शनिवार, 9 दिसंबर 2023

Chhattisgarh Tarkash: नए सीएम की चुनौती!

 तरकश, 10 दिसंबर 2023

संजय के. दीक्षित

नए सीएम की चुनौती!

मुख्यमंत्री के चयन के साथ ही कल छत्तीसगढ़ की दशा और दिशा तय हो जाएगी। सूबे के डेवलपमेंट को लेकर उनकी प्रायरिटी क्या रहेगी, ये भी स्पष्ट हो जाएगा। नए सीएम के सामने सबसे बड़ी चुनौती 20 हजार करोड़ का एक्सट्रा रेवेन्यू जुटाने का होगा। रमन सिंह चूकि 13 साल तक वित्त संभाले हुए हैं। वे अगर नहीं बने तो दीगर मुख्यमंत्री को वित्त के मोर्चे पर कई कड़े फैसले लेने होंगे। घोषणा पत्र में भाजपा ने किसानों, महिलाओं को लेकर वायदे किए हैं, उसके लिए 20 हजार करोड़ जुटाने वित्त मंत्री की जरूरत पड़ेगी। राज्य बनने के बाद अजीत जोगी सरकार में रामचंद्र सिंहदेव ने खजाना संभाला। उसके बाद बीजेपी के सरकार में दो साल अमर अग्रवाल वित्त रहे, उनके इस्तीफे के बाद फिर रमन सिंह ने वित्त संभाला। दो महीने बाद लोकसभा चुनाव है इसलिए कोई भी नया सीएम नए करों से बचना चाहेगा मगर टैक्स अगर ना बढ़ाएं तो राज्य के खजाने का बुरा हाल हो जाएगा। बीजेपी ने 25 दिसंबर तक दो साल का बोनस देने का वादा किया है। 15 दिन बाद ही 900 करोड़ बोनस के लिए सरकार को लोन लेना होगा। क्योंकि, खजाने की स्थिति ऐसी है कि कर्मचारियों को चार परसेंट डीए बढ़ाने का चुनाव आयोग ने परमिशन दे दिया था मगर सरकार आदेश नहीं निकाल पाई। लॉ एंड आर्डर कोई बड़ा मसला नहीं है। एसपी चाह लें तो 12 घंटे में अपराधियों की त्राहि माम हो सकती है। डेवलपमेंट के लिए नए सीएम को चुनिंदा काबिल अफसरों पर भरोसा कर उनके पीठ पर हाथ रखना होगा। अफसर तभी रिस्क लेकर काम करते हैं, जब उन्हें प्रोटेक्शन मिले। दो महीने बाद लोकसभा चुनाव है...नए सीएम के सियासी कौशल की परीक्षा भी होगी।

ओपी नहीं, ओपी सर!

पूर्व ब्यूरोक्रेट्स ओपी चौधरी विधायक निर्वाचित हो गए हैं और अब निश्चित तौर पर कुछ-न-कुछ बनेंगे ही। उनकी जीत से नौकरशाही का एक वर्ग खुश है तो एक वर्ग का चेहरे पर मायूसी है। ओपी 13 साल आईएएस रहने के बाद सियासत में आए हैं, सो अफसरों की कुंडली से वाकिफ हैं। जाहिर है, ऐसे में कुछ अफसर घबराएंगे ही। बहरहाल, बात नॉट ओपी...नाउ ओपी सर की....ब्यूरोक्रेसी में अधिकांश अफसरों का एक निक नेम है। ओपी चौधरी का भी ओपी। मगर अब चीफ सिकरेट्री से लेकर 2004 बैच के अफसरों को दिक्कत जाएगी। ओपी 2005 बैच के आईएएस रहे हैं। छत्तीसगढ़ में 1989 बैच के सीएस से लेकर 2004 बैच तक 33 आईएएस हैं। इनके अलावा 2005 बैच के मुकेश बंसल, रजत कुमार, राजेश टोप्पो, आर संगीता और एस. प्रकाश भी। अब उन्हें ओपी सर बोलने की प्रैक्टिस करनी होगी...धोखे से कहीं मुंह से वही ओपी निकल निकल गया तो...!

डीजी की डीपीसी

पुलिस महकमे में 92 बैच के आईपीएस अधिकारियों का डीजी प्रमोशन से दो साल से ड्यू है। इस बैच के पवनदेव और अरुणदेव गौतम जनवरी 2022 में एलिजिबल हो गए थे। अगले महीने 94 बैच के आईपीएस का डीजी प्रमोशन भी ड्यू हो जाएगा। इस बैच में तीन आईपीएस हैं...जीपी सिंह, हिमांशु गुप्ता और एसआरपी कल्लूरी। जीपी की सेवा समाप्त हो गई है इसलिए बचे हिमांशु और कल्लूरी। नई सरकार अगर जनवरी में डीपीसी कर दी तो छत्तीसगढ़ में डीजीपी अशोक जुनेजा को मिलाकर पांच डीजी हो जाएंगे। हालांकि, सूबे में डीजी के चार ही पद हैं। दो कैडर पोस्ट और दो एक्स कैडर। अशोक जुनेजा अगर कंटीन्यू किए तो फिर सितंबर तक एक को एमएचए से परमिशन लेकर स्पेशल डीजी बनाना होगा। 94 बैच से जस्ट नीचे 95 बैच में प्रदीप गुप्ता भी हैं। प्रदीप गुप्ता लोकल हैं। रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग के आईजी रहने के अलावा कई जिलों के एसपी रह चुके हैं। कुल मिलाकर नई सरकार के पास डीजीपी के लिए च्वाइस की कमी नहीं है। इनमें से किसी को भी डीजीपी बना सकती है। डीजीपी के लिए अब 30 साल कंडिशन वाला रोड़ा भी नहीं रहा। वरना, 29 साल में एएन उपध्याय को डीजीपी बनाने तब के चीफ सिकरेट्री सुनील कुमार को तगड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी। वाकया उस समय का है, जब सुनिल के रिटायरमेंट में हफ्ता भर बच गया था। उनके बैचमेट एमएचए सिकरेट्री थे। सुनिल ने बैचमेट के नाम लेटर लिख एडीजी अशोक जुनेजा को दूत बनाकर दिल्ली भेजा और हाथोहाथ परमिशन मंगवाए, तब जाकर उपध्याय डीजी पुलिस बने थे। बहरहाल, 25 साल वाले केटेगरी से डीजीपी का पेनल बड़ा हो जाए। अब तो 97 बैच तक के अधिकारियों का नाम डीजीपी के पेनल में आ जाएगा।

अमन की भूमिका

ये बताने की आवश्यकता नहीं कि डॉ. रमन सिंह के 10 बरस के टेन्योर में पूर्व आईआरएस अफसर अमन सिंह की भूमिका कैसी रही। मगर बहुतों को ये नहीं मालूम होगा कि अबकी चुनाव में पर्दे के पीछे उनका कैसा रोल रहा। याद होगा, 2013 के विधानसभा चुनाव में बस्तर में बीजेपी पिछड़ रही थी तो उन्होंने सेकेंड फेज में गुरू बालदास को हेलिकाप्टर लेकर दौड़ा दिया था। नतीजा रहा आरक्षण कम करने के बाद भी अनुसूचित जाति की 10 में से नौ सीटें बीजेपी की झोली में आ गई थी। सियासी सूत्र बताते हैं, दिल्ली के नेताओं ने अमन के चुनावी तजुर्बो का इस बार भी बखूबी इस्तेमाल किया। अहमदाबाद में अमन सुबह 10 बजे से रात 10 बजे तक अदानी के लिए काम करते तो सुबह आठ से 10 बजे और रात 10 से एक बजे तक छत्तीसगढ़ पर वर्क करते। बीजेपी कोर कमेटी के एक मेम्बर ने बताया, चुनाव के प्रारंभ में हुई हाई प्रोफाइल मीटिंग में अमन की भूमिका तय कर दी थी। पता चला है, चुनाव जीताने वाले बीजेपी के रणनीतिकारों को अमन ने छत्तीसगढ़ का ब्लूप्रिंट बनाकर दे दिया था कि सरकार बनाने के लिए पार्टी को किस तरह का वर्क करना चाहिए। अमन को बीजेपी इस बात का क्रेडिट मानती है कि 15 साल सरकार में रहने के बाद भी कांग्रेस सरकार कागजों में रमन सिंह को घेर नहीं पाई। न किसी अफसर को जेल जाना पड़ा और न किसी नेता को।

सरगुजा चौंकाया

सात नवंबर को पहले फेज की वोटिंग के बाद बस्तर में बीजेपी को सात से आठ सीटों के दावे किए जा रहे थे...रिजल्ट आए नौ। इसलिए बस्तर के नतीजे खास हैरान नहीं किए। मगर सरगुजा में कांग्रेस जीरो हो जाएगी, इसकी कल्पना बीजेपी के ओम माथुर और मनसुख मांडविया ने भी नहीं की होगी। बीजेपी की तरफ झुकाव रखने वाले सियासी पंडित भी मान रहे थे...कितनी भी बुरी स्थिति होगी 14 में से सात-से-आठ सीट बीजेपी को मिलेगी और इसी के आसपास सत्ताधारी पार्टी को। मगर सरगुजा का मेंडेट लोगों को सकते में डाल दिया। आखिर कौन ऐसा सोचा था...डिप्टी सीएम टीएस सिंहदेव तक को हार का मुंह देखना पड़ेगा। निश्चित तौर पर जितना नौ मंत्रियों की हार ने नहीं चौंकाया, उससे अधिक सरगुजा का अप्रत्याशित परिणाम ने चौंका दिया।

कांग्रेस की टिकिट

पीएम नरेंद्र मोदी, केंद्रीय मंत्री अमित शाह और मनसुख मांडविया बीजेपी को सत्ता में लाने में कामयाब रहे वहीं कांग्रेस की हार में कांग्रेस नेताओं ने ईमानदारी के साथ अपना-अपना योगदान दिया। पार्टी के चार बड़े नेता...चारों ने टिकिटों का बंटवारा किया ही, दूसरे के कोटे की सीटों पर भी प्रत्याशियों का नाम जोड़ने-काटने की कोशिश में कोई कमी नहीं की। बात उत्तर रायपुर की...डॉ. राकेश गुप्ता को टिकिट दिया जाने लगभग फायनल हो गया था। इसी रणनीति के तहत कुलदीप जूनेजा को हाउसिंग बोर्ड का चेयरमैन का कार्यकाल बढ़ाया गया कि विधायक के बदले उनके पास चेयरमैनशिप रहेगा। राकेश गुप्ता ने टिकिट क्लियर समझ युद्ध स्तर पर प्रचार शुरू कर दिया था...सोशल मीडिया पर आप सबने देखा भी होगा, उनकी सक्रियता। मगर बीजेपी ने जैसे ही पुरंदर मिश्रा को मैदान में उतारा...कांग्रेस के कुछ नेताओं ने फिर से एक सर्वे करा दिल्ली मैसेज करा दिया...पुरंदर के खिलाफ कुलदीप चुनाव निकाल सकते हैं। और, राकेश गुप्ता को खिसकाकर कुलदीप का टिकिट फायनल करा दिया। कांग्रेस में इस तरह का खेला करीब दर्जन भर सीटों पर हुआ। जगदलपुर में जतीन जायसवाल को टिकिट मिली तो वे उनके लोग भी चौंक गए...उन्हें टिकिट की कभी उम्मीद नहीं रही। आलम यह हुआ कि कांग्रेस परस्त हो गई।

बसपा का टूटा तिलिस्म

विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सत्ता गंवा बैठी तो बहुजन समाज पार्टी को ऐसा धक्का लगा कि उसके संस्थापक कांशीराम की आत्मा भी कलप रही होगी। पिछले 40 साल से बसपा का छत्तीसगढ़ में एक से दो सीटें झोली में जाती रही है। खासकर, जांजगीर और बिलासपुर का ग्रामीण इलाके में बीएसपी का अच्छा वोट बैंक था। पिछले चुनाव में भी पामगढ़ और जैजैपुर, बीएसपी को दो सीटें मिली थी। इस बार भी दो सीटें तय मानी जा रही थी मगर बसपा पहली बार जीरो हो गई। इसका फायदा अविभाजित जांजगीर में कांग्रेस को मिला। जांजगीर और सक्ती की सभी छह सीटें कांग्रेस जीतने में इसलिए कामयाब हो गई कि बसपा के वोट बैंक कांग्रेस में शिफ्थ हो गए। यहां तक कि चंद्रपुर में संयोगिता सिंह जूदेव के जीत तय मानी जा रही थी मगर वहां के बसपा प्रत्याशी आखिरी तक एक्टिवेट नहीं हुए। इसका खामियाजा हुआ कि बसपा का वोट रामकुमार यादव को मिल गया। संयोगिता पराजित हो गईं। अब सवाल है, बसपा खतम क्यों हुई...? दरअसल, कांशीराम ने जांजगीर जिले से बसपा की चुनावी पारी की शुरूआत की थी। वे खुद 85 का लोकसभा इलेक्शन जांजगीर सीट से लड़े थे। मगर यूपी में जिस तरह बसपा सवर्णां और पिछड़ो के तरफ मूव हुई और इस कारण उसका अस्तित्व खतम हुआ, वैसा ही कुछ छत्तीसगढ़ में हुआ। बसपा में दलितों की बजाए ओबीसी और सवर्ण नेताओं को वेटेज मिलने लगा था। यही कारण है कि बसपा का परंपरागत वोट खिसक गया। और इस चुनाव में जीरो पर सफर समाप्त हो गया।

आयोग का ऐसा खौफ

भले ही आचार संहिता के दौरान भी अफसर बीजेपी नेताओं से मिलते रहे मगर काउंटिंग के दिन तेलागंना के डीजीपी को आयोग ने सस्पेंड कर दिया। डीजीपी अपनी कुर्सी सुरक्षित करने कांग्रेस प्रेसिडेंट से मिलने उनके बंगले चले गए थे। तेलांगना में हालांकि कांग्रेस की सरकार बनने वाली थी मगर छत्तीसगढ़ में ऐसा नहीं था। इसके बाद भी किसी भी अफसर की हिम्मत नहीं पड़ी पूर्व सीएम डॉ0 रमन सिंह को बधाई दे आएं। 5 दिसंबर शाम को आचार संहिता समाप्ति का ऐलान होने के अगले दिन अफसरों का रेला उमड़ पड़ा मौलश्री विहार तरफ। इस दिन 50 से 60 आईएएस और 40 से 50 आईपीएस अफसरों ने रमन सिंह को बुके भेंट कर फोटो खिंचवाई।

न घर के, न घाट के

इस चुनाव में बीजेपी से कांग्रेस ज्वाईन किए नंदकुमार साय की स्थिति न घर की रही और न घाट की। शायद पार्टी नहीं छोड़ी होती तो कोई भूमिका मिल जाती। मगर इस उम्र में साय जी गुलाटी मारकर फंस गए। साय से कांग्रेस को भी कोई लाभ नहीं हुआ। आदिवासी क्षेत्रों में चकरी उल्टी घूम गई। वैसे भी सायजी ने सियासत में कभी वफादारी नहीं निभाई। छत्तीसगढ़ बीजेपी के पितृ पुरुष लखीराम अग्रवाल को उन्होंने कैसा झटका दिया, उनके करीबी बता देंगे। लखीराम ने ही नवंबर 2000 में नंदकुमार को नेता प्रतिपक्ष बनाया था। इसको लेकर एकात्म परिसर में आगजनी और तोड़फोड़ हो गई थी। वही, सायजी नेता प्रतिपक्ष रहते लखीराम का साथ नहीं दिए, जब अजीत जोगी उनके व्यवसाय पर चोट करने का प्रयास किया। लिहाजा, अब उनके लिए न बीजेपी में लौटने का कोई चांस रहेगा और न ही कांग्रेस में कोई खास स्पेस मिलेगा।

अंत में दो सवाल आपसे

1. इस बात से आप कितना सहमत हैं कि डॉ0 रमन सिंह को छत्तीसगढ़ का सबसे बड़े नेता बनाए रखने में भूपेश बघेल की बड़ी भूमिका रही?

2. जिन जिलों में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली, क्या उन जिलों के कलेक्टरों को नई सरकार को ईनाम देना चाहिए?



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