शनिवार, 15 जून 2013

तरकश, 16 जून

थर्ड फ्रंट 

छत्तीसगढ में अभी तक दो दलीय संसदीय व्यवस्था रही है। 2003 के चुनाव में एनसीपी ने विद्या भैया की वजह से जरूर अपनी मौजूदगी दर्ज कराई थी मगर चुनाव बाद वह भी खतम हो गई। बसपा भी यहां दो-तीन सीट से उपर नहीं जा पाई। मगर अब, सूबे में कुछ इस तरह के राजनीतिक समीकरण बन रहे हैं कि इस साल होने जा रहे विधानसभा चुनाव में तीसरी पार्टी भी मजबूती के साथ मैदान में आ जाए, तो अचरज नहीं। एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता को पार्टी जिस तरह से किनारा कर रही है कि उससे सियासी प्रेक्षकों को नहीं लगता कि अब ज्यादा दिन तक वे पार्टी में रह पाएंगे। हालांकि, खुद से होकर वे कांग्रेस नहीं छोड़ने वाले। उनकी कोशिश होगी कि पार्टी उनके खिलाफ कार्रवाई करें। ताकि, उसकी सहानुभूति मिल सकें। असल में, नेताजी ने हमेशा फ्रंट पर रहकर राजनीति की है। बैकफुट पर रहना उन्हें गवारा नहीं। फिर, साथ में फौज-फटाके भी हैं। महत्वकांक्षाएं भी कम नहीं है। सो, सीटों का गुणा-भाग शुरू हो गया है। साब की कोशिश रहेगी कि पहली बार में कम-से-कम पांच सीट आ जाए। इतने से भी काम बन जाएगा। दोनों ही पार्टियां सरकार बनाने के लिए उनसे मोल-तोल करने पर मजबूर होगी। 

सीएस बड़ा या....

छोटे राज्य होने की वजह से अदने अफसर भी इस कदर पावरफुल हो गए हैं कि चीफ सिकरेट्री के निर्देश पर अमल नहीं होने दे रहे हैं। 16 अप्रैल को कलेक्टर्स की वीडियोकांफ्रेंसिंग में नए जिलों के कलेक्टरों ने मुख्यमंत्री से डीएफओ की पोस्टिंग न होने की शिकायत की थी। इस पर चीफ सिकरेट्री सुनिल कुमार बेहद नाराज हुए थे। उन्होंने वन विभाग के अफसरों को तत्काल नए जिलों में डीएफओं की तैनाती करने के निर्देश दिए थे। आनन-फानन में वन विभाग ने तीन डीएफओ की पोस्टिंग कर दी, मगर इसके बाद उनके हाथ कांप रहे हैं। नौ नए जिले में सबसे बड़ा और मलाईदार डिवीजन गरियाबंद है। एक एसडीओ वहां का प्रभारी डीएफओ है। सरकार चाह कर भी वहां डीएफओ पोस्ट नहीं कर पा रही है। यही नहीं, सरकार ने हड़बडी में जिन तीन नए जिले में डीएफओ पोस्ट किया है, उन्हें न तो डीडीओ पावर दिए हैं और ना ही आफिस और स्टाफ। समझा जा सकता है, जंगल महकमे में क्या चल रहा है।   

कार्रवाई के पीछे

 मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव एन बैजेंद्र कुमार की वजह से पुलिस ने न्यू स्वागत विहार के मामले में बिल्डर संजय बाजपेयी के खिलाफ न केवल अपराध पंजीबद्ध करने में तेजी दिखाई बल्कि, उनकी गिरफ्तारी की कोशिशें भी शुरू कर दी थी। वरना, इस तरह के केसेज में पुलिस का रवैया ढाक के तीन पात वाला ही रहता है। इसकी एक बानगी देखिए, राज्य बनने के बाद पहली बार पिछले साल राज्य सरकार ने एक्जीक्यूटिव इंजीनियर जैसे अफसर के खिलाफ चार सौ बीसी का प्रकरण दर्ज कराया था। केस था, बिलासपुर के पीएचई अफसरों द्वारा 15 करोड़ रुपए गबन का। इसके लिए पीएचई मिनिस्टर केदार कश्यप ने नोटशीट में ईई के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराने की हरी झंडी दी थी। पुलिस ने बड़ी मुश्किल के बाद रिपोर्ट तो दर्ज कर ली, मगर आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। अलबत्ता, पुलिस ने मामले को क्लोज करने की तैयारी प्रारंभ कर दी है।

पुलिसिया एरियर्स

 गवर्नमेंट एवं पब्लिक सेक्टर में वेतन या डीए का एरियर्स तो आपने सुना होगा, मगर पुलिसिया एरियर्स के बारे मंे शायद नहीं। राज्य के एक जिले के कप्तान एक कंपनी से कारोबार चलाने के लिए महीने का दो लाख रुपए मांग रहे हैं, साथ ही फरवरी में उनके ज्वाईन करने से लेकर जून तक के पांच महीने का एरियर्स भी। याने अलग से 10 लाख। राज्य की पोलिसिंग कैसी चल रही है, अंदाज लगाने के लिए यह काफी है। अधिकांश जिलों में यही सब चल रहा है। ढूंढ-ढूंढकर उगाही की जा रही है। कप्तानांे का पोलिसिंग से वास्ता नहीं रह गया है। प्रभावशाली लोगों का एकाध काम करके खुश कर दो और उसके बाद सिर्फ पैसा...पैसा और पैसा। ऐसे में, इस साल विधानसभा चुनाव में कानून-व्यवस्था भला मुद्दा कैसे नहीं बनेगी।

राहत

 नसबंदी का आपरेशन करने वाले डाक्टरों को राष्ट्रीय उपभोक्ता फोरम के फैसले से राहत मिली होगी। मुरादाबाद के एक केस में राष्ट्रीय फोरम ने राज्य उपभोक्ता फोरम के फैसले को उलटते हुए कहा है कि नसबंदी के आपरेशन में 100 फीसदी सफलता की गारंटी नहीं होती। और फिर गर्भ ठहरने की जानकारी मिली तो उसे एबार्ड क्यों नहीं कराया गया। इसलिए डाक्टर को दंडित नहीं किया जा सकता और ना ही मुआवजा बनता है। छत्तीसगढ़ के विभिन्न जिला उपभोक्ता फोरम में ऐसे दो दर्जन से अधिक केस चल रहे हैं, जिसमें नसबंदी के आपरेशन के बाद भी बच्चा हो गया। और पीडि़तों ने डाक्टरों के खिलाफ केस दायर किया है।

अंत में दो सवाल आपसे

 1.    एडीजी जेल गिरधारी नायक को डीजी प्रमोट करने के लिए डीपीसी क्यों नहीं हो पा रही है?
2.    किस आईपीएस अफसर की पत्नी दरभा नक्सली हमले पर प्रेस कांफ्रेंस करने की तैयारी कर रही हैं?
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