शनिवार, 18 फ़रवरी 2023

5 जिलों में डीआईजी

 संजय के. दीक्षित

तरकश, 19 फरवरी 2023

5 जिलों में डीआईजी

यह पहली बार होगा कि सूबे के पांच जिलों में डीआईजी कप्तानी कर रहे हैं। इससे पहले रायपुर, बिलासपुर और दुर्ग में ही डीआईजी को जिले की कमान सौंपी जाती थी। मगर एसपी लेवल पर अधिकारियों की कमी के चलते अब डीआईजी वाले जिलों की संख्या बढ़ गई हैं। इस समय रायपुर, बलौदाबाजार, गरियाबंद, जशुपर और बस्तर में डीआईजी बतौर एसएसपी पोस्टेड हैं। इनमें दीपक झा और अमित कांबले भी शामिल हैं। दीपक झा रायगढ़, बस्तर और बिलासपुर जैसे बड़े जिले के एसपी रहने के बाद बलौदा बाजार जैसे छोटे जिले में तैनात हैं। इसी तरह अमित कांबले 2017 में गरियाबंद जिले के एसपी थे। वहीं से वे सेंट्रल डेपुटेशन में गए। वहां से लौटने पर पिछले साल उन्हें अंबिकापुर का एसपी बनाया गया। और अब डीआईजी बनने के बाद फिर से गरियाबंद एसपी। याने पांच बरस पहले जहां से उन्होंने एसपी की पारी शुरू की, फिर वहीं पहुंच गए। इसमें खबर यह है कि चूकि डीआईजी वाले जिलों की संख्या पांच हो चुकी है, इसलिए समझा जाता है कि बजट सत्र के बाद एसपी की एक और लिस्ट निकलेगी।

पोस्ट रिटारमेंट पोस्टिंग?

गर किसी आईएएस को सरकार में पोस्ट रिटायरमेंट पोस्टिंग दी जाती है, तो आमतौर पर उसकी मूल पोस्टिंग इलेक्ट्रॉनिक्स या संसदीय कार्य सचिव की होती है। 31 जनवरी को कई विभागों के एमडी और सिकरेट्री से रिटायर किए निरंजन दास भी सिकरेट्री इलेक्ट्रॉनिक्स बनाए गए। फिर उन्हें कई जिम्मेदारियां सौंपी गई। जाहिर तौर पर लोगों के मन में स्वाभाविक जिज्ञासा होगी कि रिटायर अफसरों को इलेक्ट्रॉनिक्स और संसदीय कार्य सिकरेट्री ही क्यों। दरअसल, रमन सरकार में पहली बार संविदा के लिए तीन पद क्रियेट किए गए थे। तीनों गैर कैडर पोस्ट। इलेक्ट्रॉनिक्स, संसदीय कार्य सचिव और सिकरेट्री टू सीएम। पिछली सरकार में अमन सिंह की मूल पोस्टिंग इलेक्ट्रानिक सिकरेट्री थी। और एमके त्यागी का संसदीय कार्य सचिव। इस सरकार में डॉ. आलोक शुक्ला की मूल पोस्टिंग संसदीय  कार्य सचिव है। डीडी सिंह का सिकरेट्री टू सीएम। फंडा यह है कि सिकरेट्री के सारे पद आईएएस के कैडर पोस्ट हैं। सिर्फ इलेक्ट्रॉनिक्स, संसदीय कार्य सचिव और सिकरेट्री टू सीएम पद को छोड़कर। रिटायरमेंट के बाद अगर किसी आईएएस को कैडर पोस्ट पर बिठाया जाएगा तो डीओपीटी से ऑब्जेक्शन आ जाएगा। इसलिए, इलेक्ट्रॉनिक्स या संसदीय सचिव की मूल पोस्टिंग देकर दूसरे विभागों का अतिरिक्त प्रभार देने का आइडिया निकाला गया। बता दें, तत्कालीन चीफ सिकरेट्री सुनिल कुमार ने संविदा का नियम बनाया था। उससे पहले अमन सिंह को वीआरएस लेने के बाद सचिव बनाने पर हाई कोर्ट में चुनाती दी गई थी। चूकि सरकार ने संविदा नियम बना लिया। लिहाजा, याचिका खारिज हो गई।

25 सीट!

चुनावी साल में कांग्रेस को लेकर आम आदमी के बीच माउथ पब्लिसिटी शुरू हुई है, वह भाजपा के लिए ठीक नहीं है। आपको याद होगा...2018 के विधानसभा चुनाव से पहले भी इसी तरह की जन चर्चाएं हुई थी। ऐसा नहीं कि रमन सरकार ने काम नहीं किया...मगर लोगों ने बोलना शुरू कर दिया था...अबकी बार कांग्रेस। वजह? क्या बीजेपी ने काम नहीं किया? जवाब....काम किया है मगर अब बहुत हो गया, इस बार कांग्रेस को। वैसे भी आजकल विकास को चुनाव जीतने का पैमाना नहीं माना जाता। अजीत जोगी सरकार में सबसे अधिक कहीं विकास के काम हुए थे तो उनके गृह नगर बिलासपुर में। बावजूद इसके 2003 के विस चुनाव में कांग्रेस बिलासपुर नहीं निकाल सकी। राजेश मूणत ने रायपुर पश्चिम में कम काम नही कराए, फिर भी विकास उपध्याय के हाथों उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा। अजय चंद्राकर अपवाद हो सकते हैं...जिन्होंने कुरूद में इतने काम कराए कि कांग्रेस की आंधी में भी अपनी सीट बरकरार रखने में कामयाब रहे। बहरहाल, 15 साल तक सूबे में राज करने वाली बीजेपी की स्थिति यह है कि करना क्या है, किसी नेता को नहीं पता। न कोई प्रदर्शन, और न ही जनता का ध्यान आकृष्ट करने वाला आंदोलन। पूर्व मंत्री कोई बड़ा स्टैंड लेने की स्थिति में नही है...क्योंकि 15 साल में उनके खिलाफ कुछ-न-कुछ निकल ही जाएगा। बाकी सेकेंड लाइन कोई तैयार नहीं। जो तैयार हो रहे थे, उन्हें आगे बढ़ने नहीं दिया गया। अरुण साव को प्रदेश अध्यक्ष और नारायण चंदेल को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया तो थोड़े समय के लिए लगा कुछ बदलेगा। मगर पार्टी उसे कंटीन्यू नहीं रख सकी। पार्टी को लीड कौन कर रहा, कार्यकर्ताओं को ये समझ में नहीं आ रहा है। अरुण साव पढ़े-लिखे हैं...अच्छे वक्ता भी...मगर बड़े मामलों में बयान देने से बचते हैं। नेता प्रतिपक्ष पारिवारिक केस में उलझ गए हैं। सो, फिलवक्त उनके होने-न-होने का कोई मतलब नहीं। सियासी प्रेक्षक इस वक्त बीजेपी को 90 में से 25 सीट से अधिक देने तैयार नहीं हैं। सरकार बनाने के लिए जादुई संख्या 46 चाहिए। और अभी जो पार्टी की स्थिति है, उसमें यह दूर की कौड़ी प्रतीत हो रहा है।

