संजय के दीक्षित
कोरोना के दौरान ही पिछले साल 27 मई को भूपेश सरकार ने सबसे बड़ी प्रशासनिक सर्जरी करते हुए 28 में से 23 कलेक्टरों को बदल दिया था। अव्वल इस बार विधानसभा के शीतकालीन सत्र के पहले से कलेक्टरों के फेरबदल की अटकलें चल रही है। इस फेर में कई कलेक्टर मनीराम के अलावा दीगर कोई काम हाथ में ले नहीं रहे…न जाने कब बोरिया-बिस्तर बांधना पड़ जाए। कोरोना में वैसे भी लोग देख ही रहे हैं…अधिकांश कलेक्टर शतरंज की गोटी की तरह उतने ही कदम आगे बढ़ा रहे हैं, जिससे उनकी कुर्सी सुरक्षित रहे। बहरहाल, ये मई महीना कलेक्टरों को बेचैन कर रखा है। पिछले मई की तरह सरकार ने कुछ वैसा ही किया तो एक लाइन से कलेक्टर साफ हो जाएंगे। सुनने में आ भी कुछ ऐसा ही रहा है। डेढ़ दर्जन से कम कलेक्टर इस बार भी नहीं बदलेंगे। ये मई अंत तक भी हो सकता है या फिर जून के फर्स्ट वीक तक भी। जब भी हो, होगा तो बड़ा चेन्ज।
एसपी भी!
कलेक्टरों के साथ-साथ एसपी लेवल पर भी जल्द ही बड़ी उठापटक होगी। एसपी की लिस्ट भले ही दो-तीन फेज में निकले, पर संख्या कलेक्टरों के बराबर ही रहेगी। एसपी में कई का लंबा कार्यकाल हो गया है। दंतेवाड़ा एसपी डॉ अभिषेक पल्लव पिछले सरकार के समय से वहां पोस्टेड हैं। नक्सल मोर्चे पर उनका काम ऐसा है कि सरकार चाहकर भी उन्हें मैदानी इलाके में नहीं ला पा रही। उधर, कुछ एसपी प्रमोट होकर डीआईजी बनने वाले हैं। इसमें बालोद जैसे जिले खाली होंगे। जगदलपुर एसपी दीपक झा भी प्रमोशन वाली सूची में हैं। लेकिन, उनके बारे में खबर है, डीआईजी बनने के बाद भी वे वहीं रहेंगे या फिर किसी बड़े जिले में एसएसपी बनकर जा सकते हैं। जांजगीर एसपी पारुल माथुर का भी काफी समय हो गया है। इस तरह कह सकते हैं, एसपी की लिस्ट भी लंबी होगी।
सिर्फ डेढ़ साल
भूपेश सरकार के पांच में से ढाई साल निकल गए हैं। बचे सिर्फ ढाई साल। इसमें से आखिरी साल को काउंट किया नहीं जाता। छत्तीसगढ़ में नवंबर में विधानसभा चुनाव होते हैं, उससे पहिले मई से प्रशासनिक तैयारी प्रारंभ हो जाती है। कहने का आशय यह है कि सरकार के पास मोटे तौर पर डेढ़ साल बचे हैं। जाहिर है, सरकार अबकी मैदान में तेज दौड़ने वाले घोड़ों पर दांव लगाना चाहेगी। कलेक्टर हो या एसपी…का चयन इस बार थोक बजाकर किया जाएगा, ताकि डेढ़ साल में सरकार की योजनाओं में वो पंख लगा सकें। संकेत है, इस बार पोस्टिंग के मापदंड कड़े होंगे।
प्रभावशाली पीएस
प्रमुख सचिव डॉ. आलोक शुक्ला के पास पहले से स्कूल शिक्षा, तकनीकी शिक्षा के साथ व्यापमं और माध्यमिक शिक्षा मंडल के चेयरमैन का दायित्व था। सरकार ने अब कोविड के समय स्वास्थ्य और चिकित्सा शिक्षा के प्रमुख सचिव की जिम्मेदारी भी उन्हें सौंप दी है। आम आदमी से जुड़े ये दोनों विभाग नौकरशाही की डिक्सनरी में भले ही क्रीम विभाग नहीं माने जाते। लेकिन, बावजूद इसके, है तो अति महत्वपूर्ण। आखिर, अरबिंद केजरीवाल इन्हीं दोनों विभागों पर फोकस कर दूसरी बार सत्ता में आने में कामयाब हो गए। बहरहाल, आलोक पहले भी इन दोनों विभागों को संभाल चुके हैं। 2005 में वे स्कूल शिक्षा में रहे तो उसके बाद दो बार हेल्थ में। फ़ूड में सिकरेट्री रहते उन्होंने हफ्ते भर में पीडीएस का नेटवर्किंग बना दिया था तो इस बार हेल्थ में आते ही टीका पोर्टल। नए अफसरों को आलोक से काम के प्रति कमिटमेंट सीखनी चाहिए। पुराने मंत्रालय में लोगों को अच्छी तरह याद है, पीडीएस बनाते समय अपना चेम्बर छोड़कर एनआईसी के हॉल में कंप्यूटर वालों के बगल में बैठे रहते थे। काम और उसका रिजल्ट आखिर मिलता भी ऐसे ही है।
कलेक्टर मतलब?
कलेक्टर जिले का मुखिया और सरकार का नुमाइंदा होता है। पहले वो जो बोल देता था वो आदेश समझा जाता था। मगर अब ये पुरानी बात हो गई। बिलासपुर का एक वाकया हम आपको बताते हैं। वहां के कलेक्टर डॉ सारांश मित्तर ने सबसे बड़े सरकारी अस्पताल सिम्स की खामियों को दुरुस्त करने आईएएस नूपुर राशि पन्ना को प्रशासक नियुक्त करने का आदेश दिया। मगर 15 दिन बाद भी इसका क्रियान्वयन वे नहीं करा सके। पहले रोड़ा अटकाया गया कि उनका पावर नहीं है। उसके बाद अनुमोदन के लिए फ़ाइल स्वास्थ्य विभाग भेजी गई, और फिर आई, गई बात हो गई । उसी बिलासपुर का एक दृष्टांत और है। आरपी मंडल बिलासपुर के कलेक्टर होते थे। उन्होंने किसी बात पर पीडब्ल्यूडी के एसीई को सस्पेंड कर दिया। चूंकि, कलेक्टर एसीई को निलंबित नहीं कर सकता। सो, उन्होंने मौखिक ऐलान किया और तुरंत मुख्यमंत्री अजीत जोगी से बात कर ओके करा लिया।
रसूख पर सवाल
एक जमाना था जब पार्षद लेवल के नेता कलेक्टर के चेम्बर में जाने का साहस नहीं जुटा पाता था। और अब..? एक सत्य घटना है…कुछ महीने पहले की बात है, सूबे के एक बड़े राजनेता एक जिले के दौरे पर गए। वहां एक नेता को सर्किट हाउस में एंट्री नहीं मिल पाई। उसने कलेक्टर को फोन खड़कया। कलेक्टर वीवीआइपी ड्यूटी में थे, उन्होंने फोन पिक नहीं किया। नेता ने कलेक्टर को व्हाट्सएप दे मारा…कुछ दिन रुक जाओ, फलां महीने की फलां तारीख से आप नहीं हम तय करेंगे कि साहब से सर्किट हाउस में कौन मिलेगा, कौन नहीं। जाहिर सी बात है, छोटे राज्य के अफसरों की स्थिति वैसे भी बहुत अच्छी नहीं होती। पोस्टिंग जैसी चीजें अफसरों को इतना कंपा कर रखती है कि जिस अफसरी की वे सपने यूपीएससी का एग्जाम देते और मसूरी में ट्रेनिंग के दौरान देखते हैं, वे रीयल लाइफ में धराशायी हो जाते हैं। इसके लिए सिर्फ सिस्टम नहीं, बल्कि वे खुद ज्यादा जिम्मेदार होते हैं।
अब डॉक्टर लॉबी?
कोविड जैसी महामारी ऐसे ही आती रही तो खतरा ये है कि एक और लॉबी बेहद ताकतवर हो जाएगी, वो है मेडिकल लॉबी। देश में अभी सबसे सशक्त आईएएस लॉबी मानी जाती है। फिर भी उन पर सरकार का अंकुश इसलिए होता है कि पोस्टिंग को लेकर वे बेहद संजीदा होते हैं। मगर डॉक्टरों के साथ ऐसा है नहीं। प्राइवेट डॉक्टर का कुछ कर नहीं सकते और सरकारी डॉक्टर को कंट्रोल करने पर वो नौकरी छोड़ देंगे। कोविड के समय तो अच्छे-अच्छों की सुनवाई नहीं हो पा रही। राजधानी के एक नेताजी ने जो शेयर किया, उसकी आहट ठीक नहीं है। एक पूर्व मंत्री और एक वर्तमान मंत्री, यानी दो-दो सिफारिश पर वे डॉक्टर से मिलने गए। डॉक्टर के रूखा व्यवहार से वह दंग रह गए। कह सकते हैं, डॉक्टर भी अब मजबूत हो रहे हैं।
अंत में दो सवाल आपसे
1. कोविड के इस दौर में आप अनुमान लगा सकते हैं कि नर्सिंग होमों को संरक्षण देने की एवज में सीएमओ प्रतिदिन कितना कमा रहे होंगे?
2. सरकार ने मंत्रालय और इंद्रावती भवन खोल दिया है मगर कितने अफसर रोज ड्यूटी पर जा रहे हैं ?
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