शनिवार, 1 फ़रवरी 2025

Chhattisgarh Tarkash 2025: पार्टनरशिप, धोखा और मौत

 तरकश, 2 फरवरी 2024

संजय के. दीक्षित

पार्टनरशिप, घोखा और मौत

सीजीएमएससी के अरबपति सप्लायर के करिश्माई प्रोग्रेस को जानकार आप हैरान रह जाएंगे। एक दशक पहले तक वह बस्तर में लकड़ी ढुलाई का काम करता था। उस दौरान वहां पोस्टेड एक आईएफएस अधिकारी के संपर्क में आया और वह उसके लिए टनिंग प्वाइंट साबित हुआ।

अफसर के संरक्षण में पहले उसने बांस का खेला शुरू किया। जंगल विभाग के अच्छे बांसों को रिजेक्टेड बांस के रूप में खरीदता और उसे चार गुना रेट में बाजार में बेच देता। कुछ दिन बाद आईएफएस ने उपर सेटिंग करके रायपुर स्थित कारपोरेशन में अपनी पोस्टिंग करा ली। चूकि दोनों में ट्यूनिंग बैठ गई थी, इसलिए अफसर ने सीजीएमएससी में आरोपी सप्लायर का रजिस्ट्रेशन करा दिया।

इसके बाद संगठित लूट का सिलसिला चालू हो गया। पता चला है, सप्लायर ने दो-तीन कंपनियों में अफसर को पार्टनर बना लिया और उनका कमीशन उसमें लगा देता था। 2018 के एंड में कुछ आरटीआई वालों को इस घपले की भनक लग गई, वे जानकारियां निकालने लगे। इससे अफसर बेहद परेशान हो उठे...कुछ महीने बाद ब्रेन हैम्ब्रेज से उनकी मौत हो गई।

उनके जाने के साथ ही अफसर का करीब 70-75 खोखा डूब गया, जिसे उन्होंने आरोपी सप्लायर की कंपनी में लगाया था। सप्लायर ने सिर्फ इतनी हमदर्दी दिखाई कि अफसर के एक बेहद निकट परिजन की शादी का खर्चा उठाया और एक करीबी परिजन को फ्लैट खरीदकर दे दिया। चूकि अफसर अब इस दुनिया में नहीं, इसलिए इससे अधिक कुछ लिखना मुनासिब नहीं होगा।

आईएएस का साला बेईमान

पीएससी के एक बड़े पोस्ट पर काम कर चुके रिटायर अफसर सरगुजा में पोस्टिंग के दौरान बड़े स्तर पर जमीनों की खरीदी की थी। चूकि सरकारी अधिकारी थे, सो अपने नाम पर खरीदते तो फंस जाते, इसलिए साले के नाम पर जमीनों की रजिस्ट्री कराई।

अफसर जब आईएएस से रिटायर हुए तो उन्होंने साले से कहा कि जमीनों को मेरे नाम पर रजिस्ट्री कर दें। मगर साले के मन में खोट आ गया था, उसने जमीनें देने से साफ इंकार कर दिया। अफसर ने सरगुजा के कलेक्टर, आईजी लेवल के अफसरों से बड़ी चिरौरी की, साले को चमकाकर जमीन वापिस करा दें मगर बात बनी नहीं। अब जीजा और साला दोनों सलाखों के पीछे पहुंच चुके हैं।

साले ने जीजा से बेईमानी की, उपर से उनकी आड़ में बेरोजगारों को नौकरी दिलाने कई करोड़ वसूल लिया। बहरहाल, ये तो एक बानगी है...भ्रष्टाचार से अर्जित 50 परसेंट से अधिक संपत्तियों का यही हश्र होता है। धन के भूख में अफसर और नेता नौकर-चाकर, ड्राईवर, नाते-रिश्तेदारों के नाम पर संपत्तियों का पिरामिड खड़ा करते रहते हैं, मगर बाद में उन्हीं के लोग अंगूठा दिखा देते हैं। ऐसी अर्जित संपत्तियों को लास्ट में कोई भोगने वाला नहीं होता या फिर घर-परिवार वालों के बीच झगड़ा-फसाद का जड़ बनता है।

