तरकश, 8 अक्टूबर 2023
संजय के. दीक्षित
बीजेपी को 38 सीटें!
विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आता जा रहा है, रोमांच और बढ़ता जा रहा है। सभी चौक-चौराहों पर यही सवाल है...क्या होगा, कांग्रेस की जीत का परसेप्शन कायम रहेगा या फिर बीजेपी आखिरी समय में कुछ कर डालेगी। वैसे, विभिन्न सर्वे में बीजेपी की सीटें बढ़ी हैं। दो-तीन महीने पहिले लोग पार्टी को 30 पर समेट दे रहे थे मगर अब सीटों की संख्या बढ़कर 38 पर पहुंच गई है। सीटों की संख्या बढ़ने में बड़ी वजह जीतने वाले प्रत्याशियों को टिकिट देना है। छत्तीसगढ़ के चुनाव में बीजेपी ने जीत के लिए पुरानी मिथकों को तोड़ते या यों कहें कि सीमाओं को नजरअंदाज करते हुए ऐसे प्रत्याशियों को चुन-चुनकर टिकिट दे रही है, जो जीत सकता है। मसलन, लुंड्रा से प्रबोध मिंज ईसाई समुदाय से आते हैं। जशपुर इलाके में बीजेपी और मिशनरी का द्वंद्व सर्वविदित है। इसके बावजूद प्रबोध जीतने वाले कंडिडेट हैं, तो पार्टी ने उन्हें टिकिट देने में कोई किन्तु-परन्तु नहीं किया। बताते हैं, अमित शाह रायपुर के दो दौरों में पूरा कंसेप्ट दे गए कि किस तरह जीतने वाले प्रत्याशियों को छांट कर मैदान में उतारना है। प्रदेश प्रभारी ओम माथुर और सह प्रभारी नीतिन नबीन उसे फॉलो करवा रहे हैं। अब देखना दिलचस्प होगा कि सर्वे में आ रही बीजेपी की 38 सीटें और बढ़कर सरकार बनाने की स्थिति में पहुंचती है या इसी के आसपास सिमट जाएगी।
सीईसी और जोखिम
चुनाव के दौरान राज्यों के चीफ इलेक्शन आफिसर को असीमित पावर मिल जाते हैं मगर इसके साथ ही उनकी भूमिका जोखिमपूर्ण हो जाती है...बिल्कुल तलवार की धार पर चलने जैसा। एक्शन न लिए तो चुनाव आयोग हड़काएगा और कुछ कर दिए तो फिर सत्ताधारी पार्टी की नाराजगी। सबसे बड़ा खतरा होता है सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ कोई एक्शन लिए और सरकार रिपीट हो गई तो समझो कि पांच साल फिर वनवास में ही गुजरेगा। छत्तीसगढ़ में अभी चार विधानसभा, लोकसभा चुनाव हुए हैं, इनमें दो सीईसी से सरकार नाराज हो गई और उन्हें डेपुटेशन पर जाना पड़ गया। 2003 के पहले चुनाव में केके चक्रवर्ती हाई प्रोफाइल आईएएस थे। एसीएस रैंक के। वे राज्य सरकार के प्रेशर में नहीं आए। चुनाव के जस्ट बाद वे सेंट्रल डेपुटेशन पर चले गए। इसके बाद 2008 के चुनाव में डॉ0 आलोक शुक्ला सीईसी और गौरव ि़द्ववेदी एडिशनल सीईओ रहे। उस समय डीजीपी विश्वरंजन समेत कई अफसरों को हटाने को लेकर सरकार दोनों से नाराज हो गई थी। स्थिति यह हो गई कि दोनों सेंट्रल डेपुटेशन पर चले गए। गौरव द्विवदी को तो एनओसी भी नहीं मिल रही थी। मुश्किल से वे जा पाए। हालांकि, आलोक शुक्ला के डेपुटेशन से लौटने से पहले सरकार की नाराजगी खतम हो गई थी। तभी दिल्ली से रिलीव होने से पहले ही रमन सरकार ने 2017 में उन्हें हेल्थ और फूड विभाग का प्रमुख सचिव बना दिया था। बहरहाल, 2014 के विधानसभा चुनाव के समय सुनील कुजूर सीईसी थे। उनसे ऐसी नाराजगी हुई कि आईएएस एसोसियेशन के अध्यक्ष बैजेंद्र कुमार को उन्हें प्रमुख सचिव बनाने के लिए हल्ला करना पड़ा। तब जाकर कुजुर पीएस प्रमोट हो पाए। फिर भी 2013 से लेकर 2018 तक वे बियाबान में रहे। 2018 के चुनाव में सीईओ सुब्रत साहू थे। चूकि तब सरकार बदल गई इसलिए सत्ताधारी पार्टी नाराज थी या खुश, इसका कोई मतलब नहीं रहा। हां, इतना जरूर रहा कि उन्होंने विपक्ष को नाराज भी नहीं किया। इसका फायदा उन्हें यह मिला कि पिछले चार साल से वे सत्ता के सबसे पावरफुल गलियारा सीएम सचिवालय को वे संभाल रहे हैं।
दलित और आदिवासी कार्ड
राज्य सरकार ने चुनाव के ऐन पहले नकली आदिवासी को लेकर अजीत जोगी से लंबी लड़ाई लड़ने वाले संतकुमार नेताम को पीएससी का मेम्बर बना दिया। तो उधर नौ महीने के ब्रेक के बाद पूर्व डीजी गिरधारी नायक को फिर से मानवाधिकार आयोग का प्रमुख बनने का रास्ता साफ कर दिया। जाहिर है, नेताम आदिवासी वर्ग से आते हैं तो नायक अनुसूचित जाति से। याने इस पोस्टिंग में दोनों वगों को संतुष्ट किया गया है।
दूसरे अफसर, दूसरी पोस्टिंग
दूसरी बार पोस्ट रिटायरमेंट पोस्टिंग का सौभाग्य हासिल करने वाले गिरधारी नायक सूबे के दूसरे अफसर होंगे। उनसे पहिले एक्स चीफ सिकरेट्री विवेक ढांड को यह मौका मिल चुका है। सीएस से वीआरएस लेने के बाद उन्हें पिछली सरकार ने रेरा का चेयरमैन बनाया था और इस साल वहां से कार्यकाल खतम होने पर उन्हें नवाचार आयोग का प्रमुख बनाया गया है। इसी तरह डीजी से रिटायर होने पर भूपेश सरकार ने नायक को मानवाधिकार आयोग का सदस्य सह प्रभारी चेयरमैन बनाया और अब फिर से इसी पद पर। इन दोनों के अलावा किसी और अफसर को दूसरी बार पोस्ट रिटायरमेंट पोस्टिंग का दृष्टांत याद नहीं आता।
जय बजरंग बली
आचार संहिता में जैसे-जैसे देर हो रही है अधिकारियों की स्थिति विकट होती जा रही...सभी बजरंग बली की दुहाई दे रहे...हे संकटमोचक...जल्दी चुनाव का ऐलान करवा दो। दरअसल, आखिरी समय में अफसर अपना कलम फंसाना नहीं चाहते और मंत्री चाहते हैं, सारा काला-पीला जो हुआ है, उसे वे कागजों में दुरूस्त कर दें। कई मंत्री टेंडर, ठेका की फाइलें इधर-से-उधर करा रहे हैं तो कुछ की कोशिश है आचार संहिता के पहले लंबित और पेचिदा मामलों का निबटारा कर दें। अफसरों के सामने दिक्कत है कि ना किए तो मंत्री नाराज और कर दिए तो फंसे। जिन अफसरों का पेट गले तक भर गया है, वे भी अब अपना कलम नहीं फंसाना चाह रहे।
अंत में दो सवाल आपसे
1. छत्तीसगढ़ में दोनों बड़ी पार्टियों की टिकिट फंस क्यों गई है?
2. आचार संहिता से पूर्व कुछ कलेक्टरों और पुलिस अधीक्षकों को घबराहट क्यों हो रही है?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें