रविवार, 14 अप्रैल 2019

फार्म में डीजीपी

डीजीपी डीएम अवस्थी सरकार की पहली पसंद कतई नहीं थे। फर्स्ट च्वाइस गिरधारी नायक थे। मगर उनका दुर्भाग्य कहिए कि छह महीने रिटायरमेंट वाला पेंच आड़े आ गया। और, सरकार को डीएम को पुलिस प्रमुख बनाना पड़ गया। डीएम को पुलिस महकमा सौंपने के बाद भी सरकार के साथ सब कुछ ठीक नहीं था। तीन साल सीनियर नायक को पीएचक्यू में बिठाने से संदेश यही गए कि सरकार प्रभारी डीजीपी से खुश नहीं है। लेकिन, पूर्णकालिक डीजीपी बनने के बाद कानपुर के ब्राम्हण अफसर ने अपने काम से सरकार को खुश कर दिया है। कभी रिव्यू, कभी मीटिंग, कभी वीडियोकांफें्रसिंग तो कभी पुलिस कर्मियों का हौसला अफजाई करने के लिए उनकी क्लास। कांग्रेस के घोषणा पत्र में चिट फंड निवेशकों को पैसा वापस दिलाने एक कमेटी महाराष्ट्र भेज दी। सरकार के करीबी अफसर कहते हैं, डीजी अद्भूत उर्जा के साथ काम कर रहे हैं। मगर डीएम ने इसी तरह अपनी कुर्सी मजबूत कर ली तो जरा सोचिए! डीजीपी के उन दावेदारों पर क्या गुजरेगी? जाहिर है, डीएम अगर 2023 तक पीच पर जमे रह गए तो बीके सिंह, संजय पिल्ले, आरके विज, मुकेश गुप्ता और अशोक जुनेजा को बिना डीजीपी बने रिटायर हो जाना पड़ेगा।

छत्तीसगढ़ मॉडल

छत्तीसगढ़ का शराब मॉडल मध्यप्रदेश भी एडाप्ट करना चाहता है। वहां अभी ठेका सिस्टम में शराब की बिक्री होती है। लेकिन, छत्तीसगढ़ सरकार की शराब बेचने से हो रही आमदनी से कमलनाथ सरकार की आंखों में चमक आ गई है। हाल ही में वहां की एक टीम इसका स्टडी करने छत्तीसगढ़ आई थी। टीम ने यहां एक्साइज सिकरेट्री डा0 कमलप्रीत से मिलने के साथ ही पूर्व आबकारी मंत्री अमर अग्रवाल से भी मुलाकात की। अमर ने शराब लॉबी से लोहा लेकर ठेका सिस्टम खतम कराया था। बहरहाल, ठेका सिस्टम से सरकार को 2016-17 में 3200 करोड़ मिले थे वहीं, नए सिस्टम से 2017-18 में 4 हजार करोड़। और इस साल यह बढ़कर 4500 करोड़ पहुंच गया है। याने मोटे तौर पर करीब आठ सौ एक हजार करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा था ठेका सिस्टम में। ये पूरा पैसा ठेकेदारों की जेब में जाता था। अलबत्ता, ठेकेदार इसमें नेता, मंत्री, सरकार, अफसर, पुलिस, मीडिया का बखूबी ध्यान रखते थे। अब मध्यप्रदेश गवर्नमेंट की रुचि इसलिए बढ़ी है कि वह छत्तीसगढ़ से है तीन गुना बड़ा। लेकिन, पिछले साल वहां शराब से रेवन्यू आया था नौ हजार करोड़। जबकि, छत्तीसगढ़ का था 4 हजार करोड़। कायदे से वहां बारह हजार करोड़ रेवन्यू आना था। याने तीन हजार करोड़ का खेल हो जा रहा। कर्जमाफी के चलते एमपी गवर्नमेंट की फायनेंसियल स्थिति टाईट चल रही है। ऐसे में, जल्द ही वह खुद शराब बेचने का ऐलान कर दें तो अचरज में मत पड़ियेगा। और, एमपी में अगर सरकार शराब बेचने लगी तो छत्तीसगढ़ में भी शराब बंद हो जाएगा, ऐसा मत सोचिएगा। आखिर शराब से अबकी मिले 4500 करोड़ की भरपाई कहां से होगी।

भाजपा को नुकसान

रमन सरकार के एंटीइकाम्बेंसी का असर कम करने के लिए भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने सभी दसों सांसदों का टिकिट काटते हुए नए चेहरों पर दांव लगाया है। जाहिर है, यह अभूतपूर्व और जोखिम भरा फैसला है। अभूतपूर्व इसलिए कि न इससे पहिले कभी ऐसा हुआ है और न ही इस बार बीजेपी ने दीगर राज्यों में ऐसा प्रयोग किया है। लगता है, तीन महीने पहिले हुए विधानसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ में भाजपा की जिस तरह हार हुई, उसने दिल्ली के नेताओं को हिला दिया। यही वजह है कि केंद्रीय मंत्री विष्णुदेव साय और प्रदेश अध्यक्ष विक्रम उसेंडी भी अपनी टिकिट नहीं बचा पाए। फिर भी भाजपा के विरोधियों का भी मानना है कि सब धान बाईस पसेरी की तर्ज पर सभी सांसदों की टिकिट काटने की बजाए तीन-चार सांसदों को अगर रिपीट किया जाता तो बीजेपी के लिए स्थिति ज्यादा मुफीद होती।

छत्तीसगढ़ का दुर्भाग्य

बीजेपी की तरह कांग्रेस ने भी आधा दर्जन से अधिक नए उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारा है। स्थिति यह है कि दोनों ही प्रमुख पार्टियों के 22 में से तीन ही प्रत्याशी ऐसे हैं, जिन्होंने लोकसभा का चुनाव लड़ा है या फिर सांसद पहुंचने में कामयाब हुए हैं। इनमें कांग्रेस से खेल साय, और भाजपा के गुहाराम अजगले लोकसभा सदस्य रह चुके हैं। धनेंद्र साहू लोकसभा का चुनाव लड़े हैं, लेकिन जीत नहीं पाए। बाकी, 19 फ्रेश चेहरे हैं। 15 तो विधायक का चुनाव भी नहीं लड़े हैं। जाहिर है, इस बार ऐसे अल्पज्ञात चेहरे पार्लियामेंट में पहुंचेंगे, जिनमें से कई को तो उनके ब्लॉक और जिले के लोग नहीं जानते। हालांकि, सियासत में नए चेहरों को मौका मिलना चाहिए। लेकिन, एक अनुपात में हो, तो ज्यादा बेहतर होगा। वैसे भी छत्तीसगढ़ के साथ यह विडंबना रही है कि विद्याचरण शुक्ल को छोड़ दे ंतो यहां से ऐसा कोई प्रतिनिधित्व नहीं हुआ, जो दिल्ली में सूबे की आवाज उठा सकें और, उसे वाजिब हक दिला सके। सात बार के सांसद रमेश बैस दिल्ली में अपनी मौजूदगी दर्ज करा पाए और न ही केंद्रीय मंत्री रह चुके चरणदास महंत और विष्णुदेव साय ने राज्य के लिए ऐसा कुछ किया कि उन पर लोग फख्र कर सके। बाकी सांसदों की बात करें तो कह सकते हैं कि वे हवाई जहाज में दिल्ली जाने और वहां टीए, डीए लेने के अलावा और कोई काम नहीं किया। वे छत्तीसगढ़ के लिए अदद एक सवाल नहीं पूछ पाते। इसे दुर्भाग्य ही तो कहेंगे।

मोह भंग

विधानसभा चुनाव के पहिले रिटायर अधिकारियों में भारतीय जनता पार्टी के प्रति ऐसा अनुराग जागा कि रिटायर डीजी राजीव श्रीवास्तव, सिकरेट्री आरसी सिनहा समेत दो दर्जन अधिकारियों ने भाजपा ज्वाईन कर लिया था। मगर चुनाव में भाजपा की हालत देखकर इन अफसरों ने रंग बदलने में देर नहीं लगाई। तुरंत से इस्तीफा देकर पार्टी से पल्ला झाड़ लिया। हालांकि, रिटायर डीजी राजीव श्रीवास्तव का निर्णय जरूर कुछ गलत हो गया। वरना, बहुत कम लोगों को मालूम है, चुनाव के पहले अरबिंद केजरीवाल ने उन्हें आम आदमी पार्टी ज्वाईन करने कहा था तो कांग्रेस नेताओं से भी उन्हें ऑफर मिले थे। लेकिन, राजीव का फैसला करने में चूक गए।

अंत में दो सवाल आपसे

1. लोकसभा चुनाव के बाद जोगी कांग्रेस का कांग्रेस में विलय हो जाने की अटकलों में कितनी सच्चाई है?
2. धनेंद्र साहू के सांसद चुने जाने के बाद सत्यनारायण शर्मा एवं अमितेष शुक्ल में से किनका मंत्री बनने का रास्ता प्रशस्त होगा?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें