला है, आईएएस, आईपीएस अधिकारियों की पूरी कुंडली खंगाली जा रही है...किसका क्या बैकग्राउंड रहा...पिछली सरकार में उसकी क्या भूमिका रही...पारफारमेंस कैसा है...अभी तक की सर्विस में क्या कोई उल्लेखनीय काम रहा है...उसका लाइफस्टाईल। इसके आधार पर विभिन्न पदों पर नियुक्तियां की जाएंगी। सूत्रों का कहना है कि उपर वालों को सबसे अधिक दिक्कत छत्तीसगढ़ में जा रही है। क्योंकि, आईटी, और ईडी के छापों से छत्तीसगढ़ की ब्यूरोक्रेसी दो साल से चर्चा में है। आखिर, दो आईएएस जेल में हैं ही। बहरहाल, सरकार बदलने पर सबसे पहले सीएम सचिवालय में नियुक्तियां होती हैं। मगर ये भी अभी प्रॉसेज में है। ब्यूरोक्रेसी में सवाल बहुतेरे हैं...कौन बनेगा सबसे ताकतवर सीएम सचिवालय का मुखिया। दिल्ली से आएगा या यहीं से होगा अपाइंट। देखना है, अफसरों की उत्सुकता कब तक शांत होती है।

अमित लौटे छत्तीसगढ़

98 बैच के आईपीएस सीबीआई डेपुटेशन से लंबे समय बाद छत्तीसगढ़ लौटे हैं। पुलिस मुख्यालय में उन्होंने ज्वाईनिंग दे दी है। अब उन्हें पोस्टिंग का इंतजार है। दिल्ली से आए अमित को नई सरकार कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दे सकती है। इनमें एसीबी और खुफिया चीफ भी शामिल हैं। अमित सीबीआई में ज्वाइंट डायरेक्टर पॉलिसी जैसे प्रतिष्ठित पोस्टिंग कर चुके हैं।

अंत में दो सवाल आपसे

1. नए सीएम विष्णुदेव साय का सचिवालय कोई एसीएस संभालेगा या प्रिंसिपिल सिकरेट्री?

2. चरणदास महंत को किस्मत का धनी नेता क्यों कहा जाता है?


शनिवार, 9 दिसंबर 2023

Chhattisgarh Tarkash: नए सीएम की चुनौती!

 तरकश, 10 दिसंबर 2023

संजय के. दीक्षित

नए सीएम की चुनौती!

मुख्यमंत्री के चयन के साथ ही कल छत्तीसगढ़ की दशा और दिशा तय हो जाएगी। सूबे के डेवलपमेंट को लेकर उनकी प्रायरिटी क्या रहेगी, ये भी स्पष्ट हो जाएगा। नए सीएम के सामने सबसे बड़ी चुनौती 20 हजार करोड़ का एक्सट्रा रेवेन्यू जुटाने का होगा। रमन सिंह चूकि 13 साल तक वित्त संभाले हुए हैं। वे अगर नहीं बने तो दीगर मुख्यमंत्री को वित्त के मोर्चे पर कई कड़े फैसले लेने होंगे। घोषणा पत्र में भाजपा ने किसानों, महिलाओं को लेकर वायदे किए हैं, उसके लिए 20 हजार करोड़ जुटाने वित्त मंत्री की जरूरत पड़ेगी। राज्य बनने के बाद अजीत जोगी सरकार में रामचंद्र सिंहदेव ने खजाना संभाला। उसके बाद बीजेपी के सरकार में दो साल अमर अग्रवाल वित्त रहे, उनके इस्तीफे के बाद फिर रमन सिंह ने वित्त संभाला। दो महीने बाद लोकसभा चुनाव है इसलिए कोई भी नया सीएम नए करों से बचना चाहेगा मगर टैक्स अगर ना बढ़ाएं तो राज्य के खजाने का बुरा हाल हो जाएगा। बीजेपी ने 25 दिसंबर तक दो साल का बोनस देने का वादा किया है। 15 दिन बाद ही 900 करोड़ बोनस के लिए सरकार को लोन लेना होगा। क्योंकि, खजाने की स्थिति ऐसी है कि कर्मचारियों को चार परसेंट डीए बढ़ाने का चुनाव आयोग ने परमिशन दे दिया था मगर सरकार आदेश नहीं निकाल पाई। लॉ एंड आर्डर कोई बड़ा मसला नहीं है। एसपी चाह लें तो 12 घंटे में अपराधियों की त्राहि माम हो सकती है। डेवलपमेंट के लिए नए सीएम को चुनिंदा काबिल अफसरों पर भरोसा कर उनके पीठ पर हाथ रखना होगा। अफसर तभी रिस्क लेकर काम करते हैं, जब उन्हें प्रोटेक्शन मिले। दो महीने बाद लोकसभा चुनाव है...नए सीएम के सियासी कौशल की परीक्षा भी होगी।

ओपी नहीं, ओपी सर!

पूर्व ब्यूरोक्रेट्स ओपी चौधरी विधायक निर्वाचित हो गए हैं और अब निश्चित तौर पर कुछ-न-कुछ बनेंगे ही। उनकी जीत से नौकरशाही का एक वर्ग खुश है तो एक वर्ग का चेहरे पर मायूसी है। ओपी 13 साल आईएएस रहने के बाद सियासत में आए हैं, सो अफसरों की कुंडली से वाकिफ हैं। जाहिर है, ऐसे में कुछ अफसर घबराएंगे ही। बहरहाल, बात नॉट ओपी...नाउ ओपी सर की....ब्यूरोक्रेसी में अधिकांश अफसरों का एक निक नेम है। ओपी चौधरी का भी ओपी। मगर अब चीफ सिकरेट्री से लेकर 2004 बैच के अफसरों को दिक्कत जाएगी। ओपी 2005 बैच के आईएएस रहे हैं। छत्तीसगढ़ में 1989 बैच के सीएस से लेकर 2004 बैच तक 33 आईएएस हैं। इनके अलावा 2005 बैच के मुकेश बंसल, रजत कुमार, राजेश टोप्पो, आर संगीता और एस. प्रकाश भी। अब उन्हें ओपी सर बोलने की प्रैक्टिस करनी होगी...धोखे से कहीं मुंह से वही ओपी निकल निकल गया तो...!

डीजी की डीपीसी

पुलिस महकमे में 92 बैच के आईपीएस अधिकारियों का डीजी प्रमोशन से दो साल से ड्यू है। इस बैच के पवनदेव और अरुणदेव गौतम जनवरी 2022 में एलिजिबल हो गए थे। अगले महीने 94 बैच के आईपीएस का डीजी प्रमोशन भी ड्यू हो जाएगा। इस बैच में तीन आईपीएस हैं...जीपी सिंह, हिमांशु गुप्ता और एसआरपी कल्लूरी। जीपी की सेवा समाप्त हो गई है इसलिए बचे हिमांशु और कल्लूरी। नई सरकार अगर जनवरी में डीपीसी कर दी तो छत्तीसगढ़ में डीजीपी अशोक जुनेजा को मिलाकर पांच डीजी हो जाएंगे। हालांकि, सूबे में डीजी के चार ही पद हैं। दो कैडर पोस्ट और दो एक्स कैडर। अशोक जुनेजा अगर कंटीन्यू किए तो फिर सितंबर तक एक को एमएचए से परमिशन लेकर स्पेशल डीजी बनाना होगा। 94 बैच से जस्ट नीचे 95 बैच में प्रदीप गुप्ता भी हैं। प्रदीप गुप्ता लोकल हैं। रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग के आईजी रहने के अलावा कई जिलों के एसपी रह चुके हैं। कुल मिलाकर नई सरकार के पास डीजीपी के लिए च्वाइस की कमी नहीं है। इनमें से किसी को भी डीजीपी बना सकती है। डीजीपी के लिए अब 30 साल कंडिशन वाला रोड़ा भी नहीं रहा। वरना, 29 साल में एएन उपध्याय को डीजीपी बनाने तब के चीफ सिकरेट्री सुनील कुमार को तगड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी। वाकया उस समय का है, जब सुनिल के रिटायरमेंट में हफ्ता भर बच गया था। उनके बैचमेट एमएचए सिकरेट्री थे। सुनिल ने बैचमेट के नाम लेटर लिख एडीजी अशोक जुनेजा को दूत बनाकर दिल्ली भेजा और हाथोहाथ परमिशन मंगवाए, तब जाकर उपध्याय डीजी पुलिस बने थे। बहरहाल, 25 साल वाले केटेगरी से डीजीपी का पेनल बड़ा हो जाए। अब तो 97 बैच तक के अधिकारियों का नाम डीजीपी के पेनल में आ जाएगा।

