शनिवार, 14 जून 2025

Chhattisgarh Tarkash 2025: मंत्री का कमाऊं पीएस

 तरकश, 15 जून 2025

संजय के. दीक्षित

मंत्री का कमाऊं पीएस

सीएम सचिवालय ने कुछ अरसा पहले मंत्रियों के पीए और पीएस की निगरानी शुरू की थी, उसमें पता नहीं कितने को ट्रेस किया गया। मगर अब भी हालत जुदा नहीं है। एक बड़े मंत्री के पीएस कई बड़े मालदार विभागों के होने के बाद भी जनहित वाले छोटे विभागों को भी नहीं बख्श रहे। छोटी सप्लाई और टेंडरों में कमीशन चाहिए, तो बाबुओं की पोस्टिंगों में भी रोकड़ा होना। वो भी हर तीन महीने में रिचार्ज की अनिवार्यता। मंत्रीजी का अच्छा भला फ्यूचर खटराल पीएस के फेर में दांव पर लगता जा रहा। जाहिर है, उनकी गिनती सबसे अधिक कमीशन वाले मंत्री में होने लगी है। वो अब उसे झटक भी नहीं सकते, क्योंकि उसने थैली देकर आदत खराब कर डाली है, दूसरा घरवाली के साथ परिजनों का खास बन गया है। ऐसा ही रहा तो अगले चुनाव में मंत्री जी की सीट भी खतरे में पड़ जाएगी। क्योंकि, पीएस कोई घर छोड़ नहीं रहे। सो, इलाके के अपने लोग भी अब नाराज हो रहे हैं।

लाल बत्ती, नो वैकेंसी

लगभग सभी छोटे-बड़े निगम-बोर्डों में सरकार राजनीतिक नियुक्तियां कर चुकी हैं। आखिरी था ब्रेवरेज कारपोरेशन और अपेक्स बैंक चेयरमैन...वो भी कंप्लीट हो गया। केदार गुप्ता के रिजेक्ट करने से दुग्ध संघ खाली है मगर उसमें कोई जाना चाह नहीं रहा है...केदार ने इसकी रेटिंग डाउन कर दिया है। कादम्बरी जैसे झुनझुना वाले बोर्ड का भी यही हाल है। सरकारी नियुक्तियों में पीएससी जरूर बचा है। छत्तीसगढ़ में ऐसे कई दृष्टांत हैं, जिसमें प्रोफसर और अफसरों के अलावा जनप्रतिनिधियों को पीएससी मेंबर बनाया गया। अब बल्क में बचा है तो वह है बोर्डो में मेंबर। मगर इसमें गाड़ी और लेटरहेड पर लिखने के अलावा कुछ मिलता नहीं। बोर्ड, निगम के मेंबर में भी अगर कोई बाजीगरी दिखा ले तो बात अलग है। आगे चलकर जिला सहकारी बैंकों में अध्यक्ष और उपाध्यक्ष में नियुक्तियां जरूर होगी। अलबत्ता, राज्य स्तर के बोर्ड और निगमों में चेयरमैन लेवल की अब कोई रिक्तियां नहीं हैं।

जांच में रोड़ा, पर्दे के पीछे कौन?

राज्य सरकार जीरो टॉलरेंस नीति के तहत जो मामले सामने आ रहे हैं, उसकी जांच में कोई कोताही नहीं बरत रही...ताबड़तोड़ घोषणाएं की जा रही। मगर यह भी सही है कि कोई भी जांच अंजाम तक नहीं पहुंच पा रही...बल्कि उससे पहले ही डिरेल्ड हो जा रही है। सीजीएमएसी से लेकर आरआई प्रमोशन स्कैम तक की ईओडब्लू जांच में यही हुआ। 1131 करोड़ की अरपा-भैंसाझाड़ मुआवजा घोटाले की ईओडब्लू जांच के लिए मुख्यमंत्री ने बैठक में घोषणा की। मगर महीना भर ज्यादा हो गया, अभी तक जांच एजेंसी को कोई चिठ्ठी नहीं भेजी गई है। सीएम के बैठक के मिनिट्स में उसे ऐसे शामिल किया गया, जैसे ईओडब्लू जांच कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। सवाल उठता है, जांच में आखिर रोड़े कौन अटका रहा है? सरकार की इसकी पहचान करनी चाहिए कि कौन वो शख्सियत है, जो पर्दे के पीछे से सरकार को डैमेज कर रहा है।

सीएस, डीजीपी साथ-साथ

छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद यह पहला मौका होगा, जब चीफ सिकरेट्री और डीजीपी का सलेक्शन लगभग साथ-साथ होना है। नवंबर 2000 के बाद ऐसा कभी नहीं हुआ। तब अरुण कुमार सीएस और श्रीमोहन शुक्ला डीजी पुलिस नियुक्त हुए थे। छत्तीसगढ़ में अभी तक 12 मुख्य सचिव और 11 डीजीपी अपाइंट हुए हैं। अरुणदेव गौतम अभी प्रभारी हैं...सरकार की इनायत अगर कंटीन्यू रही तो वे छत्तीसगढ़ के 12वें डीजीपी बनेंगे। बहरहाल, अशोक जुनेजा को छह महीने का एक्सटेंशन नहीं मिला होता तो सीएस और डीजीपी की एक साथ नियुक्ति वाली स्थिति नहीं आती। एक्सटेंशन की वजह से जुनेजा सितंबर 2024 की बजाए फरवरी 2025 में रिटायर हुए और यूपीएससी से क्लियर होकर पेनल आते-आते जून आ गया। इसी जून में मुख्य सचिव अमिताभ जैन का भी रिटायरमेंट है। प्रशासन और पुलिस के इन दोनों शीर्ष पदों पर राज्य सरकार का च्वाइस कसौटी पर रहेगा। इन नियुक्तियों से पता चलेगा कि सरकार आखिर किस लाइन पर चलना चाहती है।

प्रभारवाद में डीजीपी

यूपीएससी से दो आईपीएस अधिकारियों के नामों का पेनल आने के 20 दिन बाद भी अभी तक पूर्णकालिक डीजीपी पोस्ट करने की सरकार स्तर पर कोई सुगबुगाहट नहीं है। और जैसे हालात दिख रहे हैं, उससे प्रतीत होता है कि अरुणदेव गौतम प्रभारी डीजीपी बने रहने के अलावा कोई चारा नहीं है। वैसे कई राज्यों में प्रभार में डीजीपी चल रहे हैं। यूपी देश का पहला राज्य होगा, जहां कई साल से पूर्णकालिक डीजीपी नहीं बने। प्रभारी डीजीपी प्रशांत कुमार के रिटायर होने पर राजीव कृष्ण प्रभारी डीजीपी बने हैं। वो भी छह आईपीएस अधिकारियों के सुपरसीड करके। असल में, सभी राज्यों की अपनी-अपनी मजबूरियां होती हैं। कहीं सीनियर अफसर सरकार के पसंद के नहीं होता तो कहीं पसंद का होता है तो दूसरे तरह के जैक-एप्रोच नियुक्ति में बाधा बनकर खड़े हो जाते हैं। अब छत्तीसगढ़ में किस तरह का ब्रेकर है...ये तो नहीं पता। मगर कुछ तो है। ऐसे में, लगता है कि प्रभारवाद अभी जारी रहेगा।

सीएस का काउंटडाउन

चीफ सिकरेट्री अमिताभ जैन के रिटायरमेंट में ठीक 15 दिन बच गए हैं। 30 जून को चार साल सात महीने का रिकार्ड पारी खेल कर वे पेवेलियन लौट जाएंगे। ऐसे में, लोगों की जिज्ञासाएं हिलोरें मार रहीं...छत्तीसगढ़ का अगला प्रशासनिक मुखिया कौन बनेगा। जाहिर है, डीजीपी की तरह चीफ सिकरेट्री में प्रभारवाद होता नहीं। होना भी नहीं चाहिए...राज्य का प्रशासनिक मुखिया ही प्रभारी हो जाएगा तो फिर उसकी कौन सुनेगा। फिलवक्त पांच आईएएस अफसर चीफ सिकरेट्री के लिए एलिजिबल हैं। रेणु पिल्ले, सुब्रत साहू, अमित अग्रवाल, ऋचा शर्मा और मनोज पिंगुआ। हालांकि, कुछ दिनों से रेस में सुब्रत साहू और मनोज पिंगुआ आगे बताए जा रहे थे। धर्मेद्र प्रधान अगर बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन जाते तो इनमें से एक का पलड़ा निश्चित तौर से भारी हो जाता। मगर ऐसा हुआ नहीं। उधर, सालों से सेंट्रल डेपुटेशन पर दिल्ली में पोस्टेड अमित अग्रवाल के बारे में पहले खबर आई थी कि वे छत्तीसगढ़ लौटने इच्छुक नहीं हैं। मगर पिछले हफ्ते से ब्यूरोक्रेसी में ये चर्चाएं जोर पकड़ने लगी है कि सरकार अगर बुलाए तो वे चीफ सिकरेट्री बनने के लिए रायपुर आ सकते हैं। उनके कुछ बैचमेटों ने इसकी तस्दीक की है। इससे मामला पेचीदा हो चला है। अमित अग्रवाल के रायपुर लौटने के संदर्भ में अगर कोई बात होगी तो निश्चित तौर पर दिल्ली में पीएम और केंद्रीय गृह मंत्री से सीएम की मुलाकात में आई होगी। और अगर अमित अग्रवाल अगर नहीं आए तो फिर मुख्य मुकाबला सुब्रत साहू और मनोज पिंगुआ में होगा। सुब्रत 91 बैच के आईएएस हैं और मनोज 94 बैच के। इनमें से जिसका मुकद्दर बुलंद होगा, वह 30 जून को अमिताभ जैन से कार्यभार ग्रहण करेगा।

आईएएस रजिस्ट्रार

छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी का चर्चित स्लोगन था...अमीर धरती के गरीब लोग। इस विरोधाभास को दूर करने उन्होंने सूबे के ह्यूमन रिसोर्स की मजबूती के लिए कई स्तर पर कोशिशें शुरू की थी। जोगी ने सबसे पहले विश्वविद्यालयों में डायरेक्ट आईएएस अधिकारियों को रजिस्ट्रार बनाया। एक समय रायपुर, बिनासपुर दोनों में आईएएस रजिस्ट्रार होते थे। अभी के प्रमुख सचिव सोनमणि बोरा यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार रह चुके हैं। मगर उसके बाद...? उसके बाद हायर एजुकेशन को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया। इस समय छत्तीसगढ़ के एक को छोड़कर सभी विश्वविद्यालयों का प्रशासन गुरूजी लोग संभाल रहे हैं। कुलसचिवों की नियुक्ति सरकार ने नहीं, कुलपतियों ने खुद से कर लिया है। तरीका वही...प्रभारवाद। जाहिर है, अफसर कैडर का रजिस्ट्रार रहता है तो उसकी एकाउंटबिलिटी रहती है। गलत होने पर वह अड़ सकता है। मगर असिस्टेंट प्रोफेसरों और प्रोफेसरों की कहां मजाल कि वह कुलपतियों से अलग जाए। लिहाजा, कुलपतियों के दोनों हाथ घी में सिर कढ़ाई में है।

कुलपति बोले तो बड़ा बाबू

एक समय था, जब कुलपतियों के प्रति लोगों में अगाध श्रद्धा होती थी। उनका अलग प्रोटोकॉल और औरा था। वीसी को नेक्स्ट टू गवर्नर कहा जाता था। कार्यक्रमों में वीसी मुख्यमंत्री और राज्यपालों के बगल में बिठाए जाते थे। मगर छत्तीसगढ़ बनने के बाद पैसे कमाने के चक्कर में कुलपतियों का ऐसा पतन हुआ कि उनकी स्थिति बड़े बाबू से ज्यादा नहीं रह गई है। सूटकेश वाले कुलपतियों का क्वालिटी एजुकेशन और रिसर्च से कोई वास्ता नहीं,...उनका एक ही मोटो है, जितना खर्चा किया, वह ब्याज समेत निकल आए। जाहिर है, ऐसे में निर्माण कार्यों और नियुक्तियों पर गिद्ध दृष्टि रहेगी ही। जितना ज्यादा कंक्रीट की इमारतें खड़ी करेंगे, कमीशन उतना अधिक मिलेगा। फिर थोक के भाव में होने वाली नियुक्तियां तो हॉट केक है ही। बस्तर यूनिवर्सिटी की नियुक्यिं में आप सभी ने देखा ही, बाकी यूनिवर्सिटी का हाल भी जुदा नहीं है। वो चाहे संघ के नाम पर कुलपति बनने वाले हो या फिर सूटकेस वाले, छत्तीसगढ़ में सभी कुलपतियों ने कारटेल बनाकर अपना रेट तय कर लिया है। असिस्टेंट प्रोफेसर के लिए 30 से 35, एसोसियेट प्रोफसर याने रीडर के लिए 50 और प्रोफेसर के लिए 75 लाख। अब आप कैलकुलेटर से जोड़ लीजिए कि 5 साल में अगर 50 नियुक्ति भी कर ली तो कई खोखा का इंतजाम हो गया। याने अपनी संतानों के साथ नाती-पोता के लिए भी व्यवस्था। संघ की दुहाई और गांधी जी को कोसने वाले एक कुलपति ने तो तबाही मचा दी है...डेली वेजेज की कर्मचारियों की पोस्टिंग भी गांधीजी के बिना नहीं करते।

संघ-कांग्रेस का कॉकटेल

कुलपतियों की नियुक्ति में अब कोई विचाराधारा नहीं रह गया है। संघ के हैं या कांग्रेस के, बिना सूटकेस कुछ नहीं होने वाला। यह बाती छिपी नहीं है कि पिछली कांग्रेस सरकार में एक संघ परिवार के प्रोफेसर ने कैसे कुलपति की कुर्सी जुगाड़ी। उनके लिए संघ वालों ने प्रयास किया तो कांग्रेस के लोगों ने भी लॉबिंग की। ये तो हुआ एप्रोच। मगर सिर्फ इससे काम नहीं चलने वाला...जमाना बदल गया है। एप्रोच तो पहुंच और बात आगे बढ़ाने के लिए है...सूटकेस मस्ट है। संघ-कांग्रेस के एप्रोच वाले प्रोफसर साब ने बाजार से ब्याज पर पैसा लिया था। प्राध्यापकों की नियुक्तियां कर अब वे पैसे लौटा रहे हैं।

अंत में दो सवाल आपसे

1. क्या ये सही है कि कांग्रेस की जगह भाजपा के कुछ असंतुष्ट नेता ही विपक्ष का रोल निभा रहे हैं?

2. छंटनी होने की अभी दूर-दूर तक कोई खबर नहीं, फिर एक मंत्री का बंगला सूनसान क्यों रहने लगा है?

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