संजय के. दीक्षित
तरकश, 27 मार्च 2022
सुकमा में एक अप्रिय घटना हुई...कलेक्टर हटाओ नारे लगाते हुए लोग कलेक्ट्रेट में घुस आए। वैसे, इसे सिर्फ घुसना नहीं कहेंगे...दौडते हुए लोगों ने इस मुद्रा में धावा बोला जैसे किसी पर हमला करने जा रहे हों...उस रोज जिसने भी इसका वीडियो देखा सकते में था। सुकमा जैसे संवेदनशील जिले के कलेक्ट्रेट में प्रदर्शनकारी प्रवेश कर गए और पुलिस ताकती रह गई। यह घटना इसलिए गंभीर नहीं है कि नक्सली इलाके में हुई, गंभीर इस दृष्टि से भी है कि छत्तीसगढ़ में कलेक्टर हटाओ जैसे किसी आंदोलन के दृष्टांत नहीं मिलते। राज्य बनने से पहिले रायगढ़ से हर्षमंदर और शैलेंद सिंह को हटाने के खिलाफ लोगों ने आंदोलन जरूर किया था। यह पहला मौका है कि कलेक्टर के विरोध में लोग बेरिकेट्स को धक्का देकर भीतर घुस आए। आई। इस घटना के लिए कौन जिम्मेदार है, मंत्री, कलेक्टर, एसपी या किसी दीगर पार्टी के नेता, सिस्टम को इसे संज्ञान लेना चाहिए। क्योंकि, कलेक्ट्रेट में अगर कोई बड़ी घटना हो जाती तो आखिर नाम छत्तीसगढ़ का खराब होता।
ऐसे भी कलेक्टर
पांच-छह साल पुरानी बात होगी...कहीं से लौटते समय जांजगीर में पोस्टेड एक छत्तीसगढ़िया कलेक्टर से मिलने कलेक्ट्रेट गया। वहां मुलाकातियों की करीब 50 मीटर लंबी लाईन लगी थी। अप्रैल के महीने में कलेक्टर के चेम्बर का एसी बंद, खिड़कियां खुली हुईं। कलेक्टर एक-एक आवेदन को बारीकी से नजर डालते, फिर काम क्यों नहीं हुआ, संबंधित को फोन पर निर्देश...कभी झिड़की, तो कभी जमकर फटकार। कहने का आशय यह है कि आम आदमी की समस्याओं को लेकर कलेक्टर अगर थोड़ा सा भी संजीदा हो जाए तो चीजें काफी कुछ ठीक हो सकती हैं।
डीसी की पोस्टिंग
प्रोबेशन पूरा होने के बाद सरकार ने 19 डिप्टी कलेक्टरों को जनपद सीईओ अपाइंट किया है। कांग्रेस सरकार में पहली बार एकमुश्त इतनी बड़ी संख्या में डिप्टी कलेक्टरों को जनपद सीईओ बनाया गया है। प्रशासनिक दृष्टि से देखें तो सरकार का ये अच्छा कदम है। डिप्टी कलेक्टरों को कायदे से जनपद से ट्रेनिंग मिलनी चाहिए। ये अलग बात है कि डिप्टी कलेक्टरों को जनपद पंचायतों में काम करना रास नहीं आता। ऐसा नहीं कि वहां पैसा नहीं है...पैसे भी हैं और दबाकर कमाते भी हैं। मगर रुतबा नहीं रहता। डिप्टी कलेक्टरों को ये काफी अखरता है।
बड़ा कैडर
एमके राउत जब एसीएस पंचायत थे, तब उन्होंने जनपद पंचायतों में डिप्टी कलेक्टरों को पोस्ट कराने के लिए फायनेंस को प्रस्ताव भेजा था। तब विवेक ढांड चीफ सिकेरट्री थे। ढांड भी इससे सहमत थे कि जनपद पंचायतों में डिप्टी कलेक्टरों को बिठाना चाहिए। उनके निर्देश पर वित विभाग ने 42 अतिरिक्त पदों की स्वीकृति दी थी। हालांकि, इसको लेकर डिप्टी कलेक्टर्स राउत से काफी खफा हुए थे। राउत ने डिप्टी कलेक्टरों से जनपद पंचायतों में काफी काम कराया। लेकिन, बाद में डिप्टी कलेक्टर जोर-जुगाड़ भिड़ाकर जनपदों से निकल लिए। बहरहाल, पोस्ट बढ़ने से डिप्टी कलेक्टरों का कैडर बढ़ता चला गया...इस समय करीब साढ़े तीन सौ डिप्टी कलेक्टर हो गए हैं। यही वजह है कि अब अधिकांश विभागों में डिप्टी कलेक्टर बिठाए जा रहे हैं।
पहला कलेक्टर
तरकश में पिछले दिनों एक सवाल पूछा गया था, छत्तीसगढ़ में किस कलेक्टर के नाम सबसे ज्यादा समय तक कलेक्टरी करने का रिकार्ड दर्ज है। इस सवाल पर कई जवाब आए, मगर सत्य के करीब नहीं कोई नहीं था। कुछ लोगों ने अजीत जोगी का नाम भेजा। जोगी मध्यप्रदेश के समय 11 साल कलेक्टरी की, उनका रिकार्ड आज भी कायम है। बात छत्तीसगढ़ की, तो सूबे में सबसे लंबी कलेक्टरी ठाकुर राम सिंह ने की है। पूरे नौ साल। 2008 से लेकर 2017 तक। उन्होंने बिना ब्रेक चार जिले किए हैं और चारों बड़े। रायगढ़, दुर्ग, बिलासपुर और फिर रायपुर। हालांकि, बिना ब्रेक चार जिले करने वालों में सिद्धार्थ परदेशी और दयानंद भी हैं। लेकिन, उनके टाईम राम सिंह से कम है। उनके नाम एक रिकार्ड और है। दो-दो विधानसभा, लोकसभा और नगरीय निकाय चुनाव कराने का। छत्तीसगढ़ में कई ऐसे कलेक्टर होंगे, जिन्हें एक भी चुनाव कराने का अवसर नहीं मिला। मगर राम सिंह ने 2008 और 2013 का विधानसभा तथा 2009 और 2014 का लोकसभा इलेक्शन कराया। 2013 में तखतपुर से उनका करीबी रिश्तेदार चुनाव मैदान में था, इसके बाद भी उनकी कुर्सी सलामत रही। राम सिंह की पोस्टिंग प्रोफाइल से आरआर याने डायरेक्ट आईएएस को ईर्ष्या होती होगी...रिटायरमेंट के साथ ही, राम सिंह को निर्वाचन की संवैधानिक कुर्सी मिल गई, जिस पर दीगर राज्यों में सीएस लेवल के अफसरों को बिठाया जाता है।
बदलेगा निजाम?
सत्ता के गलियारों से आ रही खबरों को मानें तो वन विभाग का निजाम बदल सकता है। सब कुछ ठीक रहा तो आईएफएस संजय शुक्ला जल्द ही वन महकमे की कमान संभाल सकते हैं। पीसीसीएफ राकेश चर्तुवेदी के स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति लेने की खबर है। वैसे, उनका रिटायरमेंट सितंबर में है। राकेश 2019 में पीसीसीएफ बने थे। सीएस, डीजीपी और पीसीसीएफ जैसे शीर्ष पदों के लिए तीन साल का समय कम नहीं, बल्कि काफी माना जाता है। राकेश चतुर्वेदी के छह महीने पहले वीआरएस लेने के बाद भी संजय शुक्ला करीब डेढ़ साल ही पीसीसीएफ रह पाएंगे। अगले साल अगस्त में उनका रिटायरमेंट है। बहरहाल, बात राकेश की तो वे माटी पुत्र तो हैं ही, सरकार से उनका इक्वेशन बहुत बढ़ियां रहा। अब तक का सवसे प्रभावशाली पीसीसीएफ उन्हें कहा जा सकता है। ऐसे अफसर की विदाई भी सम्मानजनक होगी। उन्हें किसी बड़े बोर्ड का चेयरमैन बनाए जाने की खबर है।
इन्हें मिलेगा लाभ
राकेश चतुर्वेदी अगर वीआरएस लेते हैं तो इसका सीधा लाभ 88 बैच के एडिशनल पीसीसीएफ जय सिंह महस्के को मिलेगा। महस्के जून में एसएस बजाज के रिटायर होने के बाद पीसीसीएफ बनते। लेकिन, अब वे चतुर्वेदी के वीआरएस लेते ही उनका प्रमोशन हो जाएगा। महस्के का अक्टूबर में रिटारमेंट था। बजाज के बाद बनते तो जुलाई से अक्टूबर याने चार महीने पीसीसीएफ रह पाते। हालांकि, बजाज के रिटायरमेंट के बाद बाद आशीष भट्ट तीन महीने पहले पीसीसीएफ प्रमोट हो जाएंगे। वैसे, भट्ट का नम्बर राकेश चतुर्वेदी के सितंबर में रिटायर होने के बाद आता। मगर अब वे जुलाई में पीसीसीएफ प्रमोट हो जाएंगे।
रोचक चुनाव-1
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद दंतेवाड़ा, चित्रकोट और मरवाही...तीन विधानसभा उपचुनाव हुए हैं और तीनों में कांग्रेस जीती। खैरागढ़ का ये चौथा चुनाव होगा। इस चुनाव के लिए सत्ताधारी पार्टी ने यशोदा वर्मा को तो बीजेपी ने कोमल जंघेल को प्रत्याशी बनाया है। दोनों एक ही समुदाय से आते हैं। यशोदा को महिला होने का लाभ मिलेगा तो जंघेल पिछला चुनाव मात्र 850 वोटों से जोगी कांग्रेस के दिवंगत विधायक देवव्रत सिंह से हारे थे। तब कांग्रेस तीसरे पोजिशन पर रही। मगर अब छत्तीसगढ़ की सियासत 360 डिग्री से घूम गया है। सूबे में कांग्रेस की सरकार है। लिहाजा, चुनाव अबकी रोचक होगा।
रोचक चुनाव-2
छत्तीसगढ़ के सबसे इंटरेस्टिंग विधानसभा उपचुनाव की बात करें, तो कोटा इलेक्शन की यादें ताजा हो जाती हैं। पं0 राजेंद्र प्रसाद शुक्ल के निधन के बाद 2007 में उपचुनाव हुए थे। इस चुनाव में कांग्रेस से रेणु जोगी कंडिडेट थीं और सत्ताधारी बीजेपी से भूपेंद्र सिंह। वो चुनाव इस दृष्टि से ऐतिहासिक था कि एक तरफ अजीत जोगी की रणनीतिक कौशल दांव पर था तो दूसरी तरफ तत्कालीन सरकार की प्रतिष्ठा। बीजेपी ने इस चुनाव में पूरी ताकत झोंक दी थी। वोटरों को मैनेज करने गली-गली में मंत्रियों की ड्यूटी लगाई गई। बावजूद इसके रेणु जोगी करीब 22 हजार मतों से चुनाव जीत गईं।
चावल योजना
सियासी प्रेक्षक आज भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि अगर कोटा चुनाव बीजेपी नहीं हारी होती, तो गरीबों के लिए सस्ता चावल योजना का आगाज नहीं हुआ होता। दरअसल, कोटा चुनाव के बाद सरकार हिल गई थी। उस समय अजीत जोगी बेहद पावरफुल थे। व्हील चेयर पर होने के बाद भी माना जाता था कि अगली सरकार जोगी की बनेगी। लिहाजा, रमन सरकार ने धूम-धड़ाके के साथ दो रुपए किलो चावल योजना को लांच किया। इस योजना का ही असर था कि बीजेपी 2008 का इलेक्षन निकालने में कामयाब हो गई।
अंत में दो सवाल आपसे
1. छत्तीसगढ़ का वह कौन सा जिला है, जहां इतना पैसा है कि वहां पहुंचते ही अच्छे-अच्छे अधिकारियों का ईमान-धरम डोल जाता है?
2. बजट सत्र में विधानसभा अध्यक्ष चरणदास महंत के तेवर अबकी इतने कड़े क्यों थे?
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