शनिवार, 2 दिसंबर 2023

Chhattisgarh Tarkash: आपकी भी जय-जय, आपकी भी...

 तरकश, 3 दिसंबर 2023

संजय के. दीक्षित

आपकी भी जय-जय, आपकी भी...

सर्वे एजेंसियों ने अबकी गजब का कमाल किया है। सिर्फ एक अल्पज्ञात एजेंसी ने एक फिक्स संख्या कोट किया। बाकी में 10-10 सीटों का मार्जिन। मसलन कांग्रेस 45 से 55, तो बीजेपी 35 से 45। किसी ने बीजेपी को दिया 33 से 46 तो किसी ने कांग्रेस को 47 से 57। 90 विधानसभा सीटों के सर्वे में अगर 10-10 सीटों का अंतर आ रहा तो समझ सकते हैं कि सर्वे किस अंदाज और फर्मेट में हुआ होगा। सर्वे देखकर लगता है, आपकी भी जय-जय, आपकी भी जय-जय। तभी सीएम भूपेश बघेल ने भी कहा कि सर्वे से कहीं अधिक सीटें हमारी आएगी तो पूर्व सीएम रमन सिंह ने भी यही दावे किए। हमने इसी तरकश में लिखा था कि सर्वे एजेंसियां वोटरों के साइलेंट रहने से परेशान हैं। सर्वे में यह कंफ्यूजन साफ झलक रहा। जिस तरह अंडर करंट रहा, उससे प्रतीत होता है कि जिस पार्टी की भी सरकार आएगी, उसे ठीकठाक बहुमत मिलेगा।

5 गुलदस्ते की कहानी

2018 के विधानसभा चुनाव के दौरान परिवर्तन की हवा तो थी मगर छत्तीसगढ़ की ब्यूरोक्रेसी समेत नामचीन लोगों को लगता था कि बीजेपी किसी तरह सरकार बना लेगी। बावजूद इसके, अधिकांश अधिकारियों ने काउंटिंग के रोज पांच बड़ा गुलदस्ता तैयार करवाया था। एक वर्तमान मुख्यमंत्री के लिए और कहीं बाजी पलटी तो फिर कांग्रेस के चार नेताओं के लिए। दरअसल, उस समय तक तय नहीं था कि कांग्रेस में जीत का सेहरा किसके सिर बंधेगा। सो, भूपेश बघेल, टीएस सिंहदेव, चरणदास महंत और ताम्रध्वज साहू...चारों खेमों के अपने दावे थे...संभावनाएं थीं। पीसीसी चीफ के नाते भूपेश की तगड़ी दावेदारी थी तो टीएस सिंहदेव का भी अपना दावा था। ताम्रध्वज पार्टी के इकलौते सांसद थे, सो संभावनाएं उनकी भी कम न थी। महंत की किस्मत पर अत्यधिक भरोसा करने वाले लोगों में परसेप्शन था कि कका और बाबा में कुर्सी को लेकर कोई झंझट हुआ तो सिकहर टूट सकता है। यही वजह रही कि काउंटिंग का रुझान समझ में आते ही इन चारों नेताओं के बंगलों पर भीड़ उमड़ पड़ी। आलम यह था कि राजधानी के वही अफसर, वही चंद चेहरे इन चारों बंगले पर बार-बार टकरा रहे थे। हालांकि, इस बार रुलिंग पार्टी के साथ ये दिक्कत नहीं है। कांग्रेस अगर जीती तो सीएम हाउस। और अगर बीजेपी जीती तो...? एक ब्यूरोक्रेट्स ने चुटकी ली...बीजेपी में कोई फेस है नहीं...रमन सिंह को प्रतिकात्मक मान उन्हें ही गुलदस्ता दे आएंगे।

ताम्रध्वज की चूक

याद कीजिए...2018 का दिसंबर महीना। 13 दिसंबर को नतीजे आने के बाद सीएम की कुर्सी को लेकर दिल्ली में सियासत कैसी गरमाई थी। सबसे लास्ट में छत्तीसगढ़ का फैसला हो पाया। बताते हैं, सांसद होने की वजह से राहुल गांधी ने सीएम के लिए ताम्रध्वज के नाम को ओके कर दिया था। मगर उन्हें कहा गया कि अधिकारिक ऐलान तक इस बारे में कोई बात नहीं करनी है। मगर किसी तरह ताम्रध्वज के परिजनों तक भिलाई बात पहुंच गई और लगे फटाके फूटने। इसी के बाद मामला यूटर्न ले लिया। उसी के बाद भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव खुलकर सामने आए। फिर बंद कमरे में बातें शुरू हुई और फिर भूपेश बघेल के नाम का ऐलान हो गया। सियासी प्रेक्षक मानते हैं कि ताम्रध्वज को सीएम बनाने की बात अगर लीक नहीं हुई होती तो मामला कुछ और होता।

ब्यूरोक्रेसी में बदलाव

किसी भी स्टेट में नई सरकार के गठन के साथ नौकरशाही में बड़ा बदलाव होता है। मगर सरकारें अगर रिपीट होती हैं तो फिर लिस्ट की साइज छोटी हो जाती है। ऐसा इसलिए कि समझा जाता है उन्हीं अफसरों के बदौलत पार्टी को कामयाबी मिली है। ये अवश्य होता है कि चुनावी आचार संहिता के दौरान अगर-मगर करने वाले अधिकारियों को सरकार बदलते ही उनकी हैसियत का अहसास करा दिया जाता है। ऐसे में, भूपेश बघेल सरकार अगर रिपीट हुई तो जाहिर है, लिस्ट बहुत लंबी नहीं होगी। सबसे पहले उन पांच कलेक्टर, एसपी की फिर से उन्हीं जिलों में पोस्टिंग का आदेश निकलेगा। हालांकि, इसमें एक रिस्क यह भी है कि लोकसभा का ऐलान होते ही फरवरी एंड या मार्च फर्स्ट वीक में फिर से इन अधिकारियों को हटा दिया जाएगा। मगर सरकारें आमतौर पर मैसेज देने के लिए फिर से पोस्टिंग देती है। पिछली सरकार में भी एक कलेक्टर को फिर से लोकसभा चुनाव में हटा दिया गया था। बहरहाल, इन पांच अफसरों के आदेश के बाद फिर, राडार पर आने वाले अधिकारियों का नंबर आएगा। और बीजेपी आई तो...तब तो ब्यूरोक्रेसी का पूरा सीन बदल जाएगा। दिसंबर 2018 में जब कांग्रेस सरकार आई थी, उस समय 28 में से 23 जिलों के कलेक्टर बदल गए थे। पहली लिस्ट में ही 58 अफसरों के नाम थे। सो, ब्यूरोक्रेसी भी दम रोककर 3 तारीख का इंतजार कर रही है।

CS, DGP, PCCF चेंज?

किसी भी प्रदेश में सबसे बड़े स्केल वाले तीन पद होते हैं। चीफ सिकरेट्री, डीजी पुलिस और पीसीसीएफ याने हेड ऑफ फॉरेस्ट। सरकार बदलने पर इन तीनों को आमतौर पर सबसे पहले बदला जाता है। खासतौर से सीएस और डीजीपी को। 2018 में जब कांग्रेस की सरकार बनी तो उसके तीसरे दिन डीजीपी एएन उपध्याय हटा दिए गए। उसके महीने भर बाद चीफ सिकरेट्री अजय सिंह की भी कुर्सी चली गई थी। हालांकि, 2003 में जब बीजेपी की सरकार बनी थी, उस समय एसके मिश्रा सीएस थे और अशोक दरबारी डीजीपी। सरकार ने सीएस को कंटिन्यू किया। दरबारी को बदलना चाहा मगर कोई विकल्प नहीं था। ओपी राठौर जब डेपुटेशन से लौटे तो छह महीने बाद दरबारी को हटाया गया। अब बात इस चुनाव की....इस समय सीएस अमिताभ जैन और डीजीपी अशोक जुनेजा एकदम सेफ मोड में हैं। कांग्रेस की सरकार बनी तो उन्हें हटाने का सवाल ही पैदा नहीं होता और बीजेपी आई तब भी दोनों को कोई खतरा नहीं। क्योंकि, दोनों पर कोई लेवल नहीं चस्पा है और न ही फिलहाल कोई अल्टरनेटिव है। सीएस में अमिताभ के बाद रेणू पिल्ले हैं, और उनसे एक बैच नीचे सुब्रत साहू। दोनों का रिटायरमेंट में चार से पांच साल बचे हैं। अमिताभ का रिटायरमेंट भी 2025 में है। डीजीपी में विकल्प का और टोटा है। जुनेजा 60 साल के हिसाब से इस साल जून में रिटायर हो जाते। मगर पूर्णकालिक डीजी का आदेश उनका सितंबर 2022 में निकला। दो साल के नियम के अनुसार वे अगले साल सितंबर में रिटायर होंगे। हालांकि, सरकार चाहे तो उन्हें हटा सकती है मगर सवाल वहीं, क्यों? जुनेजा से नीचे 90 बैच के राजेश मिश्रा हैं, वे अगले महीने जनवरी में रिटायर हो जाएंगे। उनके बाद पवनदेव और अरुणदेव का नंबर है। मगर दोनों अभी डीजी प्रमोट नहीं हुए हैं। लिहाजा, सीएस, डीजीपी बदलने की कोई संभावनाएं नजर नहीं आती। रही बात पीसीसीएफ श्रीनिवास राव की तो वे बीजेपी में भी ठीक-ठाक पोजिशन में रहे और इस सरकार में भी। सात आईएफएस अफसरों को सुपरसीड करके उन्हें हेड ऑफ फारेस्ट बनाया गया है। इससे उनके रसूख का अंदाजा आप लगा सकते हैं।

अंत में दो सवाल आपसे

1. काउंटिंग को लेकर सरकार के कितने मंत्रियों की धड़कनें बढ़ी हुई हैं?

2. क्या ये सही है कि बीजेपी के एक युवा नेता सर्वाधिक वोटों से जीत दर्ज करने वाले हैं?



मंगलवार, 21 नवंबर 2023

Chhattisgarh Tarkash: परसेप्शन बदला तो क्यों?

 तरकश, 19 नवंबर 2023

संजय के. दीक्षित

परसेप्शन पर सवाल

15 सितंबर तक कांग्रेस एकतरफा जीत रही थी...महीने भर में बीजेपी के प्रति परसेप्शन अचानक बदला कैसे, ये सवाल सियासी समीक्षकों भी मथ रहा है। दरअसल, परसेप्शन चेंज होने की शुरुआत के पीछे दो अहम सियासी घटनाएं हैं। पहली अमित शाह द्वारा मनसुख मांडविया को चुनाव प्रभारी बनाकर रायपुर भेजना और दूसरा भूपेश है तो भरोसा है कि जगह कांग्रेस है तो भरोसा का स्लोगन देना। इसके बाद यकबयक चुनाव से जुड़ी सारी समितियों में कांग्रेस के दूसरे बड़े नेताओं की इंट्री। कांग्रेस पार्टी ने इसके जरिए एकता और सामूहिक नेतृत्व का संदेश देना चाहा, मगर इसको लेकर कई तरह की बातें होने लगी। टिकिट वितरण में भी गुटबाजी साफ झलकी। सियासी प्रेक्षक भी मानते हैं कि गुटों को खुश करने के चक्कर में कांग्रेस ने करीब 10 कमजोर चेहरों पर दांव लगा दिया। दूसरी ओर बीजेपी ने साधी हुई लिस्ट जारी की। एक सूत्रीय एजेंडा...जिताऊ कैंडिडेट। ईसाई समुदाय से दो-दो टिकिट, इसका मतलब समझा जा सकता है। फिर कांग्रेस की बराबरी करते हुए किसानों और मजदूरों को लेकर बड़ी घोषणाएं। प्लस में 70 लाख महिलाओं को 12 हजार सालाना भी। इन्हीं वजहों से परसेप्शन तेजी से टर्न हुआ...बीजेपी टक्कर में आ गई। परसेप्शन अब वोटों में कितना तब्दील हुआ या परसेपशन ही रह जाएगा, ये 3 दिसंबर को पता चलेगा।

टक्कर नहीं, स्पष्ट बहुमत

नेशनल मीडिया और सर्वे एजेंसियों के नुमाइंदे छत्तीसगढ़ में इस बात को लेकर परेशान रहते हैं कि यहां के लोग प्रत्याशियों को लेकर खुलकर बात नहीं करते। इससे वोटिंग के ट्रेंड का सही अनुमान लगा पाना कठिन हो जाता है। 2018 के इलेक्शन में आखिर किस एजेंसी ने बताया कि 15 साल सत्ता में रही भाजपा औंधे मुंह लुढ़क जाएगी। बीजेपी सरकार के खिलाफ एंटीइकांबेंसी की बातें जाहिर थी मगर ये कोई नहीं भांप पाया कि बीजेपी की इतनी करारी पराजय होगी। इस बार भी सर्वे एजेंसियों के सामने यही कठिनाई सामने आई। अलबत्ता, इस बार स्थिति ये है कि राजनीतिक पंडित भी कोई फाइंडिंग नहीं दे रहे...सिर्फ ऐसा हुआ तो वैसा होगा और ये हुआ तो फलां भारी पड़ेगा और लास्ट में ये-ये सीटें फंस गईं हैं या टक्कर है...बोलकर कन्नी काट ले रहे। याने कोई भी ये बता पाने के पोजिशन में नहीं है कि फलां पार्टी का पलड़ा भारी है, और वह सरकार बना लेगी। कुछ लोगों का मानना है, इस बार 2013 के विस चुनाव की तरह भी मामला जा सकता है...जब कांउटिंग के दिन दोपहर एक बजे तक कांग्रेस सरकार बना रही थी और आधे घंटे के बाद यकबयक मामला ऐसा पलटा कि भाजपा आगे निकल गई। तब तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ0 रमन सिंह ने भी माना था, मुकाबला कठिन था...हमलोग पोहा खाते टीवी देखते रहे। बहरहाल, बात इस चुनाव की...तो इसकी भी संभावना कम नहीं कि किसी-न-किसी पार्टी के तरफ अंडर करंट है, जो सतह दिखाई नहीं पड़ रहा। अगर छत्तीसगढ़ियावाद, गांव-गंवई और किसान का अंडर करंट रहा तो रुलिंग पार्टी को रिपीट होने से रोका नहीं जा सकता। ठीक है, पहले फेज में कांग्रेस लूज कर रही है मगर ये भी सत्य है कि कांग्रेस का प्रभाव धान उत्पादन करने वाली 50 विस सीटों पर ज्यादा है। इन्हीं सीटों पर छत्तीसगढ़ अस्मिता भी है। दूसरी ओर अगर एंटीइंकांबेंसी, करप्शन, हिन्दुत्व और पीएससी घोटाले पर अगर बीजेपी के पक्ष में करंट चला तो फिर वो आगे निकल जाएगी। कुल मिलाकर टक्कर की बजाए बनेगी तो बहुमत की सरकार ही...किसी एक पार्टी को सीटें 50 से ऊपर जाएगी। क्योंकि, छत्तीसगढ़ में त्रिशंकु सरकार का कभी ट्रेंड नहीं रहा।

हिन्दुत्व का लिटमस टेस्ट

ये ठीक है कि छत्तीसगढ़ में जात-पात और धर्म कभी मुद्दा नहीं रहा। मगर इस चुनाव में हवाएं कुछ बदली-बदली सी दिखाई पड़ रही है। लोग हिन्दुत्व को लेकर सजग दिख रहे हैं। अपनी गाड़ियों में मैं हिन्दू...लिखा जा रहा...तो हिन्दुत्व के झंडे लगाने में भी अब कोई हिचक नहीं। नारायणपुर में हिंसा और बिरनपुर में सांप्रदायिक विवाद में हत्या की वारदात ने भी हिन्दुत्व को पर्याप्त खाद-पानी दिया है। यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ और असम के सीएम हेमंत विस्वा सरमा के जरिये बीजेपी इस फसल को काटने की कोशिश में पीछे नहीं रही। छत्तीसगढ़ हिन्दुत्व का प्रयोगशाला बनेगा या नहीं, तीन सीटें ये तय करेंगी। कवर्धा, साजा और बिलासपुर। कवर्धा में कई बार सांप्रदायिक हिंसा हो चुकी है। इस सीट पर पूरे प्रदेश की निगाहें टिकी हुई है। वहां पिछले कुछ सालों में में कई बार हिंसक घटनाएं हुईं। इस सीट को लेकर परस्पर दावे किए जा रहे हैं। उधर, साजा में बिरनपुर कांड के पीड़ित पिता को बीजेपी ने चुनाव में उतारा है, इसके निहितार्थ समझे जा सकते हैं। और तीसरा, जो सबसे अहम है...बिलासपुर में महीने भर पहले तक वर्तमान विधायक को लेकर परसेप्शन कुछ और था। मगर मुस्लिम समाज के एक व्यक्ति का पैर धोते और अल्लाहु अकबर नारा लगाते वीडियो वायरल होते ही लोगों की विधायक के प्रति धारणा बदल गई। ये तीनों सीटें अभी कांग्रेस के पास है। अगर वहां उलटफेर हो गया तो फिर समझिए कि छत्तीसगढ़ में हिन्दुत्व की इंट्री हो गई। ऐसे में फिर चुनाव का सीन बदल जाएगा।

संवैधानिक कुर्सी खाली

चुनाव की आपाधापी में राज्य निर्वाचन आयुक्त ठाकुर राम सिंह पोस्टिंग का रिकार्ड बनाकर 10 नवंबर को विदा हो गए। रिकार्ड इसलिए क्योंकि छह साल का निर्वाचन आयुक्त का उनका कार्यकाल डेढ़ साल पहले ही खत्म हो चुका था। राज्य सरकार ने छह छह महीने करके तीन बार उन्हें एक्सटेंशन दिया। इस तरह साढ़े सात साल लंबा हो गया उनका टेन्योर। देश में ये अपने आप में रिकार्ड होगा। बहरहाल, राज्य निर्वाचन आयुक्त संवैधानिक पोस्ट है। इसे खाली नहीं रखा जा सकता। राम सिंह जब रिटायर हो रहे थे, उस समय पूर्व आईएएस डीडी सिंह का नाम चर्चा में आया था पर बात आगे बढ़ नहीं सकी। इस पद पर रिटायर आईएएस की पोस्टिंग की जाती है। वो भी सीनियर। राम सिंह पोस्टिंग के मामले में बेहद किस्मती रहे। चार सबसे बड़े जिले की दस साल कलेक्टरी किए। फिर जूनियर सचिव स्तर के अफसर होने के बाद भी निर्वाचन की रिकार्ड पोस्टिंग। खैर, अभी पद खाली है। अब नई सरकार में ही लगता है पोस्टिंग होगी।

भूपेश का कद बढ़ा!

इस बार का विधानसभा चुनाव कई मायनो में अलग रहा। इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी और उसकी नीतियों की बजाए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल मुद्दा बनें और नरेंद्र मोदी जैसे ताकतवर प्रधानमंत्री के निशाने पर रहे। पीएम मोदी ही नहीं, दिल्ली से आने वाले केंद्रीय नेताओं समेत यूपी, असम के फायरब्रांड मुख्यमंत्रियों ने राहुल और प्रियंका की बजाए भूपेश को ही टारगेट करना मुनासिब समझा। ईडी ने भी महादेव ऑनलाइन सट्टा में 508 करोड़ वाला प्रेस नोट चुनाव प्रचार के दौरान ही जारी किया। पूरे चुनाव में सामूहिक नेतृत्व पर जोर देने वाली कांग्रेस को भी लास्ट में महसूस हुआ कि भूपेश पर भरोसा करना होगा। तभी वोटिंग से एक दिन पहले 16 नवंबर को अखबारों में उनकी सिंगल फोटो से कांग्रेस पार्टी का बड़ा इश्तेहार जारी हुआ। दरअसल, कांग्रेस के लगभग सभी नेताओं की सीटें फंसी हुई थी, लिहाजा अधिकांश बड़े नेता अपनी सीट पर सिमट कर रह गए। सीएम भूपेश अकेले पूरे प्रदेश के दौरे करते रहे। बीजेपी के रणनीतिकार भी इस बात को जानते थे कि कांग्रेस को हराने के लिए भूपेश को टारगेट करना होगा।

थैंक्स गॉड

17 नवंबर की शाम चुनाव निबटते ही सूबे के कलेक्टरों और पुलिस अधीक्षकों ने ईश्वर को याद किया...तेरा लाख लाख शुक्र...खतरा खत्म हुआ। जाहिर है, इस चुनाव में कलेक्टर, एसपी सबसे ज्यादा टेंशन में थे। चुनाव का ऐलान होने के तीसरे दिन ही आयोग ने दो कलेक्टर और तीन एसपी बदल दिए थे। चुनाव आयोग ने ऐसा कौवा टांगा कि फिर किसी कलेक्टर, एसपी की इधर उधर करने की हिम्मत नहीं हुई। हालांकि, कई चतुर कलेक्टर, एसपी ने इसे ही हथियार बना अपना तनाव खत्म कर लिया। कोई नेता अगर व्हाट्सएप कॉल पर भी उन्हें कुछ बोलता था तो उनका एक ही जवाब, देख लीजिए मेरा फोन सर्विलेंस पर है...इसके बाद सामने वाले की सिट्टी पिटी गुम।

55 सीटें कांग्रेस को!

भारतीय प्रशासनिक सेवा को देश की सबसे बड़ी और प्रतिष्ठित सर्विस मानी जाती है। उन्हें ट्रेनिंग ऐसी दी जाती है कि वे सारे दायित्वों का निर्वहन कर सकें। ऐसी सेवा के अधिकारियों पर जनता गौर करती है। अब बात विधानसभा चुनाव के नतीजों पर तो अधिकांश अफसरों का निजी सर्वे बता रहा कि सत्ताधारी पार्टी रिपीट हो रही है। कई अफसर 55 सीट तक कांग्रेस को दे रहे हैं। हालांकि, 2018 में ब्यूरोक्रेसी बीजेपी की सरकार भी बना रही थी। मगर तब वह मात्र 15 सीट पर सिमट गई। इससे पहले भी ब्यूरोक्रेसी का आंकलन कभी सही नहीं उतरा। देखना है, इस बार क्या होता है।

अंत में दो सवाल आपसे

1. ईडी के छापे चुनाव में मुद्दा क्यों नहीं बन पाया?

2. क्या छत्तीसगढ़ में एकनाथ शिंदे एपिसोड की संभावना है?


शनिवार, 4 नवंबर 2023

Chhattisgarh Tarkash: नई सरकार...कठिनतम चुनौती

 तरकश, 5 नवंबर 2023

संजय के. दीक्षित

नई सरकार...कठिनतम चुनौती

3 दिसंबर को काउंटिंग के बाद हफ्ते-दस दिन में छत्तीसगढ़ में नई सरकार का गठन हो जाएगा। अब सरकार किसी की भी बने, उसके समक्ष बड़ी चुनौती होगी करीब 20 हजार करोड़ एक्सट्रा राजस्व जुटाने का। अगर ऐसा नहीं हुआ तो विकास कार्यो का बंटाधार हो जाएगा। दरअसल, विधानसभा चुनाव को लेकर सूबे में जिस तरह घोषणाएं की जा रही, उससे खजाने पर बड़ी चोट पड़ने वाली है। बीजेपी ने कल संकल्प पत्र में 3100 में धान खरीदने का वादा किया है। धान का समर्थन मूल्य 2300 है। इस हिसाब से 800 रुपए अलग से देना होगा। ये करीब 10 हजार करोड़ होता है। इसके अलावा महिलाओं को 12 हजार सलाना मिलेगा। छत्तीसगढ़ में करीब 70 लाख विवाहित महिलाएं हैं। इस योजना से खजाने पर करीब साढ़े नौ हजार करोड़ का व्यय आएगा। भाजपा ने अपने समय के दो साल का बोनस भी देगी, इस पर करीब चार हजार करोड़ खर्च होंगे। ये तो बीजेपी का है। जाहिर है, कांग्रेस भी कुछ अलग करने की कोशिश करेगी। 10 हजार करोड़ की कर्ज माफी ऐलान कांग्रेस पहले ही कर चुकी है। घोषणा पत्र में हो सकता है, धान का रेट 3200 हो जाए। अर्थशास्त्र को समझने वाले एक बड़ी सियासी पार्टी के एक बड़े नेता ने इस स्तंभकार से अपनी चिंता साझी की...अगर सलाना 20 हजार करोड़ अतिरिक्त राजस्व नहीं जुटाया गया तो छत्तीसगढ़ के विकास की लाइन, लेंग्थ इस कदर बिगड़ जाएगा कि इसे फिर संभालना मुश्किल हो जाएगा।

पति-पत्नी मंत्री

एक मंत्रिमंडल में पति, पत्नी दोनों मंत्री...! देश में ऐसा आपने कभी सुना नहीं होगा। मगर एक बार ऐसा हुआ है। अविभाजित मध्यप्रदेश के समय 1952 में। चूकि छत्तीसगढ़ से जुड़ा मामला है इसलिए इसकी प्रासंगिकता भी है। तब देश में पहली बार विधानसभा का चुनाव हुआ था। रविशंकर शुक्ल मंत्रिमंडल में वीरेन्द्र बहादुर सिंह और उनकी पत्नी पद्मावती देवी दोनों ही एक साथ मंत्री बने। वीरेन्द्र बहादुर सिंह खैरागढ़ से और उनकी पत्नी रानी पद्मावती देवी बोरी देवकर से जीतकर विधायक बने। इस तरह पद्मावती छत्तीसगढ़ की पहली महिला मंत्री भी रहीं। 1918 में यूपी के प्रतापगढ़ जन्मी पद्मावती प्रतापगढ़ के राजा प्रताप बहादुर सिंह की छोटी बेटी थीं। सोलह साल की उम्र में पद्मावती की शादी खैरागढ़ के राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह के साथ हुई। वे 1952 से 1967 तक विधानसभा और 1967 से 1971 तक लोकसभा सांसद भी रहीं। पद्मावती देवी का इंदिरा गांधी से बहुत करीबी रिश्ता था। 1956 से 1967 तक मध्यप्रदेश शासन के लोक स्वास्थ्य, समाज कल्याण, यांत्रिकी और नगर निकाय आदि विभागों में मन्त्री पद पर रहीं थीं। पद्मावती देवी इतनी लोकप्रिय थीं कि 1957 के विधानसभा चुनाव में वे वीरेन्द्र नगर से निर्विरोध निर्वाचित हुई थीं। खैरागढ़ के विश्व प्रसिद्ध इंदिरा संगीत विश्वविद्यालय की स्थापना पद्मावती देवी ने ही की थीं।

अपवाद मंत्री

छत्तीसगढ़ बनने के बाद 23 साल में चार विधानसभा चुनाव हुए हैं। इनमें से दो विभाग ऐसे हैं, जिनके मंत्री आमतौर पर चुनाव नहीं जीतते। विभाग हैं वन और कृषि। इन दोनों में सिर्फ बृजमोहन अग्रवाल अपवाद रहे हैं। रमन सरकार के दौरान अलग-अलग पारियों में दोनों मंत्रालयों को उन्होंने संभाला और चुनाव भी जीते। उनके अलावा कोई भी मंत्री अपनी सीट नहीं बचा पाया। पहले कृषि की बात करते हैं....डॉ. प्रेमसाय सिंह अजीत जोगी मंत्रिमंडल में इस विभाग के मंत्री थे। 2003 के चुनाव में वे हार गए। इसके बाद 2008 में ननकीराम कंवर और 2013 में चंद्रशेखर साहू भी चुनाव हारे। 2013 में बृजमोहन अग्रवाल कृषि मंत्री बने और 2018 में जीतने में कामयाब रहे। इसी तरह डीपी धृतलहरे जोगी सरकार में वन मंत्री रहे, 2003 के चुनाव में वे अपनी सीट नहीं बचा पाए। उनके बाद गणेशराम भगत, विक्रम उसेंडी और महेश गागड़ा अलग-अलग समय में वन मंत्री रहे और हारे। बृजमोहन अग्रवाल जरूर चुनाव जीतने में कामयाब रहे।

किस्मत ईवीएम में

पहले चरण की 20 विधानसभा सीटों की 7 नवंबर को मतदान होंगे, वहां आज पांच नवंबर की शाम प्रचार खतम हो जाएगा। इन 20 सीटों पर भाजपा से सबसे बड़ा नाम पूर्व मुख्यमंत्री डॉ0 रमन सिंह का है। वे राजनांदगांव सीट से चौथी बार चुनावी मैदान में हैं। वहीं कांग्रेस से प्रदेश अध्यक्ष दीपक बैज का चुनाव भी पहले चरण में है। उनके अलावा मंत्रियों में कवर्धा से मोहम्मद अकबर, कोंडागांव से मोहन मरकाम और कोंटा से कवासी लखमा शामिल हैं। तो पूर्व मंत्रियों में केदार कश्यप नारायणुपर से और लता उसेंडी कोंडागांव से किस्मत आजमा रही हैं। इनमें बीजेपी के सबसे बड़े नेता रमन सिंह हैं...आज प्रचार समाप्त होने के बाद वे अपनी सीट से फ्री हो जाएंगे। जाहिर है, दूसरे चरण वाले चुनाव के 70 प्रत्याशियों में सबसे अधिक डिमांड रमन सिंह की है। वे अब फ्री होकर चुनाव प्रचार कर सकेंगे तो पीसीसी चीफ दीपक बैज भी दीगर सीटों पर अपना फोकस बढ़ाएंगे।

थैंक्स गॉड!

पहले चरण वाले 11 जिलों के कलेक्टर, एसपी दिन गिन रहे कि कैसे तीन दिन निकल जाए। इसके अलावा दो रेंजों के आईजी भी तनाव में हैं। इन 11 जिलों में 20 सीटें आती हैं। इनमें बस्तर में सात जिले हैं और 12 विस सीटें। बस्तर में अभी चुनाव आयोग की कोई कार्रवाई नहीं हुई है। राजनांदगांव एसपी का विकेट चुनाव का ऐलान होते ही गिर गया था। वहां के कलेक्टर पहले से चुनाव आयोग के राडार पर हैं। कवर्धा भी कम संवेदनशील नहीं है। वहां धर्म का भी तड़का है। ऐसे में, इलेक्शन खतम होने की इन अधिकारियों की खुशी समझी जा सकती है।

ओबीसी कार्ड

कांग्रेस के जवाब में बीजेपी भी अब छत्तीसगढ़ में ओबीसी कार्ड चलने लगी है। इसकी शुरूआत कल केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पंडरिया की सभा में की। उन्होंने बताया कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में ओबीसी से कितने मंत्री हैं। उसके अगले दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुर्ग की सभा में कहा, मैं ओबीसी से हूं, इसलिए कांग्रेस के लोग मुझे बर्दाश्त नहीं करते। उन्होंने ये भी कहा कि कांग्रेस साहू समाज को गाली देती है। पिछले चुनाव के दौरान भी पीएम मोदी ने साहू कार्ड चला था, जब उन्होंने कहा था कि मैं तेली हूं और मेरे समाज के बड़ी संख्या में लोग छत्तीसगढ़ में रहते हैं।

हफ्ते भर शेष

दूसरे चरण की 70 सीटों पर वोटिंग भले ही 17 नवंबर को है मगर बीच में दिवाली, भाईदुज और गोवर्द्धन पूजा है। याने अगले हफ्ते गुरूवार तक ही कैम्पेनिंग स्मूथली चलेगा। इसके बाद शुक्रवार याने 10 नवंबर को धनतेरस है और 12 को दिवाली। इसके बाद दो दिन भाईदुज और गोवर्द्धन पूजा। धनतेरस से लोग दिवाली की तैयारियों में जुट जाते हैं और दिवाली के अगले दिन फिर छुट्टी जैसा आलम। धनतेरस से लेकर भाईदुज तक किसी बड़े नेता की सभा हुई तो उसमें भीड़ नहीं जुट पाएगी। उसके बाद सिर्फ दो दिन बचेंगे प्रचार के लिए। 14 और 15 को। 15 नवंबर की शाम पांच बजे के बाद प्रचार समाप्त हो जाएगा। कुल मिलाकर प्रत्याशियों के पास अब हफ्ते भर का समय बचा है।

अंत में दो सवाल आपसे

1. छत्तीसगढ़ अस्मिता की बात करते-करते कांग्रेस ने एक ही जिले में किन दो बाहरी नेताओं को टिकिट दे दिया?

2. छत्तीसगढ़ में बृजमोहन अग्रवाल को छोड़कर कोई भी कृषि और वन मंत्री चुनाव नहीं जीता है...रविंद्र चौबे और मोहम्मद अकबर क्या इस मिथक को अबकी तोड़ पाएंगे?



रविवार, 29 अक्तूबर 2023

10 हजार करोड़ की माफ़ी

 तरकश, 29 अक्टूबर 2023

संजय के. दीक्षित

10 हजार करोड़ की माफ़ी 

सीएम भूपेश बघेल ने सरकार लौटने पर किसानों का फिर कर्जा माफ करने का बड़ा दांव चल दिया है। भूपेश का छोड़ा गया ये मिसाइल इतना खतरनाक है कि भाजपा को उसका काट ढूंढ पाना मुश्किल प्रतीत हो रहा होगा। बीजेपी के सामने अब मजबूरी आ गई है कि उसे मुकाबले में अगर टिके रहना है तो जाहिर तौर पर इससे कोई बड़ा गोला दागना पड़ेगा। बता दें, कर्ज माफी से किसानों की जेब में करीब 10 हजार करोड़ रुपए जाएगा। इसे ऐसे समझते हैं। 2018 में सरकार बनने पर 19.75 लाख किसानों का कर्ज माफ किया गया था। इस पर करीब 10 हजार करोड़ रुपए खर्च हुआ था। इस बार 24.87 लाख किसान रजिस्टर्ड हैं। इनमें से मोटे अनुमान के अनुसार करीब 70 फीसदी किसानों ने 10 हजार से लेकर तीन लाख तक का लोन लिया है। से संख्या करीब 17 लाख के करीब जा रही है। अफसरों का कहना है, इस बार चूकि राजीव न्याय योजना के तहत लगातार उनके खाते में पैसा जाता रहा, इसलिए 2018 की तुलना में इस बार कम किसानों ने लोन लिया है। इसीलिए संख्या में करीब दो लाख की कमी आई है। याने इस बार भी कर्ज माफी का एमाउंट करीब 10 हजार करोड़ ही रहेगा। बहरहाल, कर्ज माफी की घोषणा के बाद लोन नहीं लेने वाले किसान अब पछता रहे हैं...काश! हम भी कर्ज ले लिए होते।

भाजपा का राकेट...

जाहिर है, सीएम भूपेश बघेल की कर्ज माफी की घोषणा ने भाजपा के हथियार कुंद तो किए ही, चुनाव की दिशा और दशा बदल दिया है। भाजपा अभी तक ईडी, आईटी, भ्रष्टाचार से लेकर हिन्दुत्व कार्ड के जरिये हवा का रुख अपने पक्ष मे ंकरने की कोशिश कर रही थी। बिरनपुर कांड के पीड़ित पिता को साजा से टिकिट दिया गया तो हिन्दुत्व को लेकर मुखर विजय शर्मा को कवर्धा से उतारा गया। मगर छत्तीसगढ़ में अब ये स्थापित हो गया है कि धान और किसान ही इस चुनाव के मुद्दे होंगे और आगे भी इसी पर चुनाव लड़े जाएंगे। 2018 का विधानसभा चुनाव भी इसी इश्यू पड़ा लड़ा गया। तब कांग्रेस ने बोनस के साथ 25 सौ रुपए धान खरीदने का वादा किया और यही टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ। कांग्रेस के पक्ष में माहौल बना और इसका नतीजा हुआ कि बीजेपी 15 सीटों पर सिमट गई। हालांकि, बीजेपी की लोकल बॉडी ने धान पर लचीला रुख अपनाने के लिए दिल्ली के नेताओं से आग्रह किया था। मगर बात बनी नहीं। चूकि इस बार भी धान और किसान चुनाव के केंद्र बिन्दु बनते जा रहे हैं तो लगता है भाजपा भी इस बार मुठ्ठी खोलेगी। पार्टी ने अभी एक वीडियो भी जारी किया है। इसमें बताया गया है कि कांग्रेस का बम फुस्स हो गया...उनका राकेट आने वाला है। देखने की उत्सुकता होगी, बीजेपी का राकेट कांग्रेस के मिसाइल पर क्या असर डालता है।

पुलिस से चुनाव

छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद ये पहला मौका होगा, जब पहले चरण का प्रचार खतम होने में हफ्ते भर बच गए हैं मगर चुनाव जैसा माहौल कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा। न प्रत्याशियों में जोश और गरमी नजर आ रही और न ही प्रचार अभियान में तेजी। गनीमत है, चौक-चौराहे पर पुलिस वाले चेकिंग कर चुनाव जैसा अहसास करा दे रहे। वरना, बाहर से आए नेता और मीडियाकर्मी भी छत्तीसगढ़ की चुनावी स्थिति को देखकर आवाक हैं। चुनाव प्रचार का लय न पकड़ने का एक बड़ा कारण घोषणा पत्र माना जा रहा है। पिछले बार की तरह यह चुनाव भी घोषणा पत्र के आधार पर लड़ा जाना है। इसलिए, सबकी निगाहें इस बात पर टिकी है कि दोनों पार्टियों किसानों को क्या दे रही है। किसान भी अब चतुर हो गए हैं...जो ज्यादा देगा उसे वोट देंगे। दरअसल, छत्तीसगढ़ में करीब 37 लाख किसान हैं। इसमें से 30 लाख भी अगर वास्तविक किसान होंगे तब भी एक परिवार में चार वोट के आधार पर एक करोड़ से उपर मतदाता होते हैं। चुनावी उलटफेर करने के लिए ये एक बड़ा फिगर है।

ब्यूरोक्रेट्स पर प्रेशर

छत्तीसगढ़ में जैसे-जैसे चुनाव की तारीखें नजदीक आती जा रही हैं, अफसरों के खिलाफ शिकायतों की फाइल मोटी होती जा रहीं। पता चला है, अभी तक डेढ़ दर्जन से अधिक आईएएस, आईपीएस अधिकारियों के खिलाफ आयोग में कंप्लेन हो चुके हैं। एक्साइज के खिलाफ भी काफी शिकायतें की जा रही। पुलिस में एसपी, आईजी से लेकर बड़े-बड़े अधिकारियों के नाम हैं तो लगभग आधे दर्जन जिले के कलेक्टरों के नाम शिकायतों की लिस्ट में शामिल हैं। हालांकि, ये शिकायतें चुनावी होती हैं। अफसरों पर प्रेशर टेकनीक भी। सियासी नेताओं को भी पता होता है, ब्यूरोक्रेट्स किसी के नहीं होते...जिसका झंडा, उनके अफसर। 2003 के विधानसभा चुनाव में दो जिले ऐसा रहा, जहां के कलेक्टर, एसपी दोनों को आयोग ने बदल दिया था। सरकार बदलने पर उन्हें ट्रेक पर आने में चार-पांच महीना लगा। मगर उसके बाद फिर उन्हें महत्वपूर्ण पोर्टफोलियो मिल गया। एक को तो राजधानी रायपुर कलेक्टर की कमान मिल गई। तो दूसरे ने तीन जिले की कलेक्टरी की।

अफसरों पर तलवार?

आचार संहिता लागू होने के पहिले माना जा रहा था कि छत्तीसगढ़ की ब्यूरोक्रेसी जिस तरह ईडी और आईटी के राडार पर है, उसमें बड़ी संख्या में अफसरों की छुट्टी होगी। इलेक्शन कमीशन के फुल बोर्ड ने कलेक्टर, एसपी की मीटिंग में तीखे तेवर दिखाए ही थे। मगर छत्तीसगढ़ में दो कलेक्टर और तीन एसपी को हटाने के बाद कार्रवाई ठहर गई। जबकि, राजस्थान और तेलांगना में कई अफसर निबट गए। तेलांगना में तीन पुलिस कमिश्नर समेत 13 आईपीएस अफसर हटा दिए गए। छत्तीसगढ़ को लेकर चुनाव आयोग अगर उदार है तो इसकी एक वजह डिप्टी इलेक्शन कमिश्नर आरके गुप्ता भी हैं। गुप्ता केंद्रीय मंत्रालय कैडर के अफसर हैं। काफी मैच्योर भी। उन्हीं के पास छत्तीसगढ़ का प्रभार है। ब्यूरोक्रेसी के लोग भी मानते हैं कि गुप्ता की जगह अगर कोई आईएएस अफसर छत्तीसगढ़ का इंचार्ज होता तो अभी तक कई की लाईन लग गई होती। वैसे मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी रीना बाबा कंगाले भी अफसरों को लेकर कोई पूर्वाग्रह नहीं है। अफसरों के कार्रवाई से बचने ये भी एक बड़ा कारण है। हालांकि, सेकेंड फेज के इलेक्शन में बीसेक दिन का समय है...कोई खुद से हिट विकेट हो जाए तो इसमें आयोग और सीईसी क्या करेंगी।

30 पर नजर

30 अक्टूबर का दिन खासकर कांग्रेस के लिए बड़ा महत्वपूर्ण रहेगा। इस दिन दूसरे और अंतिम चरण के नामंकन का अंतिम दिन है। कांग्रेस की सियासत में इस बात की हलचलें तेज हैं कि इस दिन जिन नेताओं को टिकिट नहीं मिला है वे निर्दलीय या किसी और पार्टी से अपना पर्चा दाखिल कर सकते हैं। हालांकि, कांग्रेस पार्टी द्वारा उन्हें समझाने की कोशिशें भरपूर की जा रही मगर इसके बाद भी दो-से-तीन नेता अपना सूर नहीं बदल रहे। उल्टे प्रचारित किया जा रहा कि कुछ सीटों पर प्रत्याशी बदले जा सकते हैं, जो कि अब होना नहीं है। धमतरी से गुरमुख सिंह होरा के तेवर कायम हैं तो मनेंद्रगढ़ से विनय जायसवाल और रायपुर उत्तर से अजीत कुकरेजा के बारे में भी कई तरह की बातें सुनाई पड़ रही है। हालांकि, कांग्रेस को दोनों स्थितियों में नुकसान था। इनमें से कुछ को पार्टी अगर टिकिट देती तो वे जीतते नहीं। और अगर बगावत कर खड़े हो गए तो भी वे अधिकृत प्रत्याशी को नुकसान पहुंचाएंगे। अंतागढ़, पामगढ़ और सराईपाली में पार्टी के तीन नेता पाला बदलकर अलग मैदान में उतर रहे हैं। ऐसे में, अब कांग्रेस भी नहीं चाहेगी कि कोई और नेता बगावत करें। जाहिर है, 30 अक्टूबर पर सबकी निगाहें रहेंगी।

अंत में दो सवाल आपसे

1. विधानसभा अध्यक्ष कभी चुनाव नहीं जीतते...चरणदास महंत क्या अबकी इस मिथक को तोड़ देंगे?

2. टिकिट न मिलने से नाराज एक भाजपा नेता अधिकृत प्रत्याशी के खिलाफ एक महिला को मैदान में उतारने की तैयारी कर रहे हैं...नाम?


शनिवार, 21 अक्तूबर 2023

Chhattisgarh Tarkash: विधायक जी का एमएमएस

 तरकश, 22 अक्टूबर 2023

संजय के. दीक्षित

विधायक जी का एमएमएस

एक बड़ी पार्टी से विधानसभा चुनाव लड़ रहे युवा विधायकजी के प्रायवेट एमएमएस की चर्चा इन दिनों बड़ी तेज है। हालांकि, विधायकजी मैनेज करने की कोशिशें तो खूब कर रहे हैं मगर दिक्कत यह है कि एमएमएस इतने सारे लोगों के पास पहुंच गया है कि बेचारे कितनों को साध पाएंगे। एमएमएस में विधायकजी मुंबई के मरीन ड्राईव में एक महिला मित्र का हाथ पकड़े समुद्र की लहरों को निहारते...रोमांटिक अंदाज में बात करते नजर आ रहे हैं, तो दूसरा वाला कुछ ज्यादा है, उसे यहां कोट नहीं किया जा सकता। बताते हैं, विरोधी पार्टी विधायकजी के नामंकन की प्रतीक्षा कर रही है। उसके बाद किसी रोज उसे वायरल किया जाएगा। एमएमएस अगर पब्लिक डोमेन में आ गया तो निश्चित तौर पर विधायक की मुश्किलें बढ़ जाएगी। क्योंकि, मौसम चुनावी है। और, ऐसे चटपटे आडियो, एमएमएस को पंख लगते देर नहीं लगते।

दोनों हाथ में लड्डू

कांग्रेस ने पहली सूची में 30 प्रत्याशियों की घोषणा की, उनमें सबसे अधिक गिरीश देवांगन का नाम चौंकाया। उन्हें राजनांदगांव में एक्स सीएम डॉ0 रमन सिंह के खिलाफ मैदान में उतारा गया है। लोग आज भी इसका राज जानने उत्सुक हैं। हालांकि, कांग्रेसी खेमे की तरफ से कहा गया कि रमन सिंह को गिरीश के अलावा कोई टक्कर नहीं दे सकता था। मगर यह भी सही है कि बड़े चेहरों के मुकाबले चुनाव लड़ने के भी अपने फायदे हैं। इसमें दोनों हाथ में लड्डू होते हैं। एक तो आदमी पहचान का मोहताज नहीं रहता। माइनिंग कारपोरेशन के चेयरमैन के तौर पर कुछ परसेंट लोग उन्हें जानते होंगे। अब गिरीश सुखिर्यो में रहेंगे। फिर बड़े व्यक्ति से हारने के बाद सहानुभूति वेटेज भी मिलता है। कई बार राज्यसभा की टिकिट मिल जाती है। अगर गिरीश जीत जाएंगे, तो सोचिए क्या होगा। वे बड़े नेता के तौर पर स्थापित हो जाएंगे, जो 15 साल के सीएम को परास्त कर दिया। देश भर के मीडिया में वे चर्चाओं में रहेंगे।

19-1 का स्कोर

छत्तीसगढ़ के फर्स्ट फेज में जिन 20 सीटों पर इलेक्शन होने जा रहे हैं, उनमें भाजपा के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। उसे सिर्फ पाना ही है। जाहिर है, इन 20 में से सिर्फ एक सीट बीजेपी के पास है। एक्स सीएम डॉ. रमन सिंह की। यद्यपि, 2018 के विस चुनाव में दंतेवाड़ा से भीमा मंडावी भी जीते थे। मगर नक्सली घटना में उनकी मौत के बाद उपचुनाव में बस्तर की इकलौती सीट भी बीजेपी के हाथ से फिसल गई। इन 20 सीटों में बस्तर की 12 और राजनांदगांव, मोहला मानपुर, खैरागढ़ और कवर्धा जिले की आठ सीटें शामिल हैं। सियासी पंडितों की मानें तो इन 20 में से अभी के हालात में आठ सीटें बीजेपी को मिलती दिख रही हैं। आगे चलकर यह फिगर अप हो जाए या डाउन कहा नहीं जा सकता।

धान वाली 50 सीटें

बस्तर और ओल्ड राजनांदगांव जिले में पिछले चुनाव की तुलना में कांग्रेस की सीटें कम हो रही हैं, उधर सरगुजा की स्थिति भी जुदा नहीं है। सरगुजा की 14 में से अभी की स्थिति में बीजेपी को पांच से छह सीटें आती दिखाई पड़ रही हैं। सरगुजा में बीजेपी अभी जीरो पर है। बहरहाल, ऐसे सिचुएशन में कांग्रेस और भाजपा दोनों पार्टियां धान उत्पादन करने वाली 50 मैदानी सीटों पर पूरा जोर लगाने की कोशिश करेंगी। इन्हीं सीटों पर कांग्रेस का धान, किसान और लोगों को टच करने वाला छत्तीसगढ़ी अस्मिता है तो बीजेपी का एंटी इंकांबेंसी के साथ हिन्दुत्व और भ्रष्टाचार का मुद्दा। इन्हीं इलाकों में बसपा का हाथी भी है। बिलासपुर और जांजगीर जिले की कई सीटों पर बीएसपी जीत हार में अहम फैक्टर बनती है। अभी भी पामगढ़ और जैजैपुर बसपा के पास है। 2018 के विधानसभा चुनाव में इन्हीं 50 में बीजेपी की 12, जोगी कांग्रेस की पांच और बसपा की दो सीटें आईं थीं। वहीं कांग्रेस को एकतरफा 31 सीटें मिली थीं। कुल मिलाकर इन्हीं 50 सीटों पर रोचक फाइट देखने का मिलेगी।

गुटीय आधार पर टिकिट

बिलासपुर छत्तीसगढ़ का पहला जिला होगा, जहां सत्ताधारी पार्टी ने योग्यता और जीतने वाले कंडिडेट की बजाए गुटीय आधार पर सीटें बांटी हैं। केंद्रीय चुनाव समिति ने इस बार किसी भी नेता को निराश नहीं किया...बल्कि सभी गुटों को बराबरी से संतुष्ट किया। ये मेरा, ये आपका, ये तुम्हारा...जब टिकिट वितरण का आधार बनेगा तो फिर क्वालिटी की उम्मीद करनी भी नहीं चाहिए। बिलासपुर की छह में से इस समय कांग्रेस के पास दो सीटें हैं और इस चुनाव में भी इसी के आसपास फिगर रहना है। वो भी इसलिए क्योंकि एक टिकिट काम के आधार पर दिया गया है। कांग्रेस के लोगों का भी मानना है कि इस बार बिलासपुर में कांग्रेस पार्टी को सीटें बढ़ाने का मौका था। इसी तरह जांजगीर में भी कांग्रेस को और अच्छा पारफार्मेंस करने का अवसर था। गुटीय सियासत में वहां भी सीटें प्रभावित होती दिख रही हैं। कोरबा में अवश्य कांग्रेस फिर पुरानी स्थिति दोहराने के करीब लग रही है। कोरबा में इस समय तीन कांग्रेस और एक बीजेपी है।

बीजेपी की स्ट्रेटजी

बीजेपी ने जिन 86 सीटों पर टिकिटों का ऐलान किया है उनमें कुछ प्रत्याशियों को देखकर प्रतीत होता है कि जीतने वाला कंडिडेट के साथ ही उसने इस फार्मूले पर टिकिट बांटा है कि हम नहीं तो कांग्रेस भी नहीं। जिन सीटों पर भाजपा को लगा कि उसकी वहां दाल नहीं गल सकती तो उसने ऐसा प्रत्याशी उतार दिया कि गैर कांग्रेस को वहां फायदा मिल जाए। वैसे भी कांग्रेस के लोग बसपा और जोगी कांग्रेस को भाजपा की बी टीम होने का आरोप लगाते ही हैं। जाहिर है, भाजपा ने एक सीट पर ऐसे प्रत्याशी को उतार दिया है, जहां बसपा की सीट सुरक्षित हो गई है।

एडिशनल बोझ

टिकिट के लिए आवेदन करने का फार्मूला लगा कर कांग्रेस नेताओं को रिचार्ज करने में सफल रही मगर उसका खामियाजा अब प्रत्याशियों को उठाना पड़ रहा है। टिकिट डिक्लेयर होने के बाद प्रत्याशियों ने सबसे पहले उनकी लिस्ट निकाली, जिन्होंने टिकिट के लिए अप्लाई किया। चूकि कांग्रेस को भीतरघात का सबसे बड़ा खतरा है इसलिए जो जिस लेवल का है, उस लेवल से उसे संतुष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है। ऐेसे में प्रत्याशियों की जेब पर यह एडिशनल बोझ पड़ जा रहा है।

30 फीसदी नए चेहरे

कांग्रेस पार्टी ने अपनी दो लिस्ट में 83 उम्मीदवारों का ऐलान किया है, इनमें 17 नए चेहरे हैं। याने इन 17 सीटिंग विधायकों की टिकिट कट गई है। पता चला है, आजकल में घोषित होने वाली तीसरी लिस्ट में सभी सात नए प्रत्याशी होंगे। इनमें धमतरी में पहले से भाजपा की रंजना साहू विधायक हैं। बची छह। इन सभी छह सीटों पर पार्टी नए चेहरों को उतारेगी। इस तरह 72 में से 24 विधायकों की टिकिट कांग्रेस ने काट डाली। ये 30 फीसदी होते हैं। इसकी तुलना में भाजपा ने 13 में से सिर्फ एक विधायक को बदला है। डमरुधर पुजारी को। वहीं बसपा ने अपने दोनों विधायकों पर फिर से दांव लगाया है।

अंत में दो सवाल आपसे

1. चुनावी सियासत में बीजेपी के प्लान बी की बड़ी चर्चा है...क्या है ये प्लान बी?

2. फूड मिनिस्टर अमरजीत भगत के सीतापुर में घिर जाने की असली वजह क्या है?



रविवार, 15 अक्तूबर 2023

Chhattisgarh Tarkash: चुनाव आयोग ने पैनल पलटा

 


तरकश, 15 अक्टूबर 2023

संजय के. दीक्षित

चुनाव आयोग ने पैनल पलटा

चुनाव आयोग ने दो कलेक्टर और तीन पुलिस अधीक्षकों को नियुक्त करने भेजे गए सामान्य प्रशासन विभाग के पैनल को पलट दिया। छत्तीसगढ़ के संदर्भ में ऐसा पहली बार हुआ कि आयोग ने एक पैनल के नामों को खारिज करते हुए दूसरे पैनल के दो अफसरों को दो जिले का कलेक्टर बना दिया। बता दें, जीएडी ने बिलासपुर के लिए भीम सिंह, यशवंत कुमार और रीतेश अग्रवाल तथा रायगढ़ के लिए सारांश मित्तर, अवनीश शरण और कार्तिकेय गोयल का नाम आयोग को भेजा था। हालांकि, ये भी समझ से परे है कि अवनीश और कार्तिकेय का नाम जब आब्जर्बर के लिए भेजा जा चुका है तो फिर रायगढ़ कलेक्टर के लिए क्यों प्रस्तावित किया गया। बताते हैं, अवनीश का मिजोरम के आब्जर्बर लिए आदेश भी हो गया था। बहरहाल, आयोग ने रायगढ़ पैनल से नीचे के दोनों नामों को हरी झंडी देते हुए अवनीश को बिलासपुर और कार्तिकेय को रायगढ़ का कलेक्टर नियुक्त कर दिया। दोनों अधिकारियों ने आज ज्वाईन भी कर लिया।

तेलांगना से कम

छत्तीसगढ़ में चुनाव आयोग ने दो कलेक्टर और तीन एसपी बदले...यह फिगर तेलांगना के सामने कुछ भी नहीं। तेलांगना में हैदराबाद के पुलिस कमिश्नर समेत तीन पुलिस कमिश्नर और 10 एसपी को बदल दिया। याने पूरे 13 आईपीएस। उपर से एक कलेक्टर भी। बताते हैं, छत्तीसगढ़ की सूची भी लंबी थी। मगर राहत की बात यह कि सूची में पांच कलेक्टर, एसपी समेत आठ ही नाम आ पाए। हालांकि, ब्यूरोक्रेसी में चर्चा दूसरी सूची की भी है। उसके अनुसार कुछ और कलेक्टर, एसपी और आईजी बदले जाएंगे। लेकिन, यह भी सही है कि आयोग को चुनाव भी तो कराने हैं।

कलेक्टर का एग्जिट पोल

छत्तीसगढ़ में एक ऐसे कलेक्टर भी रहे हैं, जिन पर एग्जिट पोल कराने का आरोप लगा और आयोग ने उनकी छुट्टी भी कर दी। ये बात 2004 के लोकसभा चुनाव की है। तब महासमुंद से पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी चुनाव लड़ रहे थे और उनके सामने थे दिग्गज नेता विद्याचरण शुक्ल। तब विद्या भैया बीजेपी की टिकिट पर मैदान में उतरे थे। चुनाव के बाद आयोग को शिकायत हुई कि कलेक्टर शैलेष पाठक ने कोई एग्जिट पोल कराया है, जिसमें कांग्रेस की जीत बताई गई है। आयोग ने एक सीनियर अफसर को महासमुंद भेजकर इसकी जांच कराई और उसके अगले दिन शैलेष को हटा दिया। बता दें, यह देश का पहला चुनाव रहा, जिसमें दो कलेक्टर हटाए गए। एक ने नामंकन भरवाया, दूसरे ने चुनाव कराया और तीसरे ने काउंटिंग कराई। जब चुनाव का ऐलान हुआ तब रेगुलर कलेक्टर थे मनोहर पाण्डेय। उन पर आरोप लगा कि जोगी के नामंकन में कोई त्रुटि हो गई थी। मनोहर ने उसे सर्किट हाउस में जाकर सुधरवाया। इसके बाद पाठक आए और हिट विकेट हो गए। फिर गौरव द्विवेदी तीसरे कलेक्टर बन गए, जिन्होंने काउंटिंग कराया।

आईजी से आ गए एसपी पर

सीबीआई से डेपुटेशन से लौटे 2007 बैच के आईपीएस रामगोपाल गर्ग को अंबिकापुर का प्रभारी आईजी अपाइंट किया गया था। मगर कुछ दिनों से उनकी पोस्टिंग की चकरी उल्टी घूमनी शुरू हो गई है। रेंज के पुनर्गठन में सरकार ने उन्हें सरगुजा से हटाकर रायगढ़ का डीआईजी बनाया था और अब चुनाव आयोग ने दुर्ग का एसपी अपाइंट कर दिया है। चुनाव आयोग ने शलभ सिनहा की जगह उनकी पोस्टिंग की है। ठीक है सरगुजा में वे प्रभारी आईजी ही थे लेकिन एक बार रेंज में रहने के बाद डीआईजी तक चलता था...उनका रैंक भी यही है। मगर अब फिर से कप्तान...रामगोपाल को खटक तो रहा ही होगा।

इसलिए पुराने चेहरों पर दांव

बीजेपी ने 43 लोगों को पहली बार टिकिट दिया है मगर इसके साथ ही रमन सरकार के सभी 12 मंत्रियों समेत बड़ी संख्या में पुराने चेहरों पर भी दांव लगाया है। पुराने लोगों को फिर से भरोसा जताने पर पार्टी शिकवे-शिकायतों का दौर जारी है। मगर ये भी सही है कि बीजेपी के पास और कोई चारा नहीं था। जाहिर है, 60 फीसदी से ज्यादा नए चेहरों को टिकिट देने का खामियाजा पार्टी कर्नाटक में भुगत चुकी है। छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार के खिलाफ वो भाव भी नहीं कि लोग सरकार को उखाड़ फेंकने पर अमादा हो। उपर से भूपेश बघेल जैसा 18 घंटा काम करने वाला सियासी योद्धा। पार्टी के लोगों का मानना है, महत्वपूर्ण सीटों पर अगर मजबूत लोगों को टिकिट नहीं दी गई तो नए लोग भूपेश बघेल के सामने कहां टिक पाएंगे। लोकसभा की बात अलग थी...उसमें पीएम नरेंद्र मोदी का फेस था...इसीलिए नए चेहरे को मैदान में उतारकर बीजेपी 11 में नौ सीटें झटक ली। बहरहाल, 15 साल मंत्री रहे प्रत्याशियों के पास धन-बल के साथ ही चुनाव जीतने का तजुर्बा है। फिर कोई बड़ा नेता चुनाव में उतरता है तो उसके आसपास की सीटों पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। सियासी पंडितों का भी मानना है कि 12 पूर्व मंत्रियों में से कम-से-कम 10 मंत्री टक्कर देने की स्थिति में हैं। वैसे भी इस चुनाव में बीजेपी दिल मांगे मोर के फार्मूले पर काम कर रही है। परिवारवाद का विरोध करने वाली पार्टी जशपुर राजपरिवार के दो सदस्यों को चुनावी रण में उतार दिया। प्रबल प्रताप सिंह जूदेव कोटा से खड़े हुए हैं तो चंद्रपुर में उनकी भाभी संयोगिता सिंह जूदेव को पार्टी ने दूसरी बार प्रत्याशी बनाया है। हिन्दुत्व कार्ड के फेर में साजा से ईश्वर साहू को भी उतारने में पार्टी ने कोई अगर-मगर नहीं किया। ईश्वर के बेटे भूवेनश की एक सांप्रदाय के लोगों ने हत्या कर दी थी। कुल मिलाकर भाजपा का पूरा जोर सिर्फ और सिर्फ इस बात पर है कि प्रत्याशी जीतने वाला हो। और उसे अब सत्ताधारी पार्टी के मुकाबले में अगर माना जाने लगा है तो उसकी बड़ी वजह टिकिट वितरण है।

टिकिट पर दारोमदार

पिछले हफ्ते तक कांग्रेस को 51 और भाजपा को 38 सीटें देने वाले राजनीतिक प्रेक्षक अब कुछ बोलने की स्थिति में नहीं है। सभी को कांग्रेस की टिकिट का इंतजार है। जाहिर है, कांग्रेस जितने चेहरे बदलेगी, पार्टी का पलड़ा उतना भी भारी होगा। क्योंकि, विरोधी भी मानते हैं कि सरकार के खिलाफ उतना एंटी इंकाम्बेंसी नहीं, जितना विधायकों और मंत्रियों के खिलाफ। पार्टी के लोगों का ही कहना है कि बड़ी संख्या में चेहरे बदलने होंगे, जीतने वाले प्रत्याशियों पर ही दांव लगाना चाहिए। हालांकि, दिल्ली से टिकिट पर मंत्रणा कर लौटे सीएम भूपेश बघेल ने भी यही कहा, जीतने वाले नेताओं के फार्मूले पर टिकिट दिए जाएंगे।

सियासी सबक

बिलासपुर इलाके के एक बड़े नेता के चेला ने उन्हें ऐसा सबक दिया कि नेताजी अब शायद ही किसी पर भरोसा करें। हुआ यूं कि पार्टी में टिकट को लेकर पैनल बनाते समय नेताजी ने सोचा कि सिंगल नाम देने से बेहतर है कि अपने पुराने शागिर्द का नाम जोड़ दिया जाए। चूंकि शागिर्द काफ़ी पुराना और मददगार है। लिहाजा, उन्हे इसमें उन्हें कोई ख़तरा नज़र नहीं आया। इसी बीच उम्मीदवारों के मामले में रायशुमारी को लेकर पार्टी के एक केन्द्रीय स्तर के नेता का दौरा उनके इलाक़े में हुआ। चेला ने अपने घर में लंच देने की पेशकश की तो सामान्य सी बात समझकर नेताजी ने हामी भर दी। लेकिन जब वे केन्द्रीय नेता को लेकर लंच के लिए चेले के घर पहुंचे तो वहां का आलम देखकर सकते में आ गए। वहां पार्टी पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं का जमावड़ा लगा था...महिला नेत्रियां केंद्रीय नेता पर पुष्पवर्षा कर रही थीं। यानी गुरू को डॉज देकर टिकिट के लिए पूरा शक्ति प्रदर्शन। काफ़िला पहुंचते ही नेताजी ने अपने पार्टी के लोगों से पूछ लिया कि “तुम लोगों को यहां किसने बुलाया....।” लेकिन जवाब मिलने से पहले ही पूरा माज़रा उन्हें समझ में आ गया कि...टिकट के इस मौसम में शागिर्द की भी आत्मा जाग गई है। नेताजी को अब पैनल में नाम जोड़वाने की भूल समझ में आ गई। मगर इस भूल के बदले उन्हे जो कुछ भी मिला, उसे सबक समझकर सीने से लगाने के अलावा उनके पास और कोई चारा भी नहीं। क्य़ोंकि आगे चुनाव है। व्यवस्था आखिर चेले को ही करनी है।

अंत में दो सवाल आपसे

1क्या चुनाव में उल्टा पड़ने की वजह से ईडी के छापों पर ब्रेक लग गया है?

2. भाजपा द्वारा जशपुर में पैलेस विरोधी पुअर प्रत्याशी उतारने के पीछे क्या समीकरण है?

शनिवार, 7 अक्तूबर 2023

Chhattisgarh Tarkash: बीजेपी को 38 सीट

 


तरकश, 8 अक्टूबर 2023

संजय के. दीक्षित

बीजेपी को 38 सीटें!

विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आता जा रहा है, रोमांच और बढ़ता जा रहा है। सभी चौक-चौराहों पर यही सवाल है...क्या होगा, कांग्रेस की जीत का परसेप्शन कायम रहेगा या फिर बीजेपी आखिरी समय में कुछ कर डालेगी। वैसे, विभिन्न सर्वे में बीजेपी की सीटें बढ़ी हैं। दो-तीन महीने पहिले लोग पार्टी को 30 पर समेट दे रहे थे मगर अब सीटों की संख्या बढ़कर 38 पर पहुंच गई है। सीटों की संख्या बढ़ने में बड़ी वजह जीतने वाले प्रत्याशियों को टिकिट देना है। छत्तीसगढ़ के चुनाव में बीजेपी ने जीत के लिए पुरानी मिथकों को तोड़ते या यों कहें कि सीमाओं को नजरअंदाज करते हुए ऐसे प्रत्याशियों को चुन-चुनकर टिकिट दे रही है, जो जीत सकता है। मसलन, लुंड्रा से प्रबोध मिंज ईसाई समुदाय से आते हैं। जशपुर इलाके में बीजेपी और मिशनरी का द्वंद्व सर्वविदित है। इसके बावजूद प्रबोध जीतने वाले कंडिडेट हैं, तो पार्टी ने उन्हें टिकिट देने में कोई किन्तु-परन्तु नहीं किया। बताते हैं, अमित शाह रायपुर के दो दौरों में पूरा कंसेप्ट दे गए कि किस तरह जीतने वाले प्रत्याशियों को छांट कर मैदान में उतारना है। प्रदेश प्रभारी ओम माथुर और सह प्रभारी नीतिन नबीन उसे फॉलो करवा रहे हैं। अब देखना दिलचस्प होगा कि सर्वे में आ रही बीजेपी की 38 सीटें और बढ़कर सरकार बनाने की स्थिति में पहुंचती है या इसी के आसपास सिमट जाएगी।

सीईसी और जोखिम

चुनाव के दौरान राज्यों के चीफ इलेक्शन आफिसर को असीमित पावर मिल जाते हैं मगर इसके साथ ही उनकी भूमिका जोखिमपूर्ण हो जाती है...बिल्कुल तलवार की धार पर चलने जैसा। एक्शन न लिए तो चुनाव आयोग हड़काएगा और कुछ कर दिए तो फिर सत्ताधारी पार्टी की नाराजगी। सबसे बड़ा खतरा होता है सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ कोई एक्शन लिए और सरकार रिपीट हो गई तो समझो कि पांच साल फिर वनवास में ही गुजरेगा। छत्तीसगढ़ में अभी चार विधानसभा, लोकसभा चुनाव हुए हैं, इनमें दो सीईसी से सरकार नाराज हो गई और उन्हें डेपुटेशन पर जाना पड़ गया। 2003 के पहले चुनाव में केके चक्रवर्ती हाई प्रोफाइल आईएएस थे। एसीएस रैंक के। वे राज्य सरकार के प्रेशर में नहीं आए। चुनाव के जस्ट बाद वे सेंट्रल डेपुटेशन पर चले गए। इसके बाद 2008 के चुनाव में डॉ0 आलोक शुक्ला सीईसी और गौरव ि़द्ववेदी एडिशनल सीईओ रहे। उस समय डीजीपी विश्वरंजन समेत कई अफसरों को हटाने को लेकर सरकार दोनों से नाराज हो गई थी। स्थिति यह हो गई कि दोनों सेंट्रल डेपुटेशन पर चले गए। गौरव द्विवदी को तो एनओसी भी नहीं मिल रही थी। मुश्किल से वे जा पाए। हालांकि, आलोक शुक्ला के डेपुटेशन से लौटने से पहले सरकार की नाराजगी खतम हो गई थी। तभी दिल्ली से रिलीव होने से पहले ही रमन सरकार ने 2017 में उन्हें हेल्थ और फूड विभाग का प्रमुख सचिव बना दिया था। बहरहाल, 2014 के विधानसभा चुनाव के समय सुनील कुजूर सीईसी थे। उनसे ऐसी नाराजगी हुई कि आईएएस एसोसियेशन के अध्यक्ष बैजेंद्र कुमार को उन्हें प्रमुख सचिव बनाने के लिए हल्ला करना पड़ा। तब जाकर कुजुर पीएस प्रमोट हो पाए। फिर भी 2013 से लेकर 2018 तक वे बियाबान में रहे। 2018 के चुनाव में सीईओ सुब्रत साहू थे। चूकि तब सरकार बदल गई इसलिए सत्ताधारी पार्टी नाराज थी या खुश, इसका कोई मतलब नहीं रहा। हां, इतना जरूर रहा कि उन्होंने विपक्ष को नाराज भी नहीं किया। इसका फायदा उन्हें यह मिला कि पिछले चार साल से वे सत्ता के सबसे पावरफुल गलियारा सीएम सचिवालय को वे संभाल रहे हैं।

दलित और आदिवासी कार्ड

राज्य सरकार ने चुनाव के ऐन पहले नकली आदिवासी को लेकर अजीत जोगी से लंबी लड़ाई लड़ने वाले संतकुमार नेताम को पीएससी का मेम्बर बना दिया। तो उधर नौ महीने के ब्रेक के बाद पूर्व डीजी गिरधारी नायक को फिर से मानवाधिकार आयोग का प्रमुख बनने का रास्ता साफ कर दिया। जाहिर है, नेताम आदिवासी वर्ग से आते हैं तो नायक अनुसूचित जाति से। याने इस पोस्टिंग में दोनों वगों को संतुष्ट किया गया है।

दूसरे अफसर, दूसरी पोस्टिंग

दूसरी बार पोस्ट रिटायरमेंट पोस्टिंग का सौभाग्य हासिल करने वाले गिरधारी नायक सूबे के दूसरे अफसर होंगे। उनसे पहिले एक्स चीफ सिकरेट्री विवेक ढांड को यह मौका मिल चुका है। सीएस से वीआरएस लेने के बाद उन्हें पिछली सरकार ने रेरा का चेयरमैन बनाया था और इस साल वहां से कार्यकाल खतम होने पर उन्हें नवाचार आयोग का प्रमुख बनाया गया है। इसी तरह डीजी से रिटायर होने पर भूपेश सरकार ने नायक को मानवाधिकार आयोग का सदस्य सह प्रभारी चेयरमैन बनाया और अब फिर से इसी पद पर। इन दोनों के अलावा किसी और अफसर को दूसरी बार पोस्ट रिटायरमेंट पोस्टिंग का दृष्टांत याद नहीं आता।

जय बजरंग बली

आचार संहिता में जैसे-जैसे देर हो रही है अधिकारियों की स्थिति विकट होती जा रही...सभी बजरंग बली की दुहाई दे रहे...हे संकटमोचक...जल्दी चुनाव का ऐलान करवा दो। दरअसल, आखिरी समय में अफसर अपना कलम फंसाना नहीं चाहते और मंत्री चाहते हैं, सारा काला-पीला जो हुआ है, उसे वे कागजों में दुरूस्त कर दें। कई मंत्री टेंडर, ठेका की फाइलें इधर-से-उधर करा रहे हैं तो कुछ की कोशिश है आचार संहिता के पहले लंबित और पेचिदा मामलों का निबटारा कर दें। अफसरों के सामने दिक्कत है कि ना किए तो मंत्री नाराज और कर दिए तो फंसे। जिन अफसरों का पेट गले तक भर गया है, वे भी अब अपना कलम नहीं फंसाना चाह रहे।

अंत में दो सवाल आपसे

1. छत्तीसगढ़ में दोनों बड़ी पार्टियों की टिकिट फंस क्यों गई है?

2. आचार संहिता से पूर्व कुछ कलेक्टरों और पुलिस अधीक्षकों को घबराहट क्यों हो रही है?