हमनाम का चक्कर

राज्य सरकार ने यशवंत कुमार की जगह आईएएस सीआर प्रसन्ना को राजभवन का नया सचिव अपाइंट किया है। बताते हैं, सरकार ने राजभवन से पेनल भेजा था, उसमें प्रसन्ना का नाम शामिल था। वहां किसी ने प्रसन्ना के बारे में पूछा तो एक व्यक्ति ने तपाक से कह दिया...ठीक है।

प्रसन्ना हायर एजुकेशन सिकरेट्री हैं, इस लिहाज से भी उनका राजभवन में रहना अच्छा होगा...आखिर, राज्यपाल विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति भी होते हैं। प्रसन्ना के नाम को हरी झंडी का मैसेज उपर चला गया और शाम तक राजभवन के नए सिकरेट्री की पोस्टिंग भी हो गई। मगर जब पोस्टिंग आदेश निकला तो लोग चौंक गए...लोगों के मुंह से बरबस निकल पड़ा...ये क्या हुआ।

दरअसल, छत्तीसगढ़ में प्रसन्ना नाम के दो आईएएस हैं। एक सीनियर प्रसन्ना और दूसरा जूनियर प्रसन्ना। सीनियर का नाम आर प्रसन्ना है, वे 2004 बैच के आईएएस हैं। और जूनियर का नाम सीआर प्रसन्ना है। ये 2006 बैच के आईएएस हैं। आर प्रसन्ना सिकरेट्री हायर एजुकेशन हैं। इसे कहते हैं हमनाम का चक्कर। राजभवन जाना किसी को था और चला कोई गया। हालांकि, ये नाम के धोखे में हुआ या कोई बात होगी, जीएडी बेहतर बता पाएगा।

नाम टेंट-कुर्सी, खेल 100 करोड़ का

फायनेंस के अफसर पाई-पाई जोड़कर राज्य का खर्चा चला रहे हैं, ऐसे में टेंट, कुर्सी के नाम पर पीडब्लूडी के अफसर साल में 100 करोड़ का चूना लगा दें, तो इसे आप क्या कहेंगे। सरकारी कार्यक्रमों, मंत्रियों के दौरे के नाम पर टेंट, कुर्सी का यह खेला पिछले कई बरसों से बदस्तूर चल रहा है।

ओवर बिलिंग के इस खेल में 80 परसेंट हिस्सा उपर के अधिकारियों को जाता है। टेंट वालों को मिलता है सिर्फ 20 परसेंट। इस 20 परसेंट में भी कई टेंट वाले करोड़ों में खेल रहे तो इससे आप समझ सकते हैं कि ओवर बिलिंग का लेवल कितना हाई होगा। दरअसल, छत्तीसगढ़ के रग-रग में भ्रष्टाचार समा गया है।

आखिर सीजीएमएससी को छह महीने पहले तक कौन जानता था, कि वहां के सप्लायर पांच-सात साल में 50 लाख से एक हजार करोड़ का आसामी बन गया। पीडब्लूडी के टेंट-कुर्सी का खेला भी इसी तरह से दबा हुआ था। 80 परसेंट कमीशन मिलता है, इसलिए अफसर भी चाहते हैं कि जितना अधिक बिल बनेगा, उनका हिस्सा उतना बढ़ेगा।

फायनेंस अधिकारियों को एक बार इस टेंट, कुर्सी के खेला की तरफ भी देखना चाहिए। क्योंकि, इसमें खजाने को बड़ा बट्टा लगाया जा रहा है। पीडब्ल्ूडी के बड़े अफसरों से लेकर जिले के कलेक्टरों तक को इसका हिस्सा जाता है। सरकारी और वीआईपी कार्यक्रमों के लिए आखिर खर्च की कोई लिमिट तो तय होनी चाहिए न। फिर वाजिब खर्च में किसी को कोई एतराज नहीं होगा। यदि अफसरों को 80 परसेंट हिस्सा पहुंचाने के लिए बिलिंग की जा रही तो ये गलत है।