अमन की भूमिका

ये बताने की आवश्यकता नहीं कि डॉ. रमन सिंह के 10 बरस के टेन्योर में पूर्व आईआरएस अफसर अमन सिंह की भूमिका कैसी रही। मगर बहुतों को ये नहीं मालूम होगा कि अबकी चुनाव में पर्दे के पीछे उनका कैसा रोल रहा। याद होगा, 2013 के विधानसभा चुनाव में बस्तर में बीजेपी पिछड़ रही थी तो उन्होंने सेकेंड फेज में गुरू बालदास को हेलिकाप्टर लेकर दौड़ा दिया था। नतीजा रहा आरक्षण कम करने के बाद भी अनुसूचित जाति की 10 में से नौ सीटें बीजेपी की झोली में आ गई थी। सियासी सूत्र बताते हैं, दिल्ली के नेताओं ने अमन के चुनावी तजुर्बो का इस बार भी बखूबी इस्तेमाल किया। अहमदाबाद में अमन सुबह 10 बजे से रात 10 बजे तक अदानी के लिए काम करते तो सुबह आठ से 10 बजे और रात 10 से एक बजे तक छत्तीसगढ़ पर वर्क करते। बीजेपी कोर कमेटी के एक मेम्बर ने बताया, चुनाव के प्रारंभ में हुई हाई प्रोफाइल मीटिंग में अमन की भूमिका तय कर दी थी। पता चला है, चुनाव जीताने वाले बीजेपी के रणनीतिकारों को अमन ने छत्तीसगढ़ का ब्लूप्रिंट बनाकर दे दिया था कि सरकार बनाने के लिए पार्टी को किस तरह का वर्क करना चाहिए। अमन को बीजेपी इस बात का क्रेडिट मानती है कि 15 साल सरकार में रहने के बाद भी कांग्रेस सरकार कागजों में रमन सिंह को घेर नहीं पाई। न किसी अफसर को जेल जाना पड़ा और न किसी नेता को।

सरगुजा चौंकाया

सात नवंबर को पहले फेज की वोटिंग के बाद बस्तर में बीजेपी को सात से आठ सीटों के दावे किए जा रहे थे...रिजल्ट आए नौ। इसलिए बस्तर के नतीजे खास हैरान नहीं किए। मगर सरगुजा में कांग्रेस जीरो हो जाएगी, इसकी कल्पना बीजेपी के ओम माथुर और मनसुख मांडविया ने भी नहीं की होगी। बीजेपी की तरफ झुकाव रखने वाले सियासी पंडित भी मान रहे थे...कितनी भी बुरी स्थिति होगी 14 में से सात-से-आठ सीट बीजेपी को मिलेगी और इसी के आसपास सत्ताधारी पार्टी को। मगर सरगुजा का मेंडेट लोगों को सकते में डाल दिया। आखिर कौन ऐसा सोचा था...डिप्टी सीएम टीएस सिंहदेव तक को हार का मुंह देखना पड़ेगा। निश्चित तौर पर जितना नौ मंत्रियों की हार ने नहीं चौंकाया, उससे अधिक सरगुजा का अप्रत्याशित परिणाम ने चौंका दिया।

कांग्रेस की टिकिट

पीएम नरेंद्र मोदी, केंद्रीय मंत्री अमित शाह और मनसुख मांडविया बीजेपी को सत्ता में लाने में कामयाब रहे वहीं कांग्रेस की हार में कांग्रेस नेताओं ने ईमानदारी के साथ अपना-अपना योगदान दिया। पार्टी के चार बड़े नेता...चारों ने टिकिटों का बंटवारा किया ही, दूसरे के कोटे की सीटों पर भी प्रत्याशियों का नाम जोड़ने-काटने की कोशिश में कोई कमी नहीं की। बात उत्तर रायपुर की...डॉ. राकेश गुप्ता को टिकिट दिया जाने लगभग फायनल हो गया था। इसी रणनीति के तहत कुलदीप जूनेजा को हाउसिंग बोर्ड का चेयरमैन का कार्यकाल बढ़ाया गया कि विधायक के बदले उनके पास चेयरमैनशिप रहेगा। राकेश गुप्ता ने टिकिट क्लियर समझ युद्ध स्तर पर प्रचार शुरू कर दिया था...सोशल मीडिया पर आप सबने देखा भी होगा, उनकी सक्रियता। मगर बीजेपी ने जैसे ही पुरंदर मिश्रा को मैदान में उतारा...कांग्रेस के कुछ नेताओं ने फिर से एक सर्वे करा दिल्ली मैसेज करा दिया...पुरंदर के खिलाफ कुलदीप चुनाव निकाल सकते हैं। और, राकेश गुप्ता को खिसकाकर कुलदीप का टिकिट फायनल करा दिया। कांग्रेस में इस तरह का खेला करीब दर्जन भर सीटों पर हुआ। जगदलपुर में जतीन जायसवाल को टिकिट मिली तो वे उनके लोग भी चौंक गए...उन्हें टिकिट की कभी उम्मीद नहीं रही। आलम यह हुआ कि कांग्रेस परस्त हो गई।

बसपा का टूटा तिलिस्म

विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सत्ता गंवा बैठी तो बहुजन समाज पार्टी को ऐसा धक्का लगा कि उसके संस्थापक कांशीराम की आत्मा भी कलप रही होगी। पिछले 40 साल से बसपा का छत्तीसगढ़ में एक से दो सीटें झोली में जाती रही है। खासकर, जांजगीर और बिलासपुर का ग्रामीण इलाके में बीएसपी का अच्छा वोट बैंक था। पिछले चुनाव में भी पामगढ़ और जैजैपुर, बीएसपी को दो सीटें मिली थी। इस बार भी दो सीटें तय मानी जा रही थी मगर बसपा पहली बार जीरो हो गई। इसका फायदा अविभाजित जांजगीर में कांग्रेस को मिला। जांजगीर और सक्ती की सभी छह सीटें कांग्रेस जीतने में इसलिए कामयाब हो गई कि बसपा के वोट बैंक कांग्रेस में शिफ्थ हो गए। यहां तक कि चंद्रपुर में संयोगिता सिंह जूदेव के जीत तय मानी जा रही थी मगर वहां के बसपा प्रत्याशी आखिरी तक एक्टिवेट नहीं हुए। इसका खामियाजा हुआ कि बसपा का वोट रामकुमार यादव को मिल गया। संयोगिता पराजित हो गईं। अब सवाल है, बसपा खतम क्यों हुई...? दरअसल, कांशीराम ने जांजगीर जिले से बसपा की चुनावी पारी की शुरूआत की थी। वे खुद 85 का लोकसभा इलेक्शन जांजगीर सीट से लड़े थे। मगर यूपी में जिस तरह बसपा सवर्णां और पिछड़ो के तरफ मूव हुई और इस कारण उसका अस्तित्व खतम हुआ, वैसा ही कुछ छत्तीसगढ़ में हुआ। बसपा में दलितों की बजाए ओबीसी और सवर्ण नेताओं को वेटेज मिलने लगा था। यही कारण है कि बसपा का परंपरागत वोट खिसक गया। और इस चुनाव में जीरो पर सफर समाप्त हो गया।

आयोग का ऐसा खौफ

भले ही आचार संहिता के दौरान भी अफसर बीजेपी नेताओं से मिलते रहे मगर काउंटिंग के दिन तेलागंना के डीजीपी को आयोग ने सस्पेंड कर दिया। डीजीपी अपनी कुर्सी सुरक्षित करने कांग्रेस प्रेसिडेंट से मिलने उनके बंगले चले गए थे। तेलांगना में हालांकि कांग्रेस की सरकार बनने वाली थी मगर छत्तीसगढ़ में ऐसा नहीं था। इसके बाद भी किसी भी अफसर की हिम्मत नहीं पड़ी पूर्व सीएम डॉ0 रमन सिंह को बधाई दे आएं। 5 दिसंबर शाम को आचार संहिता समाप्ति का ऐलान होने के अगले दिन अफसरों का रेला उमड़ पड़ा मौलश्री विहार तरफ। इस दिन 50 से 60 आईएएस और 40 से 50 आईपीएस अफसरों ने रमन सिंह को बुके भेंट कर फोटो खिंचवाई।

न घर के, न घाट के

इस चुनाव में बीजेपी से कांग्रेस ज्वाईन किए नंदकुमार साय की स्थिति न घर की रही और न घाट की। शायद पार्टी नहीं छोड़ी होती तो कोई भूमिका मिल जाती। मगर इस उम्र में साय जी गुलाटी मारकर फंस गए। साय से कांग्रेस को भी कोई लाभ नहीं हुआ। आदिवासी क्षेत्रों में चकरी उल्टी घूम गई। वैसे भी सायजी ने सियासत में कभी वफादारी नहीं निभाई। छत्तीसगढ़ बीजेपी के पितृ पुरुष लखीराम अग्रवाल को उन्होंने कैसा झटका दिया, उनके करीबी बता देंगे। लखीराम ने ही नवंबर 2000 में नंदकुमार को नेता प्रतिपक्ष बनाया था। इसको लेकर एकात्म परिसर में आगजनी और तोड़फोड़ हो गई थी। वही, सायजी नेता प्रतिपक्ष रहते लखीराम का साथ नहीं दिए, जब अजीत जोगी उनके व्यवसाय पर चोट करने का प्रयास किया। लिहाजा, अब उनके लिए न बीजेपी में लौटने का कोई चांस रहेगा और न ही कांग्रेस में कोई खास स्पेस मिलेगा।

अंत में दो सवाल आपसे

1. इस बात से आप कितना सहमत हैं कि डॉ0 रमन सिंह को छत्तीसगढ़ का सबसे बड़े नेता बनाए रखने में भूपेश बघेल की बड़ी भूमिका रही?

2. जिन जिलों में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली, क्या उन जिलों के कलेक्टरों को नई सरकार को ईनाम देना चाहिए?



शनिवार, 2 दिसंबर 2023

Chhattisgarh Tarkash: आपकी भी जय-जय, आपकी भी...

 तरकश, 3 दिसंबर 2023

संजय के. दीक्षित

आपकी भी जय-जय, आपकी भी...

सर्वे एजेंसियों ने अबकी गजब का कमाल किया है। सिर्फ एक अल्पज्ञात एजेंसी ने एक फिक्स संख्या कोट किया। बाकी में 10-10 सीटों का मार्जिन। मसलन कांग्रेस 45 से 55, तो बीजेपी 35 से 45। किसी ने बीजेपी को दिया 33 से 46 तो किसी ने कांग्रेस को 47 से 57। 90 विधानसभा सीटों के सर्वे में अगर 10-10 सीटों का अंतर आ रहा तो समझ सकते हैं कि सर्वे किस अंदाज और फर्मेट में हुआ होगा। सर्वे देखकर लगता है, आपकी भी जय-जय, आपकी भी जय-जय। तभी सीएम भूपेश बघेल ने भी कहा कि सर्वे से कहीं अधिक सीटें हमारी आएगी तो पूर्व सीएम रमन सिंह ने भी यही दावे किए। हमने इसी तरकश में लिखा था कि सर्वे एजेंसियां वोटरों के साइलेंट रहने से परेशान हैं। सर्वे में यह कंफ्यूजन साफ झलक रहा। जिस तरह अंडर करंट रहा, उससे प्रतीत होता है कि जिस पार्टी की भी सरकार आएगी, उसे ठीकठाक बहुमत मिलेगा।

5 गुलदस्ते की कहानी

2018 के विधानसभा चुनाव के दौरान परिवर्तन की हवा तो थी मगर छत्तीसगढ़ की ब्यूरोक्रेसी समेत नामचीन लोगों को लगता था कि बीजेपी किसी तरह सरकार बना लेगी। बावजूद इसके, अधिकांश अधिकारियों ने काउंटिंग के रोज पांच बड़ा गुलदस्ता तैयार करवाया था। एक वर्तमान मुख्यमंत्री के लिए और कहीं बाजी पलटी तो फिर कांग्रेस के चार नेताओं के लिए। दरअसल, उस समय तक तय नहीं था कि कांग्रेस में जीत का सेहरा किसके सिर बंधेगा। सो, भूपेश बघेल, टीएस सिंहदेव, चरणदास महंत और ताम्रध्वज साहू...चारों खेमों के अपने दावे थे...संभावनाएं थीं। पीसीसी चीफ के नाते भूपेश की तगड़ी दावेदारी थी तो टीएस सिंहदेव का भी अपना दावा था। ताम्रध्वज पार्टी के इकलौते सांसद थे, सो संभावनाएं उनकी भी कम न थी। महंत की किस्मत पर अत्यधिक भरोसा करने वाले लोगों में परसेप्शन था कि कका और बाबा में कुर्सी को लेकर कोई झंझट हुआ तो सिकहर टूट सकता है। यही वजह रही कि काउंटिंग का रुझान समझ में आते ही इन चारों नेताओं के बंगलों पर भीड़ उमड़ पड़ी। आलम यह था कि राजधानी के वही अफसर, वही चंद चेहरे इन चारों बंगले पर बार-बार टकरा रहे थे। हालांकि, इस बार रुलिंग पार्टी के साथ ये दिक्कत नहीं है। कांग्रेस अगर जीती तो सीएम हाउस। और अगर बीजेपी जीती तो...? एक ब्यूरोक्रेट्स ने चुटकी ली...बीजेपी में कोई फेस है नहीं...रमन सिंह को प्रतिकात्मक मान उन्हें ही गुलदस्ता दे आएंगे।

ताम्रध्वज की चूक

याद कीजिए...2018 का दिसंबर महीना। 13 दिसंबर को नतीजे आने के बाद सीएम की कुर्सी को लेकर दिल्ली में सियासत कैसी गरमाई थी। सबसे लास्ट में छत्तीसगढ़ का फैसला हो पाया। बताते हैं, सांसद होने की वजह से राहुल गांधी ने सीएम के लिए ताम्रध्वज के नाम को ओके कर दिया था। मगर उन्हें कहा गया कि अधिकारिक ऐलान तक इस बारे में कोई बात नहीं करनी है। मगर किसी तरह ताम्रध्वज के परिजनों तक भिलाई बात पहुंच गई और लगे फटाके फूटने। इसी के बाद मामला यूटर्न ले लिया। उसी के बाद भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव खुलकर सामने आए। फिर बंद कमरे में बातें शुरू हुई और फिर भूपेश बघेल के नाम का ऐलान हो गया। सियासी प्रेक्षक मानते हैं कि ताम्रध्वज को सीएम बनाने की बात अगर लीक नहीं हुई होती तो मामला कुछ और होता।

ब्यूरोक्रेसी में बदलाव

किसी भी स्टेट में नई सरकार के गठन के साथ नौकरशाही में बड़ा बदलाव होता है। मगर सरकारें अगर रिपीट होती हैं तो फिर लिस्ट की साइज छोटी हो जाती है। ऐसा इसलिए कि समझा जाता है उन्हीं अफसरों के बदौलत पार्टी को कामयाबी मिली है। ये अवश्य होता है कि चुनावी आचार संहिता के दौरान अगर-मगर करने वाले अधिकारियों को सरकार बदलते ही उनकी हैसियत का अहसास करा दिया जाता है। ऐसे में, भूपेश बघेल सरकार अगर रिपीट हुई तो जाहिर है, लिस्ट बहुत लंबी नहीं होगी। सबसे पहले उन पांच कलेक्टर, एसपी की फिर से उन्हीं जिलों में पोस्टिंग का आदेश निकलेगा। हालांकि, इसमें एक रिस्क यह भी है कि लोकसभा का ऐलान होते ही फरवरी एंड या मार्च फर्स्ट वीक में फिर से इन अधिकारियों को हटा दिया जाएगा। मगर सरकारें आमतौर पर मैसेज देने के लिए फिर से पोस्टिंग देती है। पिछली सरकार में भी एक कलेक्टर को फिर से लोकसभा चुनाव में हटा दिया गया था। बहरहाल, इन पांच अफसरों के आदेश के बाद फिर, राडार पर आने वाले अधिकारियों का नंबर आएगा। और बीजेपी आई तो...तब तो ब्यूरोक्रेसी का पूरा सीन बदल जाएगा। दिसंबर 2018 में जब कांग्रेस सरकार आई थी, उस समय 28 में से 23 जिलों के कलेक्टर बदल गए थे। पहली लिस्ट में ही 58 अफसरों के नाम थे। सो, ब्यूरोक्रेसी भी दम रोककर 3 तारीख का इंतजार कर रही है।

CS, DGP, PCCF चेंज?

किसी भी प्रदेश में सबसे बड़े स्केल वाले तीन पद होते हैं। चीफ सिकरेट्री, डीजी पुलिस और पीसीसीएफ याने हेड ऑफ फॉरेस्ट। सरकार बदलने पर इन तीनों को आमतौर पर सबसे पहले बदला जाता है। खासतौर से सीएस और डीजीपी को। 2018 में जब कांग्रेस की सरकार बनी तो उसके तीसरे दिन डीजीपी एएन उपध्याय हटा दिए गए। उसके महीने भर बाद चीफ सिकरेट्री अजय सिंह की भी कुर्सी चली गई थी। हालांकि, 2003 में जब बीजेपी की सरकार बनी थी, उस समय एसके मिश्रा सीएस थे और अशोक दरबारी डीजीपी। सरकार ने सीएस को कंटिन्यू किया। दरबारी को बदलना चाहा मगर कोई विकल्प नहीं था। ओपी राठौर जब डेपुटेशन से लौटे तो छह महीने बाद दरबारी को हटाया गया। अब बात इस चुनाव की....इस समय सीएस अमिताभ जैन और डीजीपी अशोक जुनेजा एकदम सेफ मोड में हैं। कांग्रेस की सरकार बनी तो उन्हें हटाने का सवाल ही पैदा नहीं होता और बीजेपी आई तब भी दोनों को कोई खतरा नहीं। क्योंकि, दोनों पर कोई लेवल नहीं चस्पा है और न ही फिलहाल कोई अल्टरनेटिव है। सीएस में अमिताभ के बाद रेणू पिल्ले हैं, और उनसे एक बैच नीचे सुब्रत साहू। दोनों का रिटायरमेंट में चार से पांच साल बचे हैं। अमिताभ का रिटायरमेंट भी 2025 में है। डीजीपी में विकल्प का और टोटा है। जुनेजा 60 साल के हिसाब से इस साल जून में रिटायर हो जाते। मगर पूर्णकालिक डीजी का आदेश उनका सितंबर 2022 में निकला। दो साल के नियम के अनुसार वे अगले साल सितंबर में रिटायर होंगे। हालांकि, सरकार चाहे तो उन्हें हटा सकती है मगर सवाल वहीं, क्यों? जुनेजा से नीचे 90 बैच के राजेश मिश्रा हैं, वे अगले महीने जनवरी में रिटायर हो जाएंगे। उनके बाद पवनदेव और अरुणदेव का नंबर है। मगर दोनों अभी डीजी प्रमोट नहीं हुए हैं। लिहाजा, सीएस, डीजीपी बदलने की कोई संभावनाएं नजर नहीं आती। रही बात पीसीसीएफ श्रीनिवास राव की तो वे बीजेपी में भी ठीक-ठाक पोजिशन में रहे और इस सरकार में भी। सात आईएफएस अफसरों को सुपरसीड करके उन्हें हेड ऑफ फारेस्ट बनाया गया है। इससे उनके रसूख का अंदाजा आप लगा सकते हैं।

अंत में दो सवाल आपसे

1. काउंटिंग को लेकर सरकार के कितने मंत्रियों की धड़कनें बढ़ी हुई हैं?

