11 नवंबर
छत्तीसगढ़ में जातिवादी राजनीति के लिए कभी कोई स्पेस नहीं रहा। मध्यप्रदेश के समय भी यहां दो ही पार्टियों का वर्चस्व रहा। कांग्रेस और भाजपा। दोनों पार्टियां अपने मेनिफेस्टो पर वोट मांगती थी। 2003 में कांग्रेस ने जरूर जातिवादी कार्ड को चलने की कोशिश की लेकिन, यहां की जनता ने उसे सिरे से खारिज कर दिया। लेकिन, चौथे विधानसभा चुनाव में कुछ राजनीतिक पार्टियां जातिवाद को उभारकर चुनावी वैतरणी पार करने का प्रयास कर रही हैं, वह छत्तीसगढ के लिए शुभ संकेत नहीं है। आखिर, यूपी, बिहार के पिछड़ने की मूल वजह जातिवादी राजनीति ही रही है। हालांकि, ये अच्छी बात है कि छत्तीसगढ़ के लोग जाति और धर्म का चश्मा पहनकर वोट डालने नहीं जाते। वरना, स्वाभिमान मंच का शटर नहीं गिरता। दरअसल, जब राजनीतिक प्रत्याशियों के पास जब मुद्दों का टोटा हो जाता है, तो फिर इस तरह की बांटने वाली राजनीति शुरू हो जाती है। विस्मय यह कि जातिवाद के तवे पर रोटी सेंकने में कोई भी पार्टी पीछे नहीं रहती।
छत्तीसगढ़ में जातिवादी राजनीति के लिए कभी कोई स्पेस नहीं रहा। मध्यप्रदेश के समय भी यहां दो ही पार्टियों का वर्चस्व रहा। कांग्रेस और भाजपा। दोनों पार्टियां अपने मेनिफेस्टो पर वोट मांगती थी। 2003 में कांग्रेस ने जरूर जातिवादी कार्ड को चलने की कोशिश की लेकिन, यहां की जनता ने उसे सिरे से खारिज कर दिया। लेकिन, चौथे विधानसभा चुनाव में कुछ राजनीतिक पार्टियां जातिवाद को उभारकर चुनावी वैतरणी पार करने का प्रयास कर रही हैं, वह छत्तीसगढ के लिए शुभ संकेत नहीं है। आखिर, यूपी, बिहार के पिछड़ने की मूल वजह जातिवादी राजनीति ही रही है। हालांकि, ये अच्छी बात है कि छत्तीसगढ़ के लोग जाति और धर्म का चश्मा पहनकर वोट डालने नहीं जाते। वरना, स्वाभिमान मंच का शटर नहीं गिरता। दरअसल, जब राजनीतिक प्रत्याशियों के पास जब मुद्दों का टोटा हो जाता है, तो फिर इस तरह की बांटने वाली राजनीति शुरू हो जाती है। विस्मय यह कि जातिवाद के तवे पर रोटी सेंकने में कोई भी पार्टी पीछे नहीं रहती।
सीटों का गुणाभाग
चुनाव के समय नौकरशाहों के पास कोई काम नहीं होता। चुनाव में ड्यूटी लगती नहीं। उपर से आफिस में बैठने की मजबूरी। मुख्यालय जो नहीं छोड़ना है। ऐसे में, करें क्या? नोटपैड पर सीटों के गुणाभाग में समय व्यतीत कर रहे हैं। जिन अफसरों की बीजेपी से कंफर्टनेस है, वे इसी सरकार को रिपीट करने के हिसाब से उसे सीट दे रहे हैं और जो अनकंफर्टनेस महसूस करते हैं, वे संख्याबल में कांग्रेस को उपर कर दे रहे हैं। हालांकि, कुछ दिन पहले तक हंड्रेड परसेंट नौकरशाह इसी सरकार को रिपीट होते देखना चाह रहे थे। लेकिन, सीडी कांड के बाद एक कांग्रेस नेता का खौफ अफसरों पर से हट गया है। लिहाजा, स्थितियां कुछ बदली है।
कोरबा और तानाखार
कोरबा और तानाखार ऐसी सीट हैं, जहां जिस पार्टी के विधायक बनते हैं, उस पार्टी की सरकार नहीं बनती। तानाखार में 15 साल से कांग्रेस के विधायक थे और सरकार रही बीजेपी की। उससे पहिले गोंडवाना पार्टी से हीरा सिंह मरकाम एमएलए रहे और सरकार रही कांग्रेस की। कोरबा का मामला भी कुछ इसी तरह का है। 2008 में कटघोरा से अलग होकर कोरबा विधानसभा बना था। तब से कांग्रेस के जय सिंह विधायक हैं। उससे पहिले कटघोरा में बोधराम कंवर विधायक थे तो बीजेपी की सरकार रही। कंवर से पहले बनवारी लाल अग्रवाल कटघोरा से विधायक चुने गए और सरकार बनी कांग्रेस की। हालांकि, कई बार मिथक टूटते भी हैं। मसलन, कोरबा जिले का ही रामपुर सीट के बारे में कहा जाता था कि जो वहां का विधायक बनता है, राज्य में उस पार्टी की सरकार बनती है। हालांकि, पिछले बार इसमें ब्रेक लग गया। ननकीराम कंवर वहां से चुनाव हार गए।
भाईचारा!
निर्वाचन आयोग ने कलेक्टरों का चुनावी ज्ञान परखने के लिए परीक्षा आयोजित की तो उसमें सारे डायरेक्ट आईएएस बनें कलेक्टरों को ऐन-केन-प्रकारेण पास कर दिया गया। फेल हुए सिर्फ तीन प्रमोटी कलेक्टर। इसी तरह कौवा मारकर लटकाने की बारी आई तो चुनाव आयोग ने आबकारी विभाग के सिकरेट्री डीडी सिंह की छुट्टी कर दी। छत्तीसगढ़ बनने के बाद तीन विधानसभा और तीन लोकसभा चुनाव हुए हैं, लेकिन, कभी किसी सचिव पर कार्रवाई नहीं हुई। हर चुनाव में दो-एक कलेक्टर, एसपी नपे। ये पहला मौका है कि आयोग ने सचिव को हटाया। वो भी प्रमोटी। कहीं भाईचारा तो नहीं निभाई जा रही।
गजब की वसूली
कहते हैं, पैसा कमाने वाले समुद्र की लहरें गिनकर भी पैसा कमा लेते हैं। छत्तीसगढ़ के नौकरशाहों का भी इस मामले में जवाब नहीं है। चुनाव आयोग ने तीन साल से जमे अधिकारियों को हटाने का आदेश दिया तो मंत्रालय के अफसरों की लाटरी लग गई। मलाईदार पदों पर तीन साल से अधिक समय से बैठे अफसरों से ट्रांसफर के नाम पर जमकर खेल किया गया। जिनने गुलाबी नोट पहुंचा दिया वे बच गए, बाकी नप गए। कुछ विभागों ने अपनों को बचाने के लिए जीएडी को लिखकर भेज दिया कि हमारे अफसरों की निर्वाचन में ड्यूटी नहीं लगती। जीएडी का तो भगवान ही मालिक है। उसने चेक भी नहीं किया और ओके कर दिया। जीएडी या सीईओ सुब्रत साहू एक बार चेक करवा लें कि पंजीयन विभाग में कितने तीन साल वालों के ट्रांसफर हुए हैं और उसने जीएडी को क्या लिखकर भेजा था। सारा माजरा सामने आ जाएगा।
सरकार में गोल?
भाजपा की सरकार है, और सरकार के ही अफसर। फिर भी सबसे अधिक सामान बीजेपी प्रत्याशियों के ही जब्त किए जा रहे हैं। नेता भी चकित हैं तो प्रत्याशी भी पार्टी आफिस में दुखड़ा रो रहे हैं। दरअसल, चुनाव आयोग के कुछ आब्जर्बर काफी टफ आ गए हैं। एक वीआईपी डिस्ट्रिक्ट के कलेक्टर को तो प्रेक्षक ने भरी मीटिंग में निगेटिव कमेंट कर दिया। हालांकि, कुछ कलेक्टर, एसपी भी चतुराई भरा रोल अदा कर रहे हैं। पता चला है, ऐसे अफसरों को सरकार चुपचाप वॉच कर रही है।
अंत में दो सवाल आपसे
1. पीएल पुनिया, भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव जगदलपुर से एक ही गाड़ी से रायपुर लौटे, क्या तीनों में सुलह हो गई है क्या?
2. किस मंत्री को निबटाने के लिए बीजेपी की एक महिला नेत्री ने कांग्रेस के एक नेता से हाथ मिला लिया हैं?
2. किस मंत्री को निबटाने के लिए बीजेपी की एक महिला नेत्री ने कांग्रेस के एक नेता से हाथ मिला लिया हैं?