संजय के. दीक्षित
तरकश, 7 मई 2023
परसेप्शन की सियासत
साहू वोटरों पर डोरे डालने बीजेपी के शीर्ष नेता कबीर पंथ के गुरु प्रकाश मुनी जी के घर मत्था टेकने पहुंचे और उसके अगले दिन सत्ताधारी पार्टी ने बीजेपी के आदिवासी वोटों को टारगेट करते हुए बड़ा विकेट गिरा दिया। घटनाक्रम इतना तेज गति से हुआ कि भाजपा नेताओं को समझने, समझाने का मौका नहीं मिला और नंद कुमार साय जैसे पार्टी के समर्पित और निष्ठावान नेता ने बीजेपी को बॉय-बॉय कर दिया। चुनावी साल में साय के इस्तीफे से पार्टी को कितना नुकसान होगा, इसका पता विधानसभा चुनाव के समय चलेगा। मगर इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि परसेप्शन की लड़ाई में कांग्रेस भाजपा से आगे निकल गई। ऊपर से कांग्रेस पार्टी में सीएम भूपेश बघेल का कद बढ़ा, सो अलग। जाहिर है, देश में पिछले कुछ सालों से कांग्रेस के बड़े नेताओं के लगातार पार्टी छोड़ने की खबरें आ रही है...ऐसे समय में भूपेश ने बीजेपी के एक बड़े आदिवासी लीडर को कांग्रेस पार्टी में शामिल करा अपनी स्थिति और मजबूत कर ली है।
जोर का झटका...
नंदकुमार साय अपनी पार्टी से दुखी थे, ये बातें किसी से छिपी नहीं थी। साय खुद कई बड़े नेताओं के समक्ष अपनी पीड़ा का इजहार कर चुके थे...वे किसी भी हद तक जा सकते हैं, इसका इशारा भी। मगर शीर्ष नेताओं को लगा साय जी पूर्व की तरह फिर मान जाएंगे। दरअसल, वे पहले भी कई बार अपनी नाराजगी जाहिर कर फिर मान गए थे। यही वजह है कि भाजपा नेताओं ने उनकी बातों को हल्के में लिया और गच्चा खा गए। इस्तीफे के बाद उनके कांग्रेस प्रवेश की अटकलें चलनी शुरू हुई, तब भी पार्टी के किसी नेता को यकीं नहीं हुआ कि साय कभी कांग्रेस ज्वॉइन कर सकते हैं। एक वरिष्ठ नेता ने इस स्तंभ के लेखक से बड़े कॉन्फिडेंस से कहा... साय जी को मैं बचपन से देख रहा, वे कांग्रेस में हरगिज नहीं जाएंगे। बहरहाल, साय जैसे नेता का पार्टी छोड़ना बीजेपी के लिए किसी झटके से कम नहीं था। पार्टी के नेता दबी जुबां से स्वीकार करते हैं, सायजी के साथ बहुत अच्छा तो नहीं हुआ। 2003 में जोगी सरकार के लाठी चार्ज में पैर टूट जाने के बाद विधानसभा चुनाव आया तो उन्हें निबटाने के लिए तपकरा की बजाय सीएम अजीत जोगी के खिलाफ मरवाही में उतार दिया गया। वरना, वे नेता प्रतिपक्ष थे...चुनाव जीतने के बाद मंत्री तो बनते ही सीएम के भी दावेदार होते।
राज्य सभा में साय?
कांग्रेस ज्वॉइन करने के बाद नंद कुमार साय को लेकर सियासी गलियारों में कई तरह की बातें चल रही है। कोई बोल रहा उन्हें फलां पद दिया जा सकता है, तो सुनने में ये भी आ रहा कि अगले साल सरोज पाण्डेय का राज्यसभा का कार्यकाल खत्म हो जाएगा। उनकी जगह कांग्रेस साय को दिल्ली भेजेगी। इसकी वजह यह है कि कांग्रेस के पास राष्ट्रीय स्तर पर कोई आदिवासी चेहरा नहीं है। और स्वयं साय भी दिल्ली में रहने के इच्छुक हैं। अब देखना है, कांग्रेस उनके अनुभवों को किस तरह इस्तेमाल करती है।
आईएफएस की पोस्टिंग
संजय शुक्ला के बाद सीनियरटी की दृष्टि से सुधीर अग्रवाल पीसीसीएफ के सबसे मजबूत दावेदार थे। क्योंकि, अतुल शुक्ला अगस्त में रिटायर हो जाएंगे और उनसे पहले इसी जून में आशीष भट्ट भी। जाहिर है, टाईम कम होने से इन दोनों अधिकारियों के लिए कोई चांस बचा नहीं था। मगर श्रीनिवास राव के पीसीसीएफ बन जाने से सुधीर अग्रवाल वन बल प्रमुख बनने से चूक गए। हालांकि, पीसीसीएफ लेवल के चार सीनियर अफसरों की पोस्टिंग में सुधीर के सम्मान का सरकार ने ध्यान रखा। उन्हें वाइल्ड लाइफ का दायित्व सौंपा गया। जबकि, चर्चा यह थी कि वाइल्ड लाइफ तपेश झा को दिया जाएगा और सुधीर को वन विकास निगम भेजा जाएगा। जाहिर है, वन महकमे में पीसीसीएफ के बाद वाइल्ड लाइफ की पोस्टिंग प्रतिष्ठापूर्ण मानी जाती है।
हॉफ कौन?
1990 बैच के आईएफएस अधिकारी श्रीनिवास राव रेगुलर पीसीसीएफ बन गए मगर हेड ऑफ फॉरेस्ट फोर्स कौन होगा, इस पर अभी संशय बना हुआ है। दरअसल, राज्यों में 2.25 लाख के शीर्ष स्केल वाले तीन पद होते हैं। चीफ सिकरेट्री, डीजीपी और हेड ऑफ फॉरेस्ट फोर्स याने हॉफ। तीनों स्केल के लिए सीनियरटी देखी जाती है। और सरकार की पसंद भी। संजय शुक्ला से अतुल शुक्ला सीनियर थे मगर सीनियरिटी कम मेरिट के आधार पर संजय शुक्ला हॉफ बन गए। मगर इस समय श्रीनिवास राव से सीनियर सात अफसर हैं। समझा जाता है कि जून में आशीष भट्ट और अगस्त में अतुल शुक्ला के रिटायरमेंट के बाद पांच सीनियर आईएफएस बचेंगे। सुधीर अग्रवाल, तपेश झा, संजय ओझा, अनिल राय और अनिल साहू। इनमें से दो का सीआर काफी वीक है। बचे तीन। तीन को सुपरसीड कर श्रीनिवास राव को हेड ऑफ फॉरेस्ट फोर्स बनाना आसान होगा। मगर इससे पहले उन्हें पीसीसीएफ प्रमोट करना होगा। अभी उन्हें पीसीसीएफ का ग्रेड मिला है मगर पोस्ट एडिशनल पीसीसीएफ का है। जून में आशीष भट्ट रिटायर होंगे। और एक पद संजय शुक्ला के रिटायर होने से खाली हुआ है। याने दो पद हुआ। जून के बाद सरकार डीपीसी करके अनिल साहू और श्रीनिवास राव को पीसीसीएफ प्रमोट कर देगी। हो सकता है, इसके बाद उनका हॉफ का आदेश भी हो जाए। तब तक उन्हें प्रभारी रहेना होगा।
प्रचारकों का आइफोनीकरण
आरएसएस की स्थापना के बाद जब भाजपा की सरकारें नहीं होती थीं, तब प्रचारकों का जीवन भी संघर्षपूर्ण होता था। सुबह का नाश्ता किसी स्वयंसेवक के घर कर लिया तो दोपहर का भोजन किसी स्वयंसेवक और रात का भोजन किसी और के घर। इसी बहाने संपर्क हो जाता था...सामाजिक जीवन में क्या चल रहा है, यह भी पता चल जाता था। कुटुंब प्रबोधन के लिए अलग से किसी कार्यक्रम की जरूरत महसूस नहीं होती थी, क्योंकि प्रचारकों का जीवंत संपर्क होता था। आरएसएस से जो संगठन मंत्री भाजपा में आते थे, वे भी इसी तरह रहते थे। कार्यकर्ताओं के घरों में भोजन, कार्यक्रम में सीधे उपस्थिति होती थी। पार्टी में क्या चल रहा है, यह भी पता चल जाता था. संगठन मंत्री कभी कभी तो नाराज नेताओं और कार्यकर्ताओं के घर भोजन कर उन्हें मना लेते थे और बात बाहर आने से पहले सुलझ जाती थी। मगर छत्तीसगढ़ में 15 साल भाजपा की सरकार रहने से पार्टी से जुड़ा व्यापारी वर्ग और सक्षम हो गया तो प्रचारकों की तीमारदारी भी खूब होने लगी। आलम यह हो गया कि प्रचारकों का सामान्य कार्यकर्ताओं के घर आना जाना कम हो गया। संगठन मंत्रियों का नेटवर्क भी कमजोर हो गया। एक तरह से उस पद का आइफोनीकरण हो गया है। कार्यकर्ता भी कहने लगे हैं कि आईफोन में आम कार्यकर्ता की आवाज सुनाई नहीं देती। तभी तो पार्टी के दिग्गज नेता नंद कुमार साय की मनाने की बात दूर, इतना बड़ा विकेट उड़ गया, किसी को भनक तक नहीं लगी।
3 खोखा की देनदारी
भर्ती खुलने से सूबे के एक बड़े विश्वविद्यालय के कुलपति के बुझे चेहरे पर रौनक लौट आई है। दरअसल, बाजार से तीन खोखा उधारी लेकर तमाम विरोधों के बाद भी कुलपति बने। मगर उनकी नियुक्ति के कुछ दिन बाद ही आरक्षण का लोचा आ गया। कुलपतियों की कमाई नियुक्तियों या फिर बिल्डिंगों के निर्माण से होती है। कुलपति जी ने भर्ती की उम्मीद में उधारी लेकर फंस गए थे। एक बड़े व्यापारी ने तगादा शुरू कर दिया था। अब आरक्षण का ब्रेकर हटने के बाद उन्होंने अब राहत की सांस ली है।
अंत में दो सवाल आपसे
1. आईपीएस की बहुप्रतीक्षित लिस्ट किधर अटक गई है?
2. ट्रांसफर पर से बैन खुलने की चर्चाओं में कोई सच्चाई है?
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