रविवार, 13 नवंबर 2022

बिना काम के कुलपति

 संजय के. दीक्षित

तरकश, 13 नवंबर 2022

बिना काम के कुलपति

छत्तीसगढ़ के उद्यानिकी और वानिकी विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति डॉ0 आरएस कुरील के कुलपति बने करीब एक बरस हो गए हैं। मगर उनके पास न दफ्तर है न कोई काम। वे कृषि विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस में एक साल से समय काट रहे हैं। दरअसल, सरकार ने पिछले साल इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय का बंटवारा कर उद्यानिकी और वानिकी विवि बनाने का फैसला किया था। इसके लिए कुलपति की नियुक्ति भी हो गई। मगर विवि के बंटवारे का काम अभी नहीं हो पाया है। अभी भी प्रदेश के डेढ़ दर्जन से अधिक हार्टिकल्चर कॉलेज इंदिरा गांधी कृषि विवि से संबद्ध हैं। इनमें 16 सरकारी कॉलेज हैं। इनका सारा कंट्रोल कृषि विवि से हो रहा है...दाखिले से लेकर परीक्षा तक। जबकि, उद्यानिकी और वानिकी विवि को अलग करने के लिए चीफ सिकरेट्री से लेकर एपीसी तक को राजभवन तलब किया जा चुका है।

नौकरशाही की लापरवाही!

जाहिर है, कोई नया विश्वविद्यालय खुलता है तो उसके पहले कुलपति की नियुक्ति राज्य सरकार करती है। इसके बाद के कुलपति के चयन के लिए फिर राजभवन से प्रॉसेज होता है। राजभवन की मानिटरिंग में सलेक्शन कमेटी बनती है और फिर राज्यपाल द्वारा पेनल में से किसी एक नाम पर टिक लगाकर कुलपति अपाइंट किया जाता है। मगर छत्तीसगढ़ में प्रशासनिक लापरवाही की वजह से विकट स्थिति उत्पन्न हो गई। दरअसल, नए विवि का एक्ट बनाने के लिए इंदिरा गांधी कृषि विवि को जिम्मा दिया गया था। बताते हैं, जिन्हें एक्ट बनाना था, उनकी नजर उद्यानिकी और वानिकी विवि के कुलपति पद पर नजर थी। सो, उन्होंने प्लानिंग के तहत एक्ट में सरकार की जगह राजभवन को कुलपति नियुक्ति का अधिकार प्रस्तावित कर दिया। इस पर न एग्रीकल्चर सिकरेट्री ने ध्यान दिया और न ही विभाग के किसी और अधिकारी ने। बताते हैं, विवि के एक प्रोफेसर ने मंत्री की नोटिस में यह बात लाई थी लेकिन, मंत्रीजी ने हल्के में ले लिया। यहां तक कि पिछले साल विधानसभा के मानसून सत्र में एक्ट पेश हुआ और पारित भी हो गया। सरकार के अफसर निश्चिंत थे कि जल्दी क्या है। मगर राजभवन से जब डॉ0 आरएस कुरील की कुलपति बनाने का आदेश जारी हुआ तो अफसरशाही में हड़कंप मच गया। प्रथम कुलपति की नियुक्ति सरकार करती है तो फिर राजभवन से कैसे हो गई? जब विधानसभा में पारित एक्ट को खंगाला गया तो अफसरों के पैरों के नीचे से जमीन खिसकती नजर आई। एक्ट में साफ तौर से राजभवन का उल्लेख था। अब अधिकार था तो राजभवन ने कुलपति नियुक्त कर दिया। मगर इसमें क्लास यह भी हुआ...कृषि विश्वविद्यालय के जिस बड़े प्रोफेसर ने अपनी पोस्टिंग के लिए यह गेम किया, बाजी मार ले गए आगरा के डॉ0 कुरील। हालांकि, आपसे गुजारिश है...कुलपति डॉ0 कुरील के बारे में गुगल पर सर्च मत कीजिएगा...उनके बारे में पढ़कर आपके विश्वास को धक्का लगेगा...गूगल पर पहली खबर 47 करोड़ से शुरू होती है। बहरहाल, अब आप समझ जाइये कुलपति बिना काम के...विवि का कार्यविभाजन....मजरा क्या है।

पॉश कालोनी और कृषि भूमि

ईडी ने रजिस्ट्री विभाग से कुछ आईएएस अधिकारियों की जमीनों की रजिस्ट्री का ब्यौरा मांगा है, उसमें नित नए खुलासे हो रहे हैं। पता चला है कि एक आईएएस ने रायपुर शहर के पॉश इलाकों में प्लाट खरीदे मगर उसकी रजिस्ट्री एग्रीकल्चर लैंड दिखा कर कराई गई। याने करोड़ों की जमीन की रजिस्ट्री हजारों के रेट से। इससे सरकार के खजाने का चूना लगा।

ये खेल समझिए

रजिस्ट्री विभाग का ये खेल सालों साल से चला आ रहा है...बिना सरकार के फैसले के विरुद्ध गाइडलाइन रेट कम और जो भेंट चढा दें दे उसके लिए सारे नियम कायदे खतम। इसका एक नमूना हम आपको बताते हैं। राजधानी के भाटागांव के पास रिंग रोड पर नीलम अग्रवाल ने 16 फरवरी 2018 को 7000 हजार वर्गफुट का प्लाट लखनउ के साइन सिटी ड्रीम रियेल्टर को बेचा था। उसके लिए 4.26 करोड़ जमीन का गाइडलाइन रेट तय कर रजिस्ट्री फीस ली गई। यही जमीन 20 मार्च 2021 को साइन सिटी कंपनी ने मुंबई के मनमोहन सिंह गाबा को बेच दिया। तब रजिस्ट्री रेट घटाकर 3.64 करोड़ कर दी गई। रजिस्ट्री अधिकारी थे एसके देहारी। साइन सिटी ने मनमोहन सिंह गाबा को बेची गई जमीन फर्जीवाड़ा करते हुए फिर 18 मई 2021 को रुपेश चौबे को बेच दिया। तब रजिस्ट्री अधिकारी देहारी ने उसका गाइडलाइन रेट घटाकर 2.74 करोड़ कर दिया। याने 4.26 करोड़ से 2.74 करोड़ पर आ गया। यानी सरकारी खजाने को लगभग 15 लाख का चूना। रुपेश चौबे ने यह प्लॉट 26 जुलाई 2021 को अशोका बिरयानी को बेच दिया। इसकी रजिस्ट्री भी एसके देहारी ने की। याने एक ही जमीन चार सौ बीसी कर बार-बार बेची जाती रही और रजिस्ट्री अधिकारी आंख मूंदकर रजिस्ट्री करते रहे। अब क्लास देखिए मनमोहन गाबा ने नामंतरण कराने के लिए रायपुर के नायब तहसीलदार के यहां आवेदन लगाया तो कहा गया साइन सिटी के बाकी डायरेक्टरों के दस्तखत रजिस्ट्री में नहीं है, इसलिए नामंतरण नहीं किया जा सकता। और रुपेश चौबे के नाम पर करने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई। ये तो एक बानगी है...राजस्व और रजिस्ट्री विभाग के ऐसे-ऐसे खेल हैं कि आप जानकर हैरान रह जाएंगे।

सिस्टम किधर है...

राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ का सिस्टम कैसा काम कर रहा है इसे आप इस तरह समझिए। उपर की खबर में जिस मनमोहन सिंह गाबा का जिक्र किया गया है, उन्होंने विभागीय मंत्री जय सिंह से मिलकर लिखित शिकायत की कि उनकी खरीदी गई जमीन की रजिस्ट्री अफसरों ने बिना देखे-परखे दूसरे लोगों के नाम कर दी। चूकि जिले के रजिस्ट्री के हेड कलेक्टर होते हैं, लिहाजा मंत्री ने इसे रायपुर कलेक्टर को मार्क किया। रायपुर कलेक्टर ने शिकायात को जांच के लिए रायपुर के रजिस्ट्री अधिकारी को भेज दिया। और रजिस्ट्री अधिकारी ने इसकी जांच के लिए उसी रजिस्ट्री अधिकारी को दे दिया, जिसने पूरा खेल किया था। पता चला है, लीपापोती करके जांच की फाइल डिस्पोज कर दी गई कि कुछ गलत नहीं हुआ है। रजिस्ट्री अधिकारी आज भी अपनी कुर्सी पर जमे हुए हैं। रजिस्ट्री विभाग की अगर जांच हो जाए तो करोड़ों का खेल निकलेगा, जिसे सरकारी खजाने में जाना था, वह अफसरों की जेब में चला गया। इसी स्तंभ में हमने लिखा था...जांजगीर में सीमेंट प्लांट की माईनिंग लीज की रजिस्ट्री कौड़ियों के भाव करके महिला रजिस्ट्री अधिकारी ने सरकार को लाखों रुपए का चूना लगाया था। विभाग ने उस अधिकारी को प्रमोशन देकर और उपर की कुर्सी पर बिठा दिया। समझ सकते हैं...सिस्टम किधर है।

नया जिला

भानुप्रतापपुर विधानसभा उपचुनाव में अब बीसेक दिन बच गए हैं। वहां 5 दिसंबर को वोट पड़ेंगे और 8 को उसके नतीजे आएंगे। हालांकि, भानुप्रतापपुर मे आदिवासी आरक्षण मामले के बाद भी बीजेपी से कोई खास चुनौती मिलती नहीं दिख रही। दिवंगत विधायक मनोज मंडावी की पत्नी को टिकिट देने से जाहिर है, सहानुभूति वोट भी मिलेंगे। फिर खैरागढ़ विधानसभा उपचुनाव के ऐन मौके पर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने काउंटिंग के अगले दिन खैरागढ़ को नया जिला बनाने का ऐलान कर दिया था, उसको देखते भानुप्रतापपुर के लोगों की उम्मीदें बढ़ गई हैं। सियासी पंडितों का मानना है कि भानुप्रतापपुर अगर जिला बना तो हो सकता है, उसके साथ अंतागढ़ भी जुड़ जाए। दोनों में 30 किमी का डिस्टेंस है। बलौदाबाजार और भाटापारा में भी लगभग इतना ही डिस्टेंस होगा। मगर जिले का नाम बलौदाबाजार-भाटापारा हैं। वैसे, संसाधनों में भानुप्रतापपुर अंतागढ़ से आगे है। अंतागढ़ के एडिशनल कलेक्टर भानुप्रतापपुर में रहते हैं। बता दें, अंतागढ़ और भानुप्रतापपुर की जिले की पुरानी दावेदारी है। ब्रिटिश काल में जब रायपुर जिला था, तब बस्तर और अंतागढ़ उसके दो तहसील थे। इस समय बस्तर में सात जिले बन गए हैं और अंतागढ़ वहीं का वही रह गया। उसी तरह भानुप्रतापपुर से बेहद छोटे सुकमा, बीजापुर और नारायणपुर जैसे ब्लॉक जिला मुख्यालय बन गए। मगर भानुप्रतापपुर की जिले की मांग पूरी नहीं हो पाई।

हमारी बीजेपी किधर है?

बीजेपी में राष्ट्रीय सह संगठन मंत्री से लेकर प्रदेश अध्यक्ष, नेता प्रतिपक्ष तक बदल गए। नए चेहरे के साथ रायपुर में भाजयुमो का और बिलासपुर मे महिला मोर्चे का जंगी प्रदर्शन भी हो गया। बावजूद इसके पार्टी में वो बात नहीं दिख रही, जो चुनाव के साल भर पहले होनी चाहिए। 2002 में भाजपा गजब की एकजुट हो गई थी। सौदान सिंह पूरे फार्म में थे। हालांकि, राष्ट्रीय सह संगठन मंत्री अजय जामवाल अभी नए हैं...वे चीजों को समझने के लिए लगातार नेताओं और कार्यकर्ताओं से मिल रहे, उनके यहां भोजन करने जा रहे। प्रदेश अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष का भी वो जोर नहीं दिख रहा, जिसकी उनकी नियुक्ति के समय चर्चा थी। भानुप्रतापपुर उपचुनाव के लिए 20 दिन का समय बच गया है। पार्टी का वहां अभी तक कोई कार्यक्रम नहीं हुआ है और न ही कोई बड़े नेता वहां पहुंचे हैं। तुर्रा यह कि जो जिम्मेदार पदों पर बिठाए गए हैं, वे भी अपने अधिकारों को लेकर कांफिडेंस में नहीं दिख रहे हैं। बीजेपी का हर दूसरा बड़ा नेता असंतुष्ट दिख रहा है। इसका असर भानुप्रतापपुर उपचुनाव पर पड़ेगा ही...ये हम नहीं कह रहे। पार्टी के कार्यकर्ता ही पूछ रहे...हमारी बीजपी किधर है।

कलेक्टरों की लिस्ट

ब्यूरोक्रेसी में कलेक्टरों की एक लिस्ट निकलने की चर्चा तेज है। कहा जा रहा है कि छोटी लिस्ट निकल सकती है। इनमें दो-तीन जिलों के कलेक्टरों को बदला जा सकता है। धमतरी कलेक्टर पीएस एल्मा को भी लंबा समय हो गया है। यूं कह सकते हैं कि सबसे अधिक समय से गर कोई कलेक्टरी की पिच पर जमा है तो वह एल्मा हैं। कुछ सीनियर कलेक्टरों को छोटे जिलों में रखा गया है। उन्हें भी सरकार उनके कद और जरूरत के हिसाब से बड़ा जिला दे सकती है। मगर पहले लिस्ट निकले....।

अंत में दो सवाल आपसे

1. बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष अरुण साव को फुल पावर मिला है या उसमें डंडी मारी जा रही है?

2. इस बात में कितनी सच्चाई है कि बस्तर के कई सीपीआई नेता कांग्रेस ज्वाईन करने का मन बना रहे हैं?



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