तरकश, 26 जनवरी 2024
संजय के. दीक्षित
इनोवा वाले साब, 180 करोड़ की बचत
निलंबन बहाली से पहले ही इनोवा गाड़ी की डिमांड करने वाले आईएएस अफसर को जीएडी ने न केवल बहाल कर दिया बल्कि दो-दो पोस्टिंग से नवाज दिया। कोई नहीं...सिस्टम की अपनी मजबूरियां होती हैं। आखिर, इसी सिस्टम ने जिलों में पुलिस की किराये पर चलने वाली इनोवा गाड़ियों पर अपनी भृकुटी चढ़ाई और अब आलम यह है कि जिले के पुलिस अधीक्षकों को दो तिहाई से अधिक किराये की इनोवा को हटाना पड़ गया। सबसे अधिक गोलमाल कवर्धा और राजनांदगांव में था। कवर्धा में रोज आठ-से-दस इनोवा हायर की जाती थी। बिलिंग प्रति गाड़ी 80 हजार से लेकर एक लाख रुपए तक। मगर अब दो-से-तीन गाड़ियां किराये की ली जा रही हैं। इसी तरह अन्य जिलों में भी आधे से अधिक किराये की गाड़ियों को वापिस कर दिया गया है। एसपी और आरआई ने साफ कह दिया है...अब संभव नहीं। बहती गंगा में हाथ धोने कई पुलिस वाले ही ट्रेवल्स कंपनी खोल लिए थे, इससे उन्हें भारी फटका लगा है। बहरहाल, तरकश की खबर और वित्त महकमा एवं पीएचक्यू की सख्ती से छत्तीसगढ़ के खजाने को हर महीने करीब 15 करोड़ की बचत होगी। याने साल का 180 करोड़। कुछ ईमानदार टाईप एसपी मानते हैं कि थोड़ा सा सिस्टम टाईट हो जाए, तो 50 करोड़ रुपए और बच सकता है। इसमें अभी और अंकुश लगाई जा सकती है। मसलन, जिन नेताओं को जरूरत नहीं, एसपी साब लोग उन्हें खुश रखने फॉलोगार्ड मुहैया करा देते हैं।
कौवा मारकर टांगना
सिस्टम की कसावट के लिए टाईमिंग को मेंटेन करना अच्छा कदम है। मगर सिस्टम की गड़बड़ियों को ठीक करने सरकार को अभी कई और कदम उठाने होंगे। छत्तीसगढ़ में अभी कई चीजें ऐसी हो रही हैं, जिनमें कोई संज्ञान नहीं लिया जा रहा। आदिवासी मुख्यमंत्री, आदिवासी संगठन मंत्री होने के बाद भी आदिवासियों की जमीनें हड़पी जा रही हैं, मगर इस पर रोक लगाने अफसरों का ध्यान नहीं है। विदित है, एक कलेक्टर ने आदिवासी जमीन के मामले में लिख कर दे दिया कि इसमें कलेक्टर की अनुमति की जरूरत नहीं। बाद में बवाल मचा तो रजिस्ट्री अधिकारी को सस्पेंड करा दिया। फिर चोरी पकड़ी गई तो रजिस्ट्री अधिकारी को बहाल किया गया। इस मसले में अभी तक किसी को नोटिस तक इश्यू नहीं हुई। आईपीएस लोग रिसोर्ट में शराब पार्टी करें...हंगामा हो, इसमें भी अभी तक कुछ नहीं हुआ। ऐसे ढेरों मामले हैं, जिसमें लोगों की टिप्पणियां सुनने में आ रही कि कुछ बदला नहीं। आखिर सीजीएमससी की ईओडब्लू जांच में ब्रेकर क्यों लगाया जा रहा है...सवाल तो है। जवाब है, सरकार को कौवा मारकर लटकाना पड़ेगा। अमरेश मिश्रा को फ्री हैंड देदीजिए...देखिए फिर करप्शन काबू में कैसे नहीं आता है।
करप्शन कारपोरेशन
छत्तीसगढ़ के सरकारी अस्पतालों के लिए दवाइयां और उपकरण खरीदने वाले सीजीएमससी को सरकार ने अब टाईट करना शुरू कर दिया है। हेल्थ सिकरेट्री और डायरेक्टर हेल्थ अब खुद सीजीएमएससी की निगरानी कर रहे हैं। बल्कि पता तो ये भी चला है कि 50 लाख की पूंजी से दस साल में 500 करोड़ के आसामी बने पिता-पुत्र की भी अब शामत आने वाली है। अफसरों ने उनकी कंपनियों के टॉप के एग्जीक्यूटिव को रायपुर बुलाकर हड़काया है...काम करना है तो डिस्ट्रीब्यूटर्स बदल लो। बताते हैं, दवा कारपोरेशन को करप्शन कारपोरेशन बनाने में छत्तीसगढ़ के पिता-पुत्र की भूमिका सबसे अहम रही। एकाध को छोड़ दें तो अधिकांश एमडी और जीएम फायनेंस तथा जीएम टेक्नीकल पिता-पुत्र ही अपाइंट कराते थे। एमडी कार्तिकेय गोयल ने जब नियम-कायदों का शिकंजा कसा तो हाई कोर्ट में दो दर्जन से अधिक केस लगवा दिया। अगर इसकी सक्षम एजेंसी से जांच हो जाए, तो छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा घोटाला निकलेगा।
IFS अफसर का करनामा
सीजीएमससी के फाउंडर एमडी आईएफएस प्रताप सिंह रहे। उत्तराखंड से ताल्लुकात रखने वाले प्रताप ने सरकार के भरोसे पर खरा उतरते हुए ईमानदारीपूर्वक सीजीएमएससी की नींव रखी। इसके बाद 2014 तक सब ठीकठाक चलता रहा। 2014 में सरकार ने अविनाश चंपावत को हटाकर एक दक्षिण भाषी आईएफएस अफसर को एमडी बना दिया। यही से सीजीएमससी करप्शन कारपोरेशन में ट्रांसफर्म होना प्रारंभ हुआ। आईएफएस ने बस्तर में पोस्टिंग के दौरान ट्रांसपोर्ट का काम करने वाले ठेकेदार को सीजीएमससी में रजिस्टर्ड कराया और फिर ऐसा खेला किया कि खुद भी करोड़ों की मिल्कियत बनाई और सप्लायर की हैसियत आज ऐसी हो गई है कि किसी नेता या अफसर से मिलने जाता है तो दो खोखा छोड़कर आ जाता है। याने लक्ष्मीजी के जरिये विश्वास जीतने का नायाब नमूना। सरकार के एक जिम्मेदार पद पर बैठे नेता इसी चक्कर में बड़ी बदनामी मोल ले बैठे।
मंत्रिमंडल का विस्तार
विष्णुदेव साय कैबिनेट का विस्तार अब लंबे समय के लिए टल गया है। नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव जैसे ही समाप्त होगा, 27 फरवरी से विधानसभा का बजट सत्र प्रारंभ हो जाएगा। इसके बाद होली आ जाएगी। होली के हफ्ता भर बाद तक सत्र चलेगा। यानी करीब 25 मार्च तक। इसके बाद अप्रैल आ जाएगा। बीजेपी के बड़े लीडर भी मानते हैं कि अप्रैल से पहले अब कैबिनेट का विस्तार मुमकिन नहीं। अप्रैल में भी तभी...जब केंद्रीय नेतृत्व इसे सीरियसली ले। वरना, नए मंत्रियों के नाम पर शह-मात का ऐसा खेल चल रहा कि उसे क्लियर नहीं किया गया तो मंत्रियों का शपथ मुमकिन नहीं।
दावेदारों की जेबकटी
विष्णुदेव साय कैबिनेट में मंत्री दो ही बनेंगे मगर नए-पुराने मिलाकर दावेदारों में चार-से-पांच विधायक तो हैं ही। मंत्रिमंडल विस्तार जैसे-जसे आगे खिंचता जा रहा है...इन बेचारों की हालत खराब है...नया जैकेट सिलवाकर बैठे-बैठे आंखें पथरा गई है। जब भी शपथ का शुभ योग बनता दिखता है, राहू-केतु बीच में आ जाते हैं। उपर से चंदा मांगने वाले प्राण खा रहे...गणेश और दुर्गापूजा में कई लाख निकल गए। नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव में अब जेब कटने वाली है। मेयर और अध्यक्ष को कौन पूछे, पार्षद की टिकिट मिलने से पहले कार्यकर्ता पहुंचने लगे हैं...भाई साब कुछ करा देते। अपने इलाके में बेहतर पारफर्मेंस का तनाव है सो अलग। आखिर, मेयर कंडिडेट का रिजल्ट गड़बड़ाया तो उसका ठीकरा बड़े नेताओं पर फूटेगा। इतना खर्चा के बाद भी मंत्री पद मिलेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं। क्योंकि, बीजेपी में कब क्या हो जाए, बड़े-बड़े नेताओं को भी मालूम नहीं रहता।
भाभियों को फ्री का पगार
अफसरों की पत्नियां नौकरी करती हैं तो इसमें कोई दिक्कत नहीं। काम करने का सबको अधिकार है। मगर वर्किंग कल्चर बनाने के तहत विष्णुदेव सरकार ने टाईमिंग पर सिस्टम को कसना प्रारंभ किया है तो ये बात भी उठने लगी है कि अफसरों की पत्नियों को भी टाईम को फॉलो करते हुए रोज आफिस जाना चाहिए। सरकार की नोटिस में ये बात आई है कि कई अफसरों की डॉक्टर या असिस्टेंट प्रोफेसर पत्नियां बिना आफिस आए हर महीने पगार उठा रही हैं। खासकर, जिलों में तो और बुरा हाल है। सैयां भए कोतवाल तो फिर किसकी हिम्मत है कि वो टोक दें। न कालेजों के प्रिंसिपल बोल पाते और न ही अस्पतालों के मेडिकल सुपरिटेंडेंट। आलम यह है कि बस्तर में पोस्टेड रहे अधिकारियों की पत्नियां कागजों में अभी भी वहां के अस्पतालों में काम कर वेतन उठा रही हैं। सरकार से पद स्वीकृत कराने का लफड़ा भी नहीं रहता। कलेक्टर साब लोग डीएमएफ में भाभियों के लिए पद का सृजन कर देते हैं और बिना काम की तनख्वाह भी एकाउंट में चला आता है। मगर वक्त अब दूसरा है। जैसे ही महीना बीतने को आता है, राज्य के फाइनेंस सिकरेट्री की रात की नींद उड़ने लगती है। छत्तीसगढ़ के चार लाख कर्मचारियों, अधिकारियों के लिए 2500 करोड़ सेलरी का इंतजाम। उपर से महतारी वंदन के लिए 700 करोड़। याने दो-तीन तारीख तक 3200 करोड़ चाहिए ही चाहिए। ऐसे में, कोई फोकट में वेतन लेगा तो जाहिर है, मेहनत करने वाले को अखरेगा ही। बहरहाल, अफसरों की पत्नियों की जमीर जागनी चाहिए। फ्री का पैसा आखिर क्यों? हूनर है तो उसका उपयोग करें...मेहनत के पैसे में बरकत भी होता है।
खेल में खेला
छत्तीसगढ़ के खेल विभाग के हरफ़ानमौला खिलाडी दूसरे के पैसे से भी करतब दिखा दे रहे हैं. बस्तर ओलम्पिक क़े लिए गृह विभाग ने पैसा दिया था. बस्तर क़े कलेक्टर ने इसके लिए एक करोड़ तीन करोड़ का टेंडर किया था. मगर खेल विभाग क़े अफसरों को यह रास नहीं आया. आख़िरकार, कलेक्टर को टेंडर निरस्त करना पड़ा. उसी सामग्री को खेल अधिकारियों ने तीगुने रेट पर दो करोड़ 95 लाख में ख़रीदा. याने खेल में खेला हो गया.
अंत में दो सवाल आपसे
1. क्या रिटायरमेंट के साल में अफसरों को गोलमाल करने वाली पोस्टिंग देनी चाहिए?
2. सुबह से कैलकुलेटर लेकर बैठ जाने वाले किस कलेक्टर को सरकार चुनाव बाद खो करने सोच रही हैं?
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