शेखर दत्त का रिकार्ड

बिस्वा भूशण हरिचंदन छत्तीसगढ़ के नए राज्यपाल बनाए गए हैं। पड़ोसी राज्य ओड़िसा के रहने वाले हरिचंदन फिलवक्त आंध्रप्रदेश के राज्यपाल हैं। बलरामदासजी टंडन के बाद हरिचंदन 80 प्लस वाले छत्तीसगढ़ के दूसरे राज्यपाल होंगे। छत्तीसगढ़ के प्रथम राज्यपाल दिनेश नंदन सहाय थे। उन्हें एनडीए सरकार ने राज्यपाल बनाया था। मगर अजीत जोगी सरकार से उनके रिश्ते गर्मजोशी वाले रहे। दोनों एक-दूसरे की तारीफ करते नहीं थकते थे। सहाय को छत्तीसगढ़ इतना भा गया था कि त्रिपुरा ट्रांसफर होने पर एक सार्वजनिक कार्यक्रम के मंच पर ही भावुक हो गए थे। सहाय के बाद लेफ्टिनेंट जनरल केएम सेठ दूसरे राज्यपाल बनें। तब तक सूबे में बीजेपी की सरकार बन गई थी। और केंद्र में यूपीए की। बावजूद इसके सेठ करीब साढ़े तीन साल गवर्नर रहे। सेठ के बाद ईएसएल नरसिम्हन तीसरे राज्यपाल बनें। नरसिम्हन रिटायर आईपीएस अधिकारी थे। छत्तीसगढ़ में वे तीन साल रहे और प्रमोशन पर आंध्रप्रदेश के राज्यपाल बनकर गए। उनके बाद शेखर दत्त आए। दत्त चूकि रायपुर के कमिश्नर रह चुके थे, इसलिए छत्तीसगढ़ उनके लिए नया नहीं था। केंद्र में यूपीए की सरकार होने के बाद भी उनके सीएम रमन सिंह से मधुर संबंध रहे। शेखर दत्त के बाद बलरामदासजी टंडन राज्यपाल बने। उनका राज्यपाल रहते निधन हो गया। टंडन के बाद मध्यप्रदेश के राज्यपाल आनंदी बेन को छत्तीसगढ़ का अतिरिक्त प्रभार मिला। अतिरिक्त प्रभार में भी वे करीब-करीब साल भर रहीं। आनंदी बेन के बाद जुलाई 2019 में अनसुईया उइके राज्यपाल बनीं। छत्तीसगढ़ में सबसे अधिक समय तक गवर्नर रहने का रिकार्ड शेखत दत्त के नाम है। वे साढ़े चार साल राजभवन में रहे। 23 जनवरी 2010 से एक जुलाई 2014 तक। केएम सेठ और अनसुईया उइके का कार्यकाल करीब-करीब बराबर रहा। लगभग साढ़े तीन साल।

दूसरे राज्यपाल

सत्यपाल मलिक का नाम सबसे अधिक चार राज्यों के राज्यपाल रहने का रिकार्ड है। वे गोवा, जम्मू कश्मीर, बिहार और मेघालय के राज्यपाल रह चुके हैं। उनके बाद दूसरे नंबर पर रमेश बैस हैं। बैस त्रिपुरा, झारखंड के बाद अब महाराष्ट्र जैसे बड़े और विकसित राज्य के राज्यपाल बनाए गए हैं। दो राज्यों के राज्यपाल की फेहरिस्त में कई नाम हैं। मगर तीन बार के राज्यपाल में बैस के अलावा नेट पर कोई नाम नहीं। बहरहाल, बैसजी भले ही छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री नहीं बन पाए मगर महाराष्ट्र जैसे स्टेट का राज्यपाल बनकर अपना ग्राफ काफी ऊपर कर लिया है। पहले विधायक, लगातार सात बार के सांसद। और अब तीन राज्यों के राज्यपाल। महाराष्ट्र का राज्यपाल का मतलब है उन्होंने शीर्ष नेतृत्व का भरोसा जीता है।

अंत में दो सवाल आपसे

1. मुख्यमंत्री जिस नेता की शिकायत एआईसीसी में किए हों, उसे पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन की तीन कमेटियों में शामिल करने का क्या मतलब है?

2. ब्यूरोक्रेसी में इस बात की दबी जुबां से चर्चा क्यों है कि फरवरी लास्ट में कुछ बड़ा होगा?



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