संजय के. दीक्षित
तरकश, 26 मार्च 2023
एसपी की बड़ी लिस्ट
विधानसभा का बजट सत्र समाप्त होने के बाद पुलिस अधीक्षकों की बहुप्रतीक्षित लिस्ट निकालने की कवायद शुरू हो गई है। खबर है, इस बार सूची लंबी होगी...10 से 12 जिलों के कप्तान बदल सकते हैं। सूबे के पांच जिलों में डीआईजी को एसपी बनाकर बिठाया गया है, उनमें से अधिकांश इस बार चेंज हो जाएंगे, तो कुछ सीनियर अफसरों को बड़े जिलों की कमान सौंपी जाएगी। डीआईजी वाले जिलों में रायपुर, बस्तर, बलौदा बाजार, गरियाबंद और जशपुर जिला शामिल हैं। अब बात रायपुर से....रायपुर एसएसपी प्रशांत अग्रवाल का सब ठीक-ठाक है...लिहाजा वे अगर हटे तो किसी ठीक-ठाक जिले में जाने की संभावना ज्यादा है। रायपुर के लिए दीपक झा और अभिषेक पल्लव के नामों की चर्चा है। दीपक को बस्तर, बिलासपुर और रायगढ़ जैसे जिले संभालने का तजुर्बा है। वहीं, अभिषेक दंतेवाड़ा, जांजगीर के बाद इस समय दुर्ग के कप्तान हैं। दोनों की रेटिंग भी अच्छी है। रेटिंग कांकेर एसपी शलभ सिनहा का भी है। मगर पिछले कई महीने से उनकी चर्चा होती है मगर लिस्ट में उनका नाम छूट जा रहा। इस बार दुर्ग के लिए उनके नाम की चर्चा है। वैसे, एसपी की पिछली लिस्ट भी ठीक निकली थी और इस बार भी अच्छे नाम सुनने में आ रहे हैं। बहरहाल, इस बार की लिस्ट चुनावी नजरिये से निकाली जाएगी। जाहिर है, जिलों में जिनकी पोस्टिंग की जाएगी, वही विधानसभा चुनाव कराएंगे। ऐसे में, पोस्टिंग की संजीदगी समझी जा सकती है।
बदलेंगे कलेक्टर!
हालांकि, अभी एसपी के ट्रांसफर की तैयारी की जा रही है मगर अप्रैल फर्स्ट वीक के बाद कलेक्टरों की भी एक लिस्ट निकलने की चर्चा है। कलेक्टरों की लिस्ट ज्यादा बड़ी नहीं होगी क्योंकि अधिकांश कलेक्टरों को अभी एक साल नहीं हुआ है। 80 प्रतिशत से अधिक कलेक्टर जून में गए हैं। कलेक्टरों के साथ कुछ नगर निगमों के कमिश्नरों के साथ जिला पंचायत के सीईओ भी चेंज होंगे। रायपुर, बिलासपुर और भिलाई के निगम कमिश्नर कलेक्टर की वेटिंग लिस्ट में हैं। तीनों 2017 बैच के आईएएस हैं। 2016 बैच के कंप्लीट होने के बाद 2017 बैच का अब नंबर है। एक बड़े जिला पंचायत की सीईओ अज्ञात कारणों से लंबी छुट्टी पर चली गई हैं। पारफारमेंस बेहद पुअर होने पर कलेक्टर ने उन्हें सुना दिया, जिसके बाद सीईओ ने अवकाश ले लिया। अब वहां नया सीईओ अपाइंट किया जाएगा। इसके साथ मंत्रालय में भी कुछ सचिवों को इधर-से-उधर किया जाएगा। कई सिकरेट्रीज के पास दो-दो, तीन-तीन विभाग हैं। कुछ के वर्कलोड कम किए जाएंगे।
कलेक्टर जीरो, एसपी तीन
एक समय था, जब कलेक्टर, एसपी रेयर केस में डेढ़-दो साल से पहले हटते थे। मगर छत्तीसगढ़ बनने के बाद धीरे-धीरे टेन्योर कम होता गया। इस समय स्थिति यह है कि कलेक्टरों में दो साल कौन कहें...एक साल वाला भी कोई नहीं है। पीएस एल्मा का धमतरी में एक साल हुआ था, मगर वे भी हट गए। पिछले साल जून में 22 कलेक्टर बदले गए थे। यान जून आएगा तब जाकर किसी कलेक्टर का एक साल पूरा होगा। वो भी अगर आने वाली लिस्ट में नाम आ गया तो फिर चांस खतम। एसपी में जरूर तीन अफसर ऐसे हैं, जिनका दो साल का टेन्योर पूरा हो गया होगा। इनमें बस्तर, कांकेर और सुकमा शामिल हैं। याने तीनों बस्तर से। जगदलपुर में जीतेंद्र मीणा, कांकेर में शलभ सिनहा और सुकमा में सुनील शर्मा एसपी हैं। इन तीनों का लगभग दो साल कंप्लीट हो रहा है।
कलेक्टरों का खेला
आदिवासी जमीनों की खरीद-फरोख्त का मामला इस बार सदन में खूब गरमाया। कांग्रेस के ही कई सदस्यों ने इसको लेकर कलेक्टरों पर गंभीर आरोप लगाए। बताते हैं, छत्तीसगढ़ में आदिवासी जमीनों का सबसे अधिक खेला बिलासपुर और सरगुजा संभाग में हुआ है। बाहरी कंपनियां कलेक्टरों से मिलकर पहले अपने नौकरों के नाम पर आदिवासी जमीनों की रजिस्ट्री कराई और फिर कुछ दिन बाद अपने नाम पर पलटी करा लिया। कुछ जिलों में कलेक्टरों ने दो दिन के भीतर आदिवासी जमीन खरीदने की अनुमति दे दी। जबकि, सामान्य मामलों में कलेक्टर से अनुमति लेने में लोगों के चप्पल घीस जाते हैं। बताते हैं, बड़े आसामियों ने एक-एक केस के लिए कलेक्टरों को बड़ी रकम भेंट की। एकड़ के हिसाब से दो से पांच पेटी। अच्छे लोकेशन पर लैंड अगर हैं तो एक एकड़ के पीछे पांच पेटी कलेक्टरों ने लिए।
करप्शन में आगे
आदिवासी जमीनों का खेला हो या कोई दूसरा करप्शन...इसमें बिलासपुर, सरगुजा और बस्तर संभाग इसलिए आगे है कि क्योंकि, बड़े कद वाले जनप्रतिनिधियों का वहां बड़ा टोटा है। एक तो बड़े नेता नहीं हैं और एकाध हैं तो सीधे-साधे या फिर खुद उसी रंग में रंगे हुए। इस वजह से अधिकारियों पर नेताओं का कोई भय नहीं। बिलासपुर संभाग में दो-एक नेता ठीक-ठाक होंगे तो खटराल अधिकारियों ने उनके रेट फिक्स कर दिए हैं। यही हाल बस्तर का भी है। बिलासपुर की तरह बस्तर भी डीएमएफ संभाग है। करोड़ों रुपए हर साल डीएमएफ मिलता है कलेक्टरों को। बस्तर में तो और बड़ा खेला होता है। हालांकि, ये नहीं कहा जा सकता कि रायपुर और दुर्ग संभाग में करप्शन नहीं है...या गड़बड़ियां नहीं होती। होती हैं मगर बड़े नेता हैं, नजर रखते हैं, इसलिए अधिकारियों को वैसा फ्री हैंड नहीं, जैसा बिलासपुर और बस्तर में है।
अब सिर्फ छह महीने
विधानसभा का बजट सत्र समाप्त हो गया है। इसके साथ ही विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने में छह महीने बच गए हैं। 2018 में छह अक्टूबर को चुनाव का ऐलान हुआ था, इस बार भी इसी के आसपास डेट रहेगा। याने सरकार के पास अब काम करने के लिए अप्रैल से सितंबर तक का टाईम बच गया है। बहरहाल, समय कभी किसी का वेट नहीं करता...देखते-देखते लगभग साढ़े चार साल निकल गए, पता नहीं चला। वैसे भी, किसी नई सरकार के लिए पहला साल हनीमून पीरियड की तरह होता है। दूसरे साल में काम प्रारंभ होता है और तीसