तरकश, 15 दिसंबर 2024
संजय के. दीक्षित
अज्ञानी कलेक्टर-1
सक्ती जिले में ट्राईबल लैंड केस में जो हुआ, वह तो एक बानगी है। छत्तीसगढ़ के अधिकांश कलेक्टर सालों से ये चूक कर रहे हैं। फर्क इतना ही है कि कोई पैसा लेकर आंखें मूंद ले रहा तो कुछ को रीडर घूमा दे रहे हैं। जबकि, भू-राजस्व संहिता 165 में यह क्लियर है कि आदिवासी की कोई भी जमीन कलेक्टर की अनुमति के बगैर नहीं बेची जा सकती। मगर छत्तीसगढ़ में डायवर्टेड आदिवासी जमीन को कलेक्टर लिख कर दे दे रहे हैं...इसमें कलेक्टर की अनुमति की जरूरत नहीं है। सक्ती कलेक्टर ने भी ऐसा ही किया। दरअसल, सिस्टम की विडंबना यह है कि सम्मानजनक चढ़ावा न चढ़ाने पर कलेक्टर की अनुमति पाने चप्पल घिस जाएंगे। और पैसे दे दिए तो...।
अज्ञानी कलेक्टर-2
जाहिर है, आदिवासी जमीन को बेचने की अनुमति का प्रोसेस, महीनो की पेशी, बयान, साक्ष्य के बाद पूरा होता है। इसलिए इसमें डायवर्टेड लैंड का रास्ता निकाला गया। असल में, कलेक्टरों को आजकल नियम-कायदों की स्टडी होती नहीं। उनका रीडर जो बताता है, उसे वे ओके कर देते हैं। वही कलेक्टर एक जिले में पोस्टिंग के दौरान डायवर्टेड लैंड के मामले में कलेक्टर की अनुमति की जरूरत नहीं लिखकर देते हैं और दूसरे जिले में जाते हैं तो अनुमति अनिवार्य बताते हैं।
दरअसल, 2008 में जब राधाकृष्णन राजस्व बोर्ड के चेयरमैन थे, तब भूमाफियाओं ने उनसे आर्डर करा लिया था कि डायवर्टेड लैंड में कलेक्टर की अनुमति की जरूरत नहीं। हालांकि, डीएस मिश्रा ने चेयरमैन बनते ही उसे समाप्त का दिया था। मगर कलेक्टरों के कई खटराल रीडर राधाकृष्णन के उसी फैसले के आधार पर भूमाफियाओं को उपकृत कर रहे हैं। बहती गंगा में हाथ धोने में रजिस्ट्री अधिकारी भी पीछे नहीं। कई मामले तो रजिस्ट्री अधिकारी सलटा दे रहे...पुराने केस का हवाला देकर वे कलेक्टर के पास केस जाने ही नहीं देते। आदिवासी स्टेट, आदिवासी मुख्यमंत्री के बाद भी अगर ऐसा हो रहा तो ये कलेक्टरों की दुःसाहस कही जाएगी।
पूत सपूत तो का धन संचय
छत्तीसगढ़ की हाल की दो घटनाएं हिला देने वाली है। पहली घटना राजधानी रायपुर की है...एक रिटायर इंजीनियर इन चीफ अपनी संपत्ति बेटे के नाम कर पछता रहे हैं। वे रजिस्ट्री अधिकारियों से संपर्क में हैं कि क्या बेटे के नाम की गई रजिस्ट्री शून्य हो सकती है। दरअसल, सूबे में जब ईडी के छापे पड़ने शुरू हुए तो ईएनसी डरकर अपनी कई संपत्तियों को परिजनों के नाम कर दिया था।
मगर अब रिटायर होने के बाद बेटे-बहू यह कहते हुए उन्हें आंख दिखाना शुरू कर दिया है कि कौन सा आप मेहनत करके कमाए हो। बहू तंज कसती है...ईडी नहीं आती तो प्रॉपर्टी मेरे नाम करते क्या?
दूसरी घटना छत्तीसगढ़ की न्यायधानी से है। बिलासपुर के एक नामी सर्जन ने अकूत संपत्ति अर्जित की। देखते-देखते उन्होंने बिलासपुर शहर के मध्य 200 बेड का अस्पताल खड़ा कर दिया। रायपुर के वीआईपी क्लब के पास एकड़ में प्लाट। दोनों बेटों को तगड़ा डोनेशन दे, डॉक्टर बनाया। मगर उन्होंने एक काम नहीं किया...बेटों को संस्कारित करना। वैसे, दीन-दुखियों की जेब से पैसा निकालना फलता भी नहीं। नतीजा यह हुआ कि उनके स्वर्गवास होते ही करोड़ों की संपत्ति के लिए बेटे सरेआम जुतमपैजार कर रहे हैं।
अलबत्ता, सर्जन दो-ढाई दशक पुराने युग के थे, इसलिए कुछ तो नेक काम किए ही होंगे। कोविड युग के डॉक्टरों और अस्पताल मालिकों को सोचना चाहिए...कोविड में बिना इलाज किए...सिर्फ बीमारी की खौफ में इतनी दौलत अर्जित कर लिए कि सिरदर्द हो गया है...बोरियों में रखे कैश को 'अब' किधर लगाएं। रायपुर, बिलासपुर शहर के आसपास की जमीनें डॉक्टरों से बची नहीं। बिल्डरों के पास पैसा लगाने पहले से ही राजनेताओं और नौकरशाहों की लाइन लगी है।
कहने का आशय यह है कि पुरानी कहावतें गलत नहीं होती...पूत सपूत तो का...। पैसे कमाइये...सारे शौक पूरे कीजिए...दुनिया की सैर कीजिए। बट एक सेल्फ लिमिट तय कीजिए। इसके तीन फायदे होंगे। गरीब लुटने से बच जाएगा। भ्रष्ट लोग जेल जाने से बच जाएंगे। और तीसरा संपत्ति विवाद में सड़क पर इज्जत की नीलामी नहीं होगी। बहरहाल, उपर की दोनों घटनाएं आंखें आंखें खोलने के लिए काफी है। तय करना आपका काम है।
सिस्टम जिम्मेदार
करप्शन के लिए राजनीतिक सिस्टम भी कम जिम्मेदार नहीं है। 50 करोड़ के मनरेगा घोटाले में अगर आईएएस टामन सिंह सोनवानी के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की गई होती तो उसे पीएससी में बच्चों का भविष्य खराब करने की हिम्मत नहीं पड़ती। उसी तरह 2005 पीएससी में अगर सिस्टम कड़ा स्टैंड लिया होता तो आरती वासनिक को न आईएएस अवार्ड से मरहूम होना पड़ता और न वो जेल जाती।
ठीक है, जब तक किसी केस में फैसला नहीं हो जाता, प्रमोशन नहीं रोका जाता। मगर ये नियम बनाया कौन है? अफसरशाही ने अपनी सुविधा के लिए बनाई है। अलबत्ता, सरकार को अधिकार है कि जिनकी नीयत और निष्ठा सही नहीं है, उसे प्रमोशन से वंचित कर दें।
हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस ने पीएससी 2005 की भर्ती को निरस्त कर दिया था। इससे गंभीर केस क्या हो सकता है। इसके बाद भी सरकारें उन्हेंं धड़ाधड़ प्रमोशन ही नहीं दी बल्कि महत्वपूर्ण पोस्टिंग भी देती रही। इंतेहा तो तब हो गई जब, राज्य सरकार ने 2005 के सभी राप्रसे अधिकारियों को डीओपीटी से आईएएस अवार्ड करवा डाला।
सिस्टम जब तक कौवा मारकर नहीं टांगेगा, तब तक भ्रष्ट तंत्र इसी तरह पुष्पित-पल्लवित होता रहेगा। राज्य सरकार ने इस बार दो अफसरों का आईएएस अवार्ड रोका है...यह अच्छा संकेत है।
मगर यह भी सही है कि 2005 बैच वाले चार-पांच अधिकारियों को सरकार ने कलेक्टर बना डाला है, इसके संदेश अच्छे नहीं जाते...शुचिता कायम करने सिस्टम को इस पर विचार किया जाना चाहिए।
एसपी का आदेश
रायपुर के एसएसपी संतोष सिंह को हटने-हटाने को लेकर लंबे समय से चर्चाएं चल रही थी। मगर जब यह परसेप्शन बन गया कि अब नगरीय निकाय चुनाव तक कोई ट्रांसफर नहीं होंगे। सरकार ने बुधवार को देर संतोष सिंह को हटाकर पीएचक्यू भेज दिया। कोरिया के एसपी का हटना अपेक्षित था। पिछले तरकश में यह सवाल भी पूछा गया था कि सरगुजा पुलिस रेंज के किस एसपी को सरकार हटाने वाली है।
इसलिए, कोरिया के एसपी हटने पर कोई हैरानी नहीं हुई। मगर ट्रांसफर लिस्ट में संतोष सिंह का नाम देखकर लोग चौंक गए। पता नहीं, ऐसा क्या हुआ कि सीएम विष्णुदेव साय ने अफसरों से कहा कि दोनों एसपी के आदेश आज ही जारी किए जाएं।
संतोष का अनूठा रिकार्ड
रायपुर एसएसपी संतोष सिंह को भले ही रातोरात बदल दिया गया। मगर उन्हें यह संतोष होगा कि कप्तानी का उनका बनाया हुआ रिकार्ड निकट भविष्य में कोई तोड़ नहीं पाएगा। एसपी के तौर पर संतोष ने बिना ब्रेक लगातार नौ जिला किया। कोंडागांव से शुरू हुई उनकी कप्तानी का सफर नारायणपुर, महासमुंद, रायगढ़, कोरिया, राजनांदगांव, कोरबा, बिलासपुर होते हुए रायपुर में खतम हुआ।
हालांकि, छत्तीसगढ़ के आईपीएस बद्री नारायण मीणा ने भी एसपी के तौर पर नौ जिला किया है। मगर दो अलग-अलग दौर में। आईबी में डेपुटेशन पर जाने से पहले उनका सात जिला हुआ था और फिर लौटकर जांजगीर और दुर्ग जिला किया। बहरहाल, संतोष के नौ जिले में सबसे महत्वपूर्ण यह है कि लगातार तीन सरकारों में बिना ब्रेक वे एसपी रहे। सरकारें बदलती रहीं मगर उनकी कुर्सी पर कोई आंच नहीं आया।
रमन सरकार में कोंडागांव और नारायणपुर के एसपी रहे। भूपेश सरकार में महासमुंद, रायगढ़, कोरिया, कोरबा और बिलासपुर। इसके बाद दिसंबर 2023 में बीजेपी की सरकार बनी तो उन्हें बिलासपुर में कंटिन्यू किया गया। इसके बाद फिर रायपुर के एसएसपी बनें। याने विष्णुदेव सरकार में दो जिला उन्होंने किया। बेशक, तीन-तीन सरकारों में बिना ब्रेक एसपी रहने का देश में एक नया रिकार्ड होगा।
डीजीपी के दावेदार
सुप्रीम कोर्ट के तेवर के बाद भारत सरकार ने जीपी सिंह को आईपीएस की सर्विस बहाल कर दिया है। इसके बाद छत्तीसगढ़ सरकार उन्हें पोस्टिंग देगी। हालांकि, जीपी की मशक्कतें अभी भी जारी रहेगी। उनके सामने अब विभागीय जांच खतम करा डीजी प्रमोशन कराना बड़ा टास्क रहेगा। चूकि कैट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने भी मुहर लगा दिया है इसलिए अब विभागीय जांच में भी कुछ होना नहीं है।
सिर्फ बाइंडिंग की औपचारिकता बची है। उसके बाद फिर डीजी प्रमोशन के लिए डीपीसी होगी। जीपी के पास अगर एकाध महीने का भी वक्त होता तो वे डीपीसी कराने के बाद डीजीपी के पेनल में नाम जुड़वाने के लिए यूपीएससी को प्रेजेंटेशन दे सकते थे। तब डीजीपी के चार दावेदार हो जाते। मगर अब उन्हें वेट करना होगा।
अंत में दो सवाल आपसे
1. निलंबन में पैसा मिलेगा, मगर काम नहीं...अंग्रेजों के समय की इस व्यवस्था को टाईट क्यों नहीं की जा रही, ताकि गलत कार्य करने से लोग बचे?
2. छत्तीसगढ़ में कौन-कौन मंत्रियों ने प्रायवेट वसूली एजेंट नियुक्त कर डाला हैं?
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