करप्शन का ट्रैक्टर

आमतौर पर पीडब्लूडी, इरीगेशन, आबकारी और फॉरेस्ट को कमाई वाला विभाग माना जाता है मगर छत्तीसगढ़ में लेबर वेलफेयर से लेकर एग्रीकल्चर में भी अफसर मालामाला हो रहे हैं। छत्तीसगढ़ में हाथकरघा विभाग में भी हाथ साफ करने के उदाहरण रहे हैं।

असल में, अफसर इतने हुनरमंद हैं, कि उन्हें आप खराब-से-खराब विभाग में भेज दीजिए, वे गागर में सागर पैदा कर देंगे। बहरहाल, अभी बात किसानों के ट्रैक्टर की सब्सिडी की। भारत सरकार ट्रैक्टर खरीदने पर किसानों को फिफ्टी परसेंट सब्सिडी देती है। इसके लिए एग्रीकल्चर के चेम्स पोर्टल में ऑनलाइन अप्लाई करना पड़ता है।

हमारे एक करीबी रायपुर के एक डीलर के पास टै्रक्टर खरीदने पहुंचे। डीलर ने रेट बताया आठ लाख। आठ लाख का उसने कोटेशन भी दे दिया। उन्होंने जैसे ही यह कहा कि वे चेम्स पोर्टल से खरीदना चाहते हैं, डीलर ने दो लाख रेट बढ़ाकर 10 कर दिया। क्योंकि, चेम्स में मैनुफैक्चरर सप्लाई रेट 10 लाख है।

अब आप भी हैरान होंगे कि सेम कंपनी का मैनुफैक्चरर रेट 10 लाख और उसी कंपनी का सेम मॉडल 8 लाख में कैसे? तो इसका जवाब यह है कि छत्तीसगढ़ में हर साल चेम्स पोर्टल से 400 के करीब किसानों द्वारा ट्रैक्टर खरीदी जाती है। उपर का दो लाख रुपए चेम्स के अफसरों के पास पहुंच जाता है।

यानी साल का आठ करोड़। ये तो सिर्फ एक ट्रैक्टर का मद है। कृषि में मशीनों से लेकर बीज, कीटनाशक और फर्टिलाइजर का करोड़ों का बजट होता है। सरकारें किसानों की हितैषी होने का ढिढोरा पिटती रहती हैं, उधर अफसर उनकी जेब काटते रहते हैं।

ट्रैक्टर अगर बाजार रेट से आठ लाख में मिलता तो किसानों को चार लाख ही जेब से लगता। बाकी का चार लाख सब्सिडी हो जाती। बता दें, दिसंबर 2024 में शपथ लेने के बाद मंत्री रामविचार नेताम से अफसरों ने सबसे पहली फाइल चेम्स पोर्टल से खरीदी की कराई थी।

अंत में दो सवाल आपसे

1. क्या ये सही है...जिस तरह पुलिस में ट्रांसपोर्ट की पोस्टिंग के लिए बोली लगती है, उसी तरह सीजीएमएसी में इंजीनियरों के डेपुटेशन के लिए बड़ी बोली लगती है?

2. कांग्रेस शासन काल में लंबे समय तक पीडब्लूडी के ईएनसी रहे अफसर को फिर से ईएनसी के लिए दांव क्यों लगाया गया है?


Chhattisgarh Tarkash 2025: इनोवा वाले साब, 180 करोड़ की बचत

 तरकश, 26 जनवरी 2024

संजय के. दीक्षित

इनोवा वाले साब, 180 करोड़ की बचत

निलंबन बहाली से पहले ही इनोवा गाड़ी की डिमांड करने वाले आईएएस अफसर को जीएडी ने न केवल बहाल कर दिया बल्कि दो-दो पोस्टिंग से नवाज दिया। कोई नहीं...सिस्टम की अपनी मजबूरियां होती हैं। आखिर, इसी सिस्टम ने जिलों में पुलिस की किराये पर चलने वाली इनोवा गाड़ियों पर अपनी भृकुटी चढ़ाई और अब आलम यह है कि जिले के पुलिस अधीक्षकों को दो तिहाई से अधिक किराये की इनोवा को हटाना पड़ गया। सबसे अधिक गोलमाल कवर्धा और राजनांदगांव में था। कवर्धा में रोज आठ-से-दस इनोवा हायर की जाती थी। बिलिंग प्रति गाड़ी 80 हजार से लेकर एक लाख रुपए तक। मगर अब दो-से-तीन गाड़ियां किराये की ली जा रही हैं। इसी तरह अन्य जिलों में भी आधे से अधिक किराये की गाड़ियों को वापिस कर दिया गया है। एसपी और आरआई ने साफ कह दिया है...अब संभव नहीं। बहती गंगा में हाथ धोने कई पुलिस वाले ही ट्रेवल्स कंपनी खोल लिए थे, इससे उन्हें भारी फटका लगा है। बहरहाल, तरकश की खबर और वित्त महकमा एवं पीएचक्यू की सख्ती से छत्तीसगढ़ के खजाने को हर महीने करीब 15 करोड़ की बचत होगी। याने साल का 180 करोड़। कुछ ईमानदार टाईप एसपी मानते हैं कि थोड़ा सा सिस्टम टाईट हो जाए, तो 50 करोड़ रुपए और बच सकता है। इसमें अभी और अंकुश लगाई जा सकती है। मसलन, जिन नेताओं को जरूरत नहीं, एसपी साब लोग उन्हें खुश रखने फॉलोगार्ड मुहैया करा देते हैं।

कौवा मारकर टांगना

सिस्टम की कसावट के लिए टाईमिंग को मेंटेन करना अच्छा कदम है। मगर सिस्टम की गड़बड़ियों को ठीक करने सरकार को अभी कई और कदम उठाने होंगे। छत्तीसगढ़ में अभी कई चीजें ऐसी हो रही हैं, जिनमें कोई संज्ञान नहीं लिया जा रहा। आदिवासी मुख्यमंत्री, आदिवासी संगठन मंत्री होने के बाद भी आदिवासियों की जमीनें हड़पी जा रही हैं, मगर इस पर रोक लगाने अफसरों का ध्यान नहीं है। विदित है, एक कलेक्टर ने आदिवासी जमीन के मामले में लिख कर दे दिया कि इसमें कलेक्टर की अनुमति की जरूरत नहीं। बाद में बवाल मचा तो रजिस्ट्री अधिकारी को सस्पेंड करा दिया। फिर चोरी पकड़ी गई तो रजिस्ट्री अधिकारी को बहाल किया गया। इस मसले में अभी तक किसी को नोटिस तक इश्यू नहीं हुई। आईपीएस लोग रिसोर्ट में शराब पार्टी करें...हंगामा हो, इसमें भी अभी तक कुछ नहीं हुआ। ऐसे ढेरों मामले हैं, जिसमें लोगों की टिप्पणियां सुनने में आ रही कि कुछ बदला नहीं। आखिर सीजीएमससी की ईओडब्लू जांच में ब्रेकर क्यों लगाया जा रहा है...सवाल तो है। जवाब है, सरकार को कौवा मारकर लटकाना पड़ेगा। अमरेश मिश्रा को फ्री हैंड देदीजिए...देखिए फिर करप्शन काबू में कैसे नहीं आता है।

करप्शन कारपोरेशन

छत्तीसगढ़ के सरकारी अस्पतालों के लिए दवाइयां और उपकरण खरीदने वाले सीजीएमससी को सरकार ने अब टाईट करना शुरू कर दिया है। हेल्थ सिकरेट्री और डायरेक्टर हेल्थ अब खुद सीजीएमएससी की निगरानी कर रहे हैं। बल्कि पता तो ये भी चला है कि 50 लाख की पूंजी से दस साल में 500 करोड़ के आसामी बने पिता-पुत्र की भी अब शामत आने वाली है। अफसरों ने उनकी कंपनियों के टॉप के एग्जीक्यूटिव को रायपुर बुलाकर हड़काया है...काम करना है तो डिस्ट्रीब्यूटर्स बदल लो। बताते हैं, दवा कारपोरेशन को करप्शन कारपोरेशन बनाने में छत्तीसगढ़ के पिता-पुत्र की भूमिका सबसे अहम रही। एकाध को छोड़ दें तो अधिकांश एमडी और जीएम फायनेंस तथा जीएम टेक्नीकल पिता-पुत्र ही अपाइंट कराते थे। एमडी कार्तिकेय गोयल ने जब नियम-कायदों का शिकंजा कसा तो हाई कोर्ट में दो दर्जन से अधिक केस लगवा दिया। अगर इसकी सक्षम एजेंसी से जांच हो जाए, तो छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा घोटाला निकलेगा।

IFS अफसर का करनामा

सीजीएमससी के फाउंडर एमडी आईएफएस प्रताप सिंह रहे। उत्तराखंड से ताल्लुकात रखने वाले प्रताप ने सरकार के भरोसे पर खरा उतरते हुए ईमानदारीपूर्वक सीजीएमएससी की नींव रखी। इसके बाद 2014 तक सब ठीकठाक चलता रहा। 2014 में सरकार ने अविनाश चंपावत को हटाकर एक दक्षिण भाषी आईएफएस अफसर को एमडी बना दिया। यही से सीजीएमससी करप्शन कारपोरेशन में ट्रांसफर्म होना प्रारंभ हुआ। आईएफएस ने बस्तर में पोस्टिंग के दौरान ट्रांसपोर्ट का काम करने वाले ठेकेदार को सीजीएमससी में रजिस्टर्ड कराया और फिर ऐसा खेला किया कि खुद भी करोड़ों की मिल्कियत बनाई और सप्लायर की हैसियत आज ऐसी हो गई है कि किसी नेता या अफसर से मिलने जाता है तो दो खोखा छोड़कर आ जाता है। याने लक्ष्मीजी के जरिये विश्वास जीतने का नायाब नमूना। सरकार के एक जिम्मेदार पद पर बैठे नेता इसी चक्कर में बड़ी बदनामी मोल ले बैठे।

मंत्रिमंडल का विस्तार

विष्णुदेव साय कैबिनेट का विस्तार अब लंबे समय के लिए टल गया है। नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव जैसे ही समाप्त होगा, 27 फरवरी से विधानसभा का बजट सत्र प्रारंभ हो जाएगा। इसके बाद होली आ जाएगी। होली के हफ्ता भर बाद तक सत्र चलेगा। यानी करीब 25 मार्च तक। इसके बाद अप्रैल आ जाएगा। बीजेपी के बड़े लीडर भी मानते हैं कि अप्रैल से पहले अब कैबिनेट का विस्तार मुमकिन नहीं। अप्रैल में भी तभी...जब केंद्रीय नेतृत्व इसे सीरियसली ले। वरना, नए मंत्रियों के नाम पर शह-मात का ऐसा खेल चल रहा कि उसे क्लियर नहीं किया गया तो मंत्रियों का शपथ मुमकिन नहीं।

दावेदारों की जेबकटी

विष्णुदेव साय कैबिनेट में मंत्री दो ही बनेंगे मगर नए-पुराने मिलाकर दावेदारों में चार-से-पांच विधायक तो हैं ही। मंत्रिमंडल विस्तार जैसे-जसे आगे खिंचता जा रहा है...इन बेचारों की हालत खराब है...नया जैकेट सिलवाकर बैठे-बैठे आंखें पथरा गई है। जब भी शपथ का शुभ योग बनता दिखता है, राहू-केतु बीच में आ जाते हैं। उपर से चंदा मांगने वाले प्राण खा रहे...गणेश और दुर्गापूजा में कई लाख निकल गए। नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव में अब जेब कटने वाली है। मेयर और अध्यक्ष को कौन पूछे, पार्षद की टिकिट मिलने से पहले कार्यकर्ता पहुंचने लगे हैं...भाई साब कुछ करा देते। अपने इलाके में बेहतर पारफर्मेंस का तनाव है सो अलग। आखिर, मेयर कंडिडेट का रिजल्ट गड़बड़ाया तो उसका ठीकरा बड़े नेताओं पर फूटेगा। इतना खर्चा के बाद भी मंत्री पद मिलेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं। क्योंकि, बीजेपी में कब क्या हो जाए, बड़े-बड़े नेताओं को भी मालूम नहीं रहता।

भाभियों को फ्री का पगार

अफसरों की पत्नियां नौकरी करती हैं तो इसमें कोई दिक्कत नहीं। काम करने का सबको अधिकार है। मगर वर्किंग कल्चर बनाने के तहत विष्णुदेव सरकार ने टाईमिंग पर सिस्टम को कसना प्रारंभ किया है तो ये बात भी उठने लगी है कि अफसरों की पत्नियों को भी टाईम को फॉलो करते हुए रोज आफिस जाना चाहिए। सरकार की नोटिस में ये बात आई है कि कई अफसरों की डॉक्टर या असिस्टेंट प्रोफेसर पत्नियां बिना आफिस आए हर महीने पगार उठा रही हैं। खासकर, जिलों में तो और बुरा हाल है। सैयां भए कोतवाल तो फिर किसकी हिम्मत है कि वो टोक दें। न कालेजों के प्रिंसिपल बोल पाते और न ही अस्पतालों के मेडिकल सुपरिटेंडेंट। आलम यह है कि बस्तर में पोस्टेड रहे अधिकारियों की पत्नियां कागजों में अभी भी वहां के अस्पतालों में काम कर वेतन उठा रही हैं। सरकार से पद स्वीकृत कराने का लफड़ा भी नहीं रहता। कलेक्टर साब लोग डीएमएफ में भाभियों के लिए पद का सृजन कर देते हैं और बिना काम की तनख्वाह भी एकाउंट में चला आता है। मगर वक्त अब दूसरा है। जैसे ही महीना बीतने को आता है, राज्य के फाइनेंस सिकरेट्री की रात की नींद उड़ने लगती है। छत्तीसगढ़ के चार लाख कर्मचारियों, अधिकारियों के लिए 2500 करोड़ सेलरी का इंतजाम। उपर से महतारी वंदन के लिए 700 करोड़। याने दो-तीन तारीख तक 3200 करोड़ चाहिए ही चाहिए। ऐसे में, कोई फोकट में वेतन लेगा तो जाहिर है, मेहनत करने वाले को अखरेगा ही। बहरहाल, अफसरों की पत्नियों की जमीर जागनी चाहिए। फ्री का पैसा आखिर क्यों? हूनर है तो उसका उपयोग करें...मेहनत के पैसे में बरकत भी होता है।

खेल में खेला

छत्तीसगढ़ के खेल विभाग के हरफ़ानमौला खिलाडी दूसरे के पैसे से भी करतब दिखा दे रहे हैं. बस्तर ओलम्पिक क़े लिए गृह विभाग ने पैसा दिया था. बस्तर क़े कलेक्टर ने इसके लिए एक करोड़ तीन करोड़ का टेंडर किया था. मगर खेल विभाग क़े अफसरों को यह रास नहीं आया. आख़िरकार, कलेक्टर को टेंडर निरस्त करना पड़ा. उसी सामग्री को खेल अधिकारियों ने तीगुने रेट पर दो करोड़ 95 लाख में ख़रीदा. याने खेल में खेला हो गया.

अंत में दो सवाल आपसे

1. क्या रिटायरमेंट के साल में अफसरों को गोलमाल करने वाली पोस्टिंग देनी चाहिए?

2. सुबह से कैलकुलेटर लेकर बैठ जाने वाले किस कलेक्टर को सरकार चुनाव बाद खो करने सोच रही हैं?