2. क्या ये सही है कि बीजेपी के एक युवा नेता सर्वाधिक वोटों से जीत दर्ज करने वाले हैं?



मंगलवार, 21 नवंबर 2023

Chhattisgarh Tarkash: परसेप्शन बदला तो क्यों?

 तरकश, 19 नवंबर 2023

संजय के. दीक्षित

परसेप्शन पर सवाल

15 सितंबर तक कांग्रेस एकतरफा जीत रही थी...महीने भर में बीजेपी के प्रति परसेप्शन अचानक बदला कैसे, ये सवाल सियासी समीक्षकों भी मथ रहा है। दरअसल, परसेप्शन चेंज होने की शुरुआत के पीछे दो अहम सियासी घटनाएं हैं। पहली अमित शाह द्वारा मनसुख मांडविया को चुनाव प्रभारी बनाकर रायपुर भेजना और दूसरा भूपेश है तो भरोसा है कि जगह कांग्रेस है तो भरोसा का स्लोगन देना। इसके बाद यकबयक चुनाव से जुड़ी सारी समितियों में कांग्रेस के दूसरे बड़े नेताओं की इंट्री। कांग्रेस पार्टी ने इसके जरिए एकता और सामूहिक नेतृत्व का संदेश देना चाहा, मगर इसको लेकर कई तरह की बातें होने लगी। टिकिट वितरण में भी गुटबाजी साफ झलकी। सियासी प्रेक्षक भी मानते हैं कि गुटों को खुश करने के चक्कर में कांग्रेस ने करीब 10 कमजोर चेहरों पर दांव लगा दिया। दूसरी ओर बीजेपी ने साधी हुई लिस्ट जारी की। एक सूत्रीय एजेंडा...जिताऊ कैंडिडेट। ईसाई समुदाय से दो-दो टिकिट, इसका मतलब समझा जा सकता है। फिर कांग्रेस की बराबरी करते हुए किसानों और मजदूरों को लेकर बड़ी घोषणाएं। प्लस में 70 लाख महिलाओं को 12 हजार सालाना भी। इन्हीं वजहों से परसेप्शन तेजी से टर्न हुआ...बीजेपी टक्कर में आ गई। परसेप्शन अब वोटों में कितना तब्दील हुआ या परसेपशन ही रह जाएगा, ये 3 दिसंबर को पता चलेगा।

टक्कर नहीं, स्पष्ट बहुमत

नेशनल मीडिया और सर्वे एजेंसियों के नुमाइंदे छत्तीसगढ़ में इस बात को लेकर परेशान रहते हैं कि यहां के लोग प्रत्याशियों को लेकर खुलकर बात नहीं करते। इससे वोटिंग के ट्रेंड का सही अनुमान लगा पाना कठिन हो जाता है। 2018 के इलेक्शन में आखिर किस एजेंसी ने बताया कि 15 साल सत्ता में रही भाजपा औंधे मुंह लुढ़क जाएगी। बीजेपी सरकार के खिलाफ एंटीइकांबेंसी की बातें जाहिर थी मगर ये कोई नहीं भांप पाया कि बीजेपी की इतनी करारी पराजय होगी। इस बार भी सर्वे एजेंसियों के सामने यही कठिनाई सामने आई। अलबत्ता, इस बार स्थिति ये है कि राजनीतिक पंडित भी कोई फाइंडिंग नहीं दे रहे...सिर्फ ऐसा हुआ तो वैसा होगा और ये हुआ तो फलां भारी पड़ेगा और लास्ट में ये-ये सीटें फंस गईं हैं या टक्कर है...बोलकर कन्नी काट ले रहे। याने कोई भी ये बता पाने के पोजिशन में नहीं है कि फलां पार्टी का पलड़ा भारी है, और वह सरकार बना लेगी। कुछ लोगों का मानना है, इस बार 2013 के विस चुनाव की तरह भी मामला जा सकता है...जब कांउटिंग के दिन दोपहर एक बजे तक कांग्रेस सरकार बना रही थी और आधे घंटे के बाद यकबयक मामला ऐसा पलटा कि भाजपा आगे निकल गई। तब तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ0 रमन सिंह ने भी माना था, मुकाबला कठिन था...हमलोग पोहा खाते टीवी देखते रहे। बहरहाल, बात इस चुनाव की...तो इसकी भी संभावना कम नहीं कि किसी-न-किसी पार्टी के तरफ अंडर करंट है, जो सतह दिखाई नहीं पड़ रहा। अगर छत्तीसगढ़ियावाद, गांव-गंवई और किसान का अंडर करंट रहा तो रुलिंग पार्टी को रिपीट होने से रोका नहीं जा सकता। ठीक है, पहले फेज में कांग्रेस लूज कर रही है मगर ये भी सत्य है कि कांग्रेस का प्रभाव धान उत्पादन करने वाली 50 विस सीटों पर ज्यादा है। इन्हीं सीटों पर छत्तीसगढ़ अस्मिता भी है। दूसरी ओर अगर एंटीइंकांबेंसी, करप्शन, हिन्दुत्व और पीएससी घोटाले पर अगर बीजेपी के पक्ष में करंट चला तो फिर वो आगे निकल जाएगी। कुल मिलाकर टक्कर की बजाए बनेगी तो बहुमत की सरकार ही...किसी एक पार्टी को सीटें 50 से ऊपर जाएगी। क्योंकि, छत्तीसगढ़ में त्रिशंकु सरकार का कभी ट्रेंड नहीं रहा।

हिन्दुत्व का लिटमस टेस्ट

ये ठीक है कि छत्तीसगढ़ में जात-पात और धर्म कभी मुद्दा नहीं रहा। मगर इस चुनाव में हवाएं कुछ बदली-बदली सी दिखाई पड़ रही है। लोग हिन्दुत्व को लेकर सजग दिख रहे हैं। अपनी गाड़ियों में मैं हिन्दू...लिखा जा रहा...तो हिन्दुत्व के झंडे लगाने में भी अब कोई हिचक नहीं। नारायणपुर में हिंसा और बिरनपुर में सांप्रदायिक विवाद में हत्या की वारदात ने भी हिन्दुत्व को पर्याप्त खाद-पानी दिया है। यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ और असम के सीएम हेमंत विस्वा सरमा के जरिये बीजेपी इस फसल को काटने की कोशिश में पीछे नहीं रही। छत्तीसगढ़ हिन्दुत्व का प्रयोगशाला बनेगा या नहीं, तीन सीटें ये तय करेंगी। कवर्धा, साजा और बिलासपुर। कवर्धा में कई बार सांप्रदायिक हिंसा हो चुकी है। इस सीट पर पूरे प्रदेश की निगाहें टिकी हुई है। वहां पिछले कुछ सालों में में कई बार हिंसक घटनाएं हुईं। इस सीट को लेकर परस्पर दावे किए जा रहे हैं। उधर, साजा में बिरनपुर कांड के पीड़ित पिता को बीजेपी ने चुनाव में उतारा है, इसके निहितार्थ समझे जा सकते हैं। और तीसरा, जो सबसे अहम है...बिलासपुर में महीने भर पहले तक वर्तमान विधायक को लेकर परसेप्शन कुछ और था। मगर मुस्लिम समाज के एक व्यक्ति का पैर धोते और अल्लाहु अकबर नारा लगाते वीडियो वायरल होते ही लोगों की विधायक के प्रति धारणा बदल गई। ये तीनों सीटें अभी कांग्रेस के पास है। अगर वहां उलटफेर हो गया तो फिर समझिए कि छत्तीसगढ़ में हिन्दुत्व की इंट्री हो गई। ऐसे में फिर चुनाव का सीन बदल जाएगा।

संवैधानिक कुर्सी खाली

चुनाव की आपाधापी में राज्य निर्वाचन आयुक्त ठाकुर राम सिंह पोस्टिंग का रिकार्ड बनाकर 10 नवंबर को विदा हो गए। रिकार्ड इसलिए क्योंकि छह साल का निर्वाचन आयुक्त का उनका कार्यकाल डेढ़ साल पहले ही खत्म हो चुका था। राज्य सरकार ने छह छह महीने करके तीन बार उन्हें एक्सटेंशन दिया। इस तरह साढ़े सात साल लंबा हो गया उनका टेन्योर। देश में ये अपने आप में रिकार्ड होगा। बहरहाल, राज्य निर्वाचन आयुक्त संवैधानिक पोस्ट है। इसे खाली नहीं रखा जा सकता। राम सिंह जब रिटायर हो रहे थे, उस समय पूर्व आईएएस डीडी सिंह का नाम चर्चा में आया था पर बात आगे बढ़ नहीं सकी। इस पद पर रिटायर आईएएस की पोस्टिंग की जाती है। वो भी सीनियर। राम सिंह पोस्टिंग के मामले में बेहद किस्मती रहे। चार सबसे बड़े जिले की दस साल कलेक्टरी किए। फिर जूनियर सचिव स्तर के अफसर होने के बाद भी निर्वाचन की रिकार्ड पोस्टिंग। खैर, अभी पद खाली है। अब नई सरकार में ही लगता है पोस्टिंग होगी।

भूपेश का कद बढ़ा!

इस बार का विधानसभा चुनाव कई मायनो में अलग रहा। इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी और उसकी नीतियों की बजाए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल मुद्दा बनें और नरेंद्र मोदी जैसे ताकतवर प्रधानमंत्री के निशाने पर रहे। पीएम मोदी ही नहीं, दिल्ली से आने वाले केंद्रीय नेताओं समेत यूपी, असम के फायरब्रांड मुख्यमंत्रियों ने राहुल और प्रियंका की बजाए भूपेश को ही टारगेट करना मुनासिब समझा। ईडी ने भी महादेव ऑनलाइन सट्टा में 508 करोड़ वाला प्रेस नोट चुनाव प्रचार के दौरान ही जारी किया। पूरे चुनाव में सामूहिक नेतृत्व पर जोर देने वाली कांग्रेस को भी लास्ट में महसूस हुआ कि भूपेश पर भरोसा करना होगा। तभी वोटिंग से एक दिन पहले 16 नवंबर को अखबारों में उनकी सिंगल फोटो से कांग्रेस पार्टी का बड़ा इश्तेहार जारी हुआ। दरअसल, कांग्रेस के लगभग सभी नेताओं की सीटें फंसी हुई थी, लिहाजा अधिकांश बड़े नेता अपनी सीट पर सिमट कर रह गए। सीएम भूपेश अकेले पूरे प्रदेश के दौरे करते रहे। बीजेपी के रणनीतिकार भी इस बात को जानते थे कि कांग्रेस को हराने के लिए भूपेश को टारगेट करना होगा।

थैंक्स गॉड

17 नवंबर की शाम चुनाव निबटते ही सूबे के कलेक्टरों और पुलिस अधीक्षकों ने ईश्वर को याद किया...तेरा लाख लाख शुक्र...खतरा खत्म हुआ। जाहिर है, इस चुनाव में कलेक्टर, एसपी सबसे ज्यादा टेंशन में थे। चुनाव का ऐलान होने के तीसरे दिन ही आयोग ने दो कलेक्टर और तीन एसपी बदल दिए थे। चुनाव आयोग ने ऐसा कौवा टांगा कि फिर किसी कलेक्टर, एसपी की इधर उधर करने की हिम्मत नहीं हुई। हालांकि, कई चतुर कलेक्टर, एसपी ने इसे ही हथियार बना अपना तनाव खत्म कर लिया। कोई नेता अगर व्हाट्सएप कॉल पर भी उन्हें कुछ बोलता था तो उनका एक ही जवाब, देख लीजिए मेरा फोन सर्विलेंस पर है...इसके बाद सामने वाले की सिट्टी पिटी गुम।

55 सीटें कांग्रेस को!

भारतीय प्रशासनिक सेवा को देश की सबसे बड़ी और प्रतिष्ठित सर्विस मानी जाती है। उन्हें ट्रेनिंग ऐसी दी जाती है कि वे सारे दायित्वों का निर्वहन कर सकें। ऐसी सेवा के अधिकारियों पर जनता गौर करती है। अब बात विधानसभा चुनाव के नतीजों पर तो अधिकांश अफसरों का निजी सर्वे बता रहा कि सत्ताधारी पार्टी रिपीट हो रही है। कई अफसर 55 सीट तक कांग्रेस को दे रहे हैं। हालांकि, 2018 में ब्यूरोक्रेसी बीजेपी की सरकार भी बना रही थी। मगर तब वह मात्र 15 सीट पर सिमट गई। इससे पहले भी ब्यूरोक्रेसी का आंकलन कभी सही नहीं उतरा। देखना है, इस बार क्या होता है।

अंत में दो सवाल आपसे

1. ईडी के छापे चुनाव में मुद्दा क्यों नहीं बन पाया?

2. क्या छत्तीसगढ़ में एकनाथ शिंदे एपिसोड की संभावना है?


शनिवार, 4 नवंबर 2023

Chhattisgarh Tarkash: नई सरकार...कठिनतम चुनौती

 तरकश, 5 नवंबर 2023

संजय के. दीक्षित

नई सरकार...कठिनतम चुनौती

3 दिसंबर को काउंटिंग के बाद हफ्ते-दस दिन में छत्तीसगढ़ में नई सरकार का गठन हो जाएगा। अब सरकार किसी की भी बने, उसके समक्ष बड़ी चुनौती होगी करीब 20 हजार करोड़ एक्सट्रा राजस्व जुटाने का। अगर ऐसा नहीं हुआ तो विकास कार्यो का बंटाधार हो जाएगा। दरअसल, विधानसभा चुनाव को लेकर सूबे में जिस तरह घोषणाएं की जा रही, उससे खजाने पर बड़ी चोट पड़ने वाली है। बीजेपी ने कल संकल्प पत्र में 3100 में धान खरीदने का वादा किया है। धान का समर्थन मूल्य 2300 है। इस हिसाब से 800 रुपए अलग से देना होगा। ये करीब 10 हजार करोड़ होता है। इसके अलावा महिलाओं को 12 हजार सलाना मिलेगा। छत्तीसगढ़ में करीब 70 लाख विवाहित महिलाएं हैं। इस योजना से खजाने पर करीब साढ़े नौ हजार करोड़ का व्यय आएगा। भाजपा ने अपने समय के दो साल का बोनस भी देगी, इस पर करीब चार हजार करोड़ खर्च होंगे। ये तो बीजेपी का है। जाहिर है, कांग्रेस भी कुछ अलग करने की कोशिश करेगी। 10 हजार करोड़ की कर्ज माफी ऐलान कांग्रेस पहले ही कर चुकी है। घोषणा पत्र में हो सकता है, धान का रेट 3200 हो जाए। अर्थशास्त्र को समझने वाले एक बड़ी सियासी पार्टी के एक बड़े नेता ने इस स्तंभकार से अपनी चिंता साझी की...अगर सलाना 20 हजार करोड़ अतिरिक्त राजस्व नहीं जुटाया गया तो छत्तीसगढ़ के विकास की लाइन, लेंग्थ इस कदर बिगड़ जाएगा कि इसे फिर संभालना मुश्किल हो जाएगा।

पति-पत्नी मंत्री

एक मंत्रिमंडल में पति, पत्नी दोनों मंत्री...! देश में ऐसा आपने कभी सुना नहीं होगा। मगर एक बार ऐसा हुआ है। अविभाजित मध्यप्रदेश के समय 1952 में। चूकि छत्तीसगढ़ से जुड़ा मामला है इसलिए इसकी प्रासंगिकता भी है। तब देश में पहली बार विधानसभा का चुनाव हुआ था। रविशंकर शुक्ल मंत्रिमंडल में वीरेन्द्र बहादुर सिंह और उनकी पत्नी पद्मावती देवी दोनों ही एक साथ मंत्री बने। वीरेन्द्र बहादुर सिंह खैरागढ़ से और उनकी पत्नी रानी पद्मावती देवी बोरी देवकर से जीतकर विधायक बने। इस तरह पद्मावती छत्तीसगढ़ की पहली महिला मंत्री भी रहीं। 1918 में यूपी के प्रतापगढ़ जन्मी पद्मावती प्रतापगढ़ के राजा प्रताप बहादुर सिंह की छोटी बेटी थीं। सोलह साल की उम्र में पद्मावती की शादी खैरागढ़ के राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह के साथ हुई। वे 1952 से 1967 तक विधानसभा और 1967 से 1971 तक लोकसभा सांसद भी रहीं। पद्मावती देवी का इंदिरा गांधी से बहुत करीबी रिश्ता था। 1956 से 1967 तक मध्यप्रदेश शासन के लोक स्वास्थ्य, समाज कल्याण, यांत्रिकी और नगर निकाय आदि विभागों में मन्त्री पद पर रहीं थीं। पद्मावती देवी इतनी लोकप्रिय थीं कि 1957 के विधानसभा चुनाव में वे वीरेन्द्र नगर से निर्विरोध निर्वाचित हुई थीं। खैरागढ़ के विश्व प्रसिद्ध इंदिरा संगीत विश्वविद्यालय की स्थापना पद्मावती देवी ने ही की थीं।

अपवाद मंत्री

छत्तीसगढ़ बनने के बाद 23 साल में चार विधानसभा चुनाव हुए हैं। इनमें से दो विभाग ऐसे हैं, जिनके मंत्री आमतौर पर चुनाव नहीं जीतते। विभाग हैं वन और कृषि। इन दोनों में सिर्फ बृजमोहन अग्रवाल अपवाद रहे हैं। रमन सरकार के दौरान अलग-अलग पारियों में दोनों मंत्रालयों को उन्होंने संभाला और चुनाव भी जीते। उनके अलावा कोई भी मंत्री अपनी सीट नहीं बचा पाया। पहले कृषि की बात करते हैं....डॉ. प्रेमसाय सिंह अजीत जोगी मंत्रिमंडल में इस विभाग के मंत्री थे। 2003 के चुनाव में वे हार गए। इसके बाद 2008 में ननकीराम कंवर और 2013 में चंद्रशेखर साहू भी चुनाव हारे। 2013 में बृजमोहन अग्रवाल कृषि मंत्री बने और 2018 में जीतने में कामयाब रहे। इसी तरह डीपी धृतलहरे जोगी सरकार में वन मंत्री रहे, 2003 के चुनाव में वे अपनी सीट नहीं बचा पाए। उनके बाद गणेशराम भगत, विक्रम उसेंडी और महेश गागड़ा अलग-अलग समय में वन मंत्री रहे और हारे। बृजमोहन अग्रवाल जरूर चुनाव जीतने में कामयाब रहे।

किस्मत ईवीएम में

पहले चरण की 20 विधानसभा सीटों की 7 नवंबर को मतदान होंगे, वहां आज पांच नवंबर की शाम प्रचार खतम हो जाएगा। इन 20 सीटों पर भाजपा से सबसे बड़ा नाम पूर्व मुख्यमंत्री डॉ0 रमन सिंह का है। वे राजनांदगांव सीट से चौथी बार चुनावी मैदान में हैं। वहीं कांग्रेस से प्रदेश अध्यक्ष दीपक बैज का चुनाव भी पहले चरण में है। उनके अलावा मंत्रियों में कवर्धा से मोहम्मद अकबर, कोंडागांव से मोहन मरकाम और कोंटा से कवासी लखमा शामिल हैं। तो पूर्व मंत्रियों में केदार कश्यप नारायणुपर से और लता उसेंडी कोंडागांव से किस्मत आजमा रही हैं। इनमें बीजेपी के सबसे बड़े नेता रमन सिंह हैं...आज प्रचार समाप्त होने के बाद वे अपनी सीट से फ्री हो जाएंगे। जाहिर है, दूसरे चरण वाले चुनाव के 70 प्रत्याशियों में सबसे अधिक डिमांड रमन सिंह की है। वे अब फ्री होकर चुनाव प्रचार कर सकेंगे तो पीसीसी चीफ दीपक बैज भी दीगर सीटों पर अपना फोकस बढ़ाएंगे।

थैंक्स गॉड!

पहले चरण वाले 11 जिलों के कलेक्टर, एसपी दिन गिन रहे कि कैसे तीन दिन निकल जाए। इसके अलावा दो रेंजों के आईजी भी तनाव में हैं। इन 11 जिलों में 20 सीटें आती हैं। इनमें बस्तर में सात जिले हैं और 12 विस सीटें। बस्तर में अभी चुनाव आयोग की कोई कार्रवाई नहीं हुई है। राजनांदगांव एसपी का विकेट चुनाव का ऐलान होते ही गिर गया था। वहां के कलेक्टर पहले से चुनाव आयोग के राडार पर हैं। कवर्धा भी कम संवेदनशील नहीं है। वहां धर्म का भी तड़का है। ऐसे में, इलेक्शन खतम होने की इन अधिकारियों की खुशी समझी जा सकती है।

ओबीसी कार्ड

कांग्रेस के जवाब में बीजेपी भी अब छत्तीसगढ़ में ओबीसी कार्ड चलने लगी है। इसकी शुरूआत कल केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पंडरिया की सभा में की। उन्होंने बताया कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में ओबीसी से कितने मंत्री हैं। उसके अगले दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुर्ग की सभा में कहा, मैं ओबीसी से हूं, इसलिए कांग्रेस के लोग मुझे बर्दाश्त नहीं करते। उन्होंने ये भी कहा कि कांग्रेस साहू समाज को गाली देती है। पिछले चुनाव के दौरान भी पीएम मोदी ने साहू कार्ड चला था, जब उन्होंने कहा था कि मैं तेली हूं और मेरे समाज के बड़ी संख्या में लोग छत्तीसगढ़ में रहते हैं।

हफ्ते भर शेष

दूसरे चरण की 70 सीटों पर वोटिंग भले ही 17 नवंबर को है मगर बीच में दिवाली, भाईदुज और गोवर्द्धन पूजा है। याने अगले हफ्ते गुरूवार तक ही कैम्पेनिंग स्मूथली चलेगा। इसके बाद शुक्रवार याने 10 नवंबर को धनतेरस है और 12 को दिवाली। इसके बाद दो दिन भाईदुज और गोवर्द्धन पूजा। धनतेरस से लोग दिवाली की तैयारियों में जुट जाते हैं और दिवाली के अगले दिन फिर छुट्टी जैसा आलम। धनतेरस से लेकर भाईदुज तक किसी बड़े नेता की सभा हुई तो उसमें भीड़ नहीं जुट पाएगी। उसके बाद सिर्फ दो दिन बचेंगे प्रचार के लिए। 14 और 15 को। 15 नवंबर की शाम पांच बजे के बाद प्रचार समाप्त हो जाएगा। कुल मिलाकर प्रत्याशियों के पास अब हफ्ते भर का समय बचा है।

अंत में दो सवाल आपसे

1. छत्तीसगढ़ अस्मिता की बात करते-करते कांग्रेस ने एक ही जिले में किन दो बाहरी नेताओं को टिकिट दे दिया?

2. छत्तीसगढ़ में बृजमोहन अग्रवाल को छोड़कर कोई भी कृषि और वन मंत्री चुनाव नहीं जीता है...रविंद्र चौबे और मोहम्मद अकबर क्या इस मिथक को अबकी तोड़ पाएंगे?



रविवार, 29 अक्तूबर 2023

10 हजार करोड़ की माफ़ी

 तरकश, 29 अक्टूबर 2023

संजय के. दीक्षित

10 हजार करोड़ की माफ़ी 

सीएम भूपेश बघेल ने सरकार लौटने पर किसानों का फिर कर्जा माफ करने का बड़ा दांव चल दिया है। भूपेश का छोड़ा गया ये मिसाइल इतना खतरनाक है कि भाजपा को उसका काट ढूंढ पाना मुश्किल प्रतीत हो रहा होगा। बीजेपी के सामने अब मजबूरी आ गई है कि उसे मुकाबले में अगर टिके रहना है तो जाहिर तौर पर इससे कोई बड़ा गोला दागना पड़ेगा। बता दें, कर्ज माफी से किसानों की जेब में करीब 10 हजार करोड़ रुपए जाएगा। इसे ऐसे समझते हैं। 2018 में सरकार बनने पर 19.75 लाख किसानों का कर्ज माफ किया गया था। इस पर करीब 10 हजार करोड़ रुपए खर्च हुआ था। इस बार 24.87 लाख किसान रजिस्टर्ड हैं। इनमें से मोटे अनुमान के अनुसार करीब 70 फीसदी किसानों ने 10 हजार से लेकर तीन लाख तक का लोन लिया है। से संख्या करीब 17 लाख के करीब जा रही है। अफसरों का कहना है, इस बार चूकि राजीव न्याय योजना के तहत लगातार उनके खाते में पैसा जाता रहा, इसलिए 2018 की तुलना में इस बार कम किसानों ने लोन लिया है। इसीलिए संख्या में करीब दो लाख की कमी आई है। याने इस बार भी कर्ज माफी का एमाउंट करीब 10 हजार करोड़ ही रहेगा। बहरहाल, कर्ज माफी की घोषणा के बाद लोन नहीं लेने वाले किसान अब पछता रहे हैं...काश! हम भी कर्ज ले लिए होते।

भाजपा का राकेट...

जाहिर है, सीएम भूपेश बघेल की कर्ज माफी की घोषणा ने भाजपा के हथियार कुंद तो किए ही, चुनाव की दिशा और दशा बदल दिया है। भाजपा अभी तक ईडी, आईटी, भ्रष्टाचार से लेकर हिन्दुत्व कार्ड के जरिये हवा का रुख अपने पक्ष मे ंकरने की कोशिश कर रही थी। बिरनपुर कांड के पीड़ित पिता को साजा से टिकिट दिया गया तो हिन्दुत्व को लेकर मुखर विजय शर्मा को कवर्धा से उतारा गया। मगर छत्तीसगढ़ में अब ये स्थापित हो गया है कि धान और किसान ही इस चुनाव के मुद्दे होंगे और आगे भी इसी पर चुनाव लड़े जाएंगे। 2018 का विधानसभा चुनाव भी इसी इश्यू पड़ा लड़ा गया। तब कांग्रेस ने बोनस के साथ 25 सौ रुपए धान खरीदने का वादा किया और यही टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ। कांग्रेस के पक्ष में माहौल बना और इसका नतीजा हुआ कि बीजेपी 15 सीटों पर सिमट गई। हालांकि, बीजेपी की लोकल बॉडी ने धान पर लचीला रुख अपनाने के लिए दिल्ली के नेताओं से आग्रह किया था। मगर बात बनी नहीं। चूकि इस बार भी धान और किसान चुनाव के केंद्र बिन्दु बनते जा रहे हैं तो लगता है भाजपा भी इस बार मुठ्ठी खोलेगी। पार्टी ने अभी एक वीडियो भी जारी किया है। इसमें बताया गया है कि कांग्रेस का बम फुस्स हो गया...उनका राकेट आने वाला है। देखने की उत्सुकता होगी, बीजेपी का राकेट कांग्रेस के मिसाइल पर क्या असर डालता है।

पुलिस से चुनाव

छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद ये पहला मौका होगा, जब पहले चरण का प्रचार खतम होने में हफ्ते भर बच गए हैं मगर चुनाव जैसा माहौल कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा। न प्रत्याशियों में जोश और गरमी नजर आ रही और न ही प्रचार अभियान में तेजी। गनीमत है, चौक-चौराहे पर पुलिस वाले चेकिंग कर चुनाव जैसा अहसास करा दे रहे। वरना, बाहर से आए नेता और मीडियाकर्मी भी छत्तीसगढ़ की चुनावी स्थिति को देखकर आवाक हैं। चुनाव प्रचार का लय न पकड़ने का एक बड़ा कारण घोषणा पत्र माना जा रहा है। पिछले बार की तरह यह चुनाव भी घोषणा पत्र के आधार पर लड़ा जाना है। इसलिए, सबकी निगाहें इस बात पर टिकी है कि दोनों पार्टियों किसानों को क्या दे रही है। किसान भी अब चतुर हो गए हैं...जो ज्यादा देगा उसे वोट देंगे। दरअसल, छत्तीसगढ़ में करीब 37 लाख किसान हैं। इसमें से 30 लाख भी अगर वास्तविक किसान होंगे तब भी एक परिवार में चार वोट के आधार पर एक करोड़ से उपर मतदाता होते हैं। चुनावी उलटफेर करने के लिए ये एक बड़ा फिगर है।

ब्यूरोक्रेट्स पर प्रेशर

छत्तीसगढ़ में जैसे-जैसे चुनाव की तारीखें नजदीक आती जा रही हैं, अफसरों के खिलाफ शिकायतों की फाइल मोटी होती जा रहीं। पता चला है, अभी तक डेढ़ दर्जन से अधिक आईएएस, आईपीएस अधिकारियों के खिलाफ आयोग में कंप्लेन हो चुके हैं। एक्साइज के खिलाफ भी काफी शिकायतें की जा रही। पुलिस में एसपी, आईजी से लेकर बड़े-बड़े अधिकारियों के नाम हैं तो लगभग आधे दर्जन जिले के कलेक्टरों के नाम शिकायतों की लिस्ट में शामिल हैं। हालांकि, ये शिकायतें चुनावी होती हैं। अफसरों पर प्रेशर टेकनीक भी। सियासी नेताओं को भी पता होता है, ब्यूरोक्रेट्स किसी के नहीं होते...जिसका झंडा, उनके अफसर। 2003 के विधानसभा चुनाव में दो जिले ऐसा रहा, जहां के कलेक्टर, एसपी दोनों को आयोग ने बदल दिया था। सरकार बदलने पर उन्हें ट्रेक पर आने में चार-पांच महीना लगा। मगर उसके बाद फिर उन्हें महत्वपूर्ण पोर्टफोलियो मिल गया। एक को तो राजधानी रायपुर कलेक्टर की कमान मिल गई। तो दूसरे ने तीन जिले की कलेक्टरी की।

अफसरों पर तलवार?

आचार संहिता लागू होने के पहिले माना जा रहा था कि छत्तीसगढ़ की ब्यूरोक्रेसी जिस तरह ईडी और आईटी के राडार पर है, उसमें बड़ी संख्या में अफसरों की छुट्टी होगी। इलेक्शन कमीशन के फुल बोर्ड ने कलेक्टर, एसपी की मीटिंग में तीखे तेवर दिखाए ही थे। मगर छत्तीसगढ़ में दो कलेक्टर और तीन एसपी को हटाने के बाद कार्रवाई ठहर गई। जबकि, राजस्थान और तेलांगना में कई अफसर निबट गए। तेलांगना में तीन पुलिस कमिश्नर समेत 13 आईपीएस अफसर हटा दिए गए। छत्तीसगढ़ को लेकर चुनाव आयोग अगर उदार है तो इसकी एक वजह डिप्टी इलेक्शन कमिश्नर आरके गुप्ता भी हैं। गुप्ता केंद्रीय मंत्रालय कैडर के अफसर हैं। काफी मैच्योर भी। उन्हीं के पास छत्तीसगढ़ का प्रभार है। ब्यूरोक्रेसी के लोग भी मानते हैं कि गुप्ता की जगह अगर कोई आईएएस अफसर छत्तीसगढ़ का इंचार्ज होता तो अभी तक कई की लाईन लग गई होती। वैसे मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी रीना बाबा कंगाले भी अफसरों को लेकर कोई पूर्वाग्रह नहीं है। अफसरों के कार्रवाई से बचने ये भी एक बड़ा कारण है। हालांकि, सेकेंड फेज के इलेक्शन में बीसेक दिन का समय है...कोई खुद से हिट विकेट हो जाए तो इसमें आयोग और सीईसी क्या करेंगी।

30 पर नजर

30 अक्टूबर का दिन खासकर कांग्रेस के लिए बड़ा महत्वपूर्ण रहेगा। इस दिन दूसरे और अंतिम चरण के नामंकन का अंतिम दिन है। कांग्रेस की सियासत में इस बात की हलचलें तेज हैं कि इस दिन जिन नेताओं को टिकिट नहीं मिला है वे निर्दलीय या किसी और पार्टी से अपना पर्चा दाखिल कर सकते हैं। हालांकि, कांग्रेस पार्टी द्वारा उन्हें समझाने की कोशिशें भरपूर की जा रही मगर इसके बाद भी दो-से-तीन नेता अपना सूर नहीं बदल रहे। उल्टे प्रचारित किया जा रहा कि कुछ सीटों पर प्रत्याशी बदले जा सकते हैं, जो कि अब होना नहीं है। धमतरी से गुरमुख सिंह होरा के तेवर कायम हैं तो मनेंद्रगढ़ से विनय जायसवाल और रायपुर उत्तर से अजीत कुकरेजा के बारे में भी कई तरह की बातें सुनाई पड़ रही है। हालांकि, कांग्रेस को दोनों स्थितियों में नुकसान था। इनमें से कुछ को पार्टी अगर टिकिट देती तो वे जीतते नहीं। और अगर बगावत कर खड़े हो गए तो भी वे अधिकृत प्रत्याशी को नुकसान पहुंचाएंगे। अंतागढ़, पामगढ़ और सराईपाली में पार्टी के तीन नेता पाला बदलकर अलग मैदान में उतर रहे हैं। ऐसे में, अब कांग्रेस भी नहीं चाहेगी कि कोई और नेता बगावत करें। जाहिर है, 30 अक्टूबर पर सबकी निगाहें रहेंगी।

अंत में दो सवाल आपसे

1. विधानसभा अध्यक्ष कभी चुनाव नहीं जीतते...चरणदास महंत क्या अबकी इस मिथक को तोड़ देंगे?

2. टिकिट न मिलने से नाराज एक भाजपा नेता अधिकृत प्रत्याशी के खिलाफ एक महिला को मैदान में उतारने की तैयारी कर रहे हैं...नाम?


शनिवार, 21 अक्तूबर 2023

Chhattisgarh Tarkash: विधायक जी का एमएमएस

 तरकश, 22 अक्टूबर 2023

संजय के. दीक्षित

विधायक जी का एमएमएस

एक बड़ी पार्टी से विधानसभा चुनाव लड़ रहे युवा विधायकजी के प्रायवेट एमएमएस की चर्चा इन दिनों बड़ी तेज है। हालांकि, विधायकजी मैनेज करने की कोशिशें तो खूब कर रहे हैं मगर दिक्कत यह है कि एमएमएस इतने सारे लोगों के पास पहुंच गया है कि बेचारे कितनों को साध पाएंगे। एमएमएस में विधायकजी मुंबई के मरीन ड्राईव में एक महिला मित्र का हाथ पकड़े समुद्र की लहरों को निहारते...रोमांटिक अंदाज में बात करते नजर आ रहे हैं, तो दूसरा वाला कुछ ज्यादा है, उसे यहां कोट नहीं किया जा सकता। बताते हैं, विरोधी पार्टी विधायकजी के नामंकन की प्रतीक्षा कर रही है। उसके बाद किसी रोज उसे वायरल किया जाएगा। एमएमएस अगर पब्लिक डोमेन में आ गया तो निश्चित तौर पर विधायक की मुश्किलें बढ़ जाएगी। क्योंकि, मौसम चुनावी है। और, ऐसे चटपटे आडियो, एमएमएस को पंख लगते देर नहीं लगते।

दोनों हाथ में लड्डू

कांग्रेस ने पहली सूची में 30 प्रत्याशियों की घोषणा की, उनमें सबसे अधिक गिरीश देवांगन का नाम चौंकाया। उन्हें राजनांदगांव में एक्स सीएम डॉ0 रमन सिंह के खिलाफ मैदान में उतारा गया है। लोग आज भी इसका राज जानने उत्सुक हैं। हालांकि, कांग्रेसी खेमे की तरफ से कहा गया कि रमन सिंह को गिरीश के अलावा कोई टक्कर नहीं दे सकता था। मगर यह भी सही है कि बड़े चेहरों के मुकाबले चुनाव लड़ने के भी अपने फायदे हैं। इसमें दोनों हाथ में लड्डू होते हैं। एक तो आदमी पहचान का मोहताज नहीं रहता। माइनिंग कारपोरेशन के चेयरमैन के तौर पर कुछ परसेंट लोग उन्हें जानते होंगे। अब गिरीश सुखिर्यो में रहेंगे। फिर बड़े व्यक्ति से हारने के बाद सहानुभूति वेटेज भी मिलता है। कई बार राज्यसभा की टिकिट मिल जाती है। अगर गिरीश जीत जाएंगे, तो सोचिए क्या होगा। वे बड़े नेता के तौर पर स्थापित हो जाएंगे, जो 15 साल के सीएम को परास्त कर दिया। देश भर के मीडिया में वे चर्चाओं में रहेंगे।

19-1 का स्कोर

छत्तीसगढ़ के फर्स्ट फेज में जिन 20 सीटों पर इलेक्शन होने जा रहे हैं, उनमें भाजपा के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। उसे सिर्फ पाना ही है। जाहिर है, इन 20 में से सिर्फ एक सीट बीजेपी के पास है। एक्स सीएम डॉ. रमन सिंह की। यद्यपि, 2018 के विस चुनाव में दंतेवाड़ा से भीमा मंडावी भी जीते थे। मगर नक्सली घटना में उनकी मौत के बाद उपचुनाव में बस्तर की इकलौती सीट भी बीजेपी के हाथ से फिसल गई। इन 20 सीटों में बस्तर की 12 और राजनांदगांव, मोहला मानपुर, खैरागढ़ और कवर्धा जिले की आठ सीटें शामिल हैं। सियासी पंडितों की मानें तो इन 20 में से अभी के हालात में आठ सीटें बीजेपी को मिलती दिख रही हैं। आगे चलकर यह फिगर अप हो जाए या डाउन कहा नहीं जा सकता।

धान वाली 50 सीटें

बस्तर और ओल्ड राजनांदगांव जिले में पिछले चुनाव की तुलना में कांग्रेस की सीटें कम हो रही हैं, उधर सरगुजा की स्थिति भी जुदा नहीं है। सरगुजा की 14 में से अभी की स्थिति में बीजेपी को पांच से छह सीटें आती दिखाई पड़ रही हैं। सरगुजा में बीजेपी अभी जीरो पर है। बहरहाल, ऐसे सिचुएशन में कांग्रेस और भाजपा दोनों पार्टियां धान उत्पादन करने वाली 50 मैदानी सीटों पर पूरा जोर लगाने की कोशिश करेंगी। इन्हीं सीटों पर कांग्रेस का धान, किसान और लोगों को टच करने वाला छत्तीसगढ़ी अस्मिता है तो बीजेपी का एंटी इंकांबेंसी के साथ हिन्दुत्व और भ्रष्टाचार का मुद्दा। इन्हीं इलाकों में बसपा का हाथी भी है। बिलासपुर और जांजगीर जिले की कई सीटों पर बीएसपी जीत हार में अहम फैक्टर बनती है। अभी भी पामगढ़ और जैजैपुर बसपा के पास है। 2018 के विधानसभा चुनाव में इन्हीं 50 में बीजेपी की 12, जोगी कांग्रेस की पांच और बसपा की दो सीटें आईं थीं। वहीं कांग्रेस को एकतरफा 31 सीटें मिली थीं। कुल मिलाकर इन्हीं 50 सीटों पर रोचक फाइट देखने का मिलेगी।

गुटीय आधार पर टिकिट

बिलासपुर छत्तीसगढ़ का पहला जिला होगा, जहां सत्ताधारी पार्टी ने योग्यता और जीतने वाले कंडिडेट की बजाए गुटीय आधार पर सीटें बांटी हैं। केंद्रीय चुनाव समिति ने इस बार किसी भी नेता को निराश नहीं किया...बल्कि सभी गुटों को बराबरी से संतुष्ट किया। ये मेरा, ये आपका, ये तुम्हारा...जब टिकिट वितरण का आधार बनेगा तो फिर क्वालिटी की उम्मीद करनी भी नहीं चाहिए। बिलासपुर की छह में से इस समय कांग्रेस के पास दो सीटें हैं और इस चुनाव में भी इसी के आसपास फिगर रहना है। वो भी इसलिए क्योंकि एक टिकिट काम के आधार पर दिया गया है। कांग्रेस के लोगों का भी मानना है कि इस बार बिलासपुर में कांग्रेस पार्टी को सीटें बढ़ाने का मौका था। इसी तरह जांजगीर में भी कांग्रेस को और अच्छा पारफार्मेंस करने का अवसर था। गुटीय सियासत में वहां भी सीटें प्रभावित होती दिख रही हैं। कोरबा में अवश्य कांग्रेस फिर पुरानी स्थिति दोहराने के करीब लग रही है। कोरबा में इस समय तीन कांग्रेस और एक बीजेपी है।

बीजेपी की स्ट्रेटजी

बीजेपी ने जिन 86 सीटों पर टिकिटों का ऐलान किया है उनमें कुछ प्रत्याशियों को देखकर प्रतीत होता है कि जीतने वाला कंडिडेट के साथ ही उसने इस फार्मूले पर टिकिट बांटा है कि हम नहीं तो कांग्रेस भी नहीं। जिन सीटों पर भाजपा को लगा कि उसकी वहां दाल नहीं गल सकती तो उसने ऐसा प्रत्याशी उतार दिया कि गैर कांग्रेस को वहां फायदा मिल जाए। वैसे भी कांग्रेस के लोग बसपा और जोगी कांग्रेस को भाजपा की बी टीम होने का आरोप लगाते ही हैं। जाहिर है, भाजपा ने एक सीट पर ऐसे प्रत्याशी को उतार दिया है, जहां बसपा की सीट सुरक्षित हो गई है।

एडिशनल बोझ

टिकिट के लिए आवेदन करने का फार्मूला लगा कर कांग्रेस नेताओं को रिचार्ज करने में सफल रही मगर उसका खामियाजा अब प्रत्याशियों को उठाना पड़ रहा है। टिकिट डिक्लेयर होने के बाद प्रत्याशियों ने सबसे पहले उनकी लिस्ट निकाली, जिन्होंने टिकिट के लिए अप्लाई किया। चूकि कांग्रेस को भीतरघात का सबसे बड़ा खतरा है इसलिए जो जिस लेवल का है, उस लेवल से उसे संतुष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है। ऐेसे में प्रत्याशियों की जेब पर यह एडिशनल बोझ पड़ जा रहा है।

30 फीसदी नए चेहरे

कांग्रेस पार्टी ने अपनी दो लिस्ट में 83 उम्मीदवारों का ऐलान किया है, इनमें 17 नए चेहरे हैं। याने इन 17 सीटिंग विधायकों की टिकिट कट गई है। पता चला है, आजकल में घोषित होने वाली तीसरी लिस्ट में सभी सात नए प्रत्याशी होंगे। इनमें धमतरी में पहले से भाजपा की रंजना साहू विधायक हैं। बची छह। इन सभी छह सीटों पर पार्टी नए चेहरों को उतारेगी। इस तरह 72 में से 24 विधायकों की टिकिट कांग्रेस ने काट डाली। ये 30 फीसदी होते हैं। इसकी तुलना में भाजपा ने 13 में से सिर्फ एक विधायक को बदला है। डमरुधर पुजारी को। वहीं बसपा ने अपने दोनों विधायकों पर फिर से दांव लगाया है।

अंत में दो सवाल आपसे

1. चुनावी सियासत में बीजेपी के प्लान बी की बड़ी चर्चा है...क्या है ये प्लान बी?

2. फूड मिनिस्टर अमरजीत भगत के सीतापुर में घिर जाने की असली वजह क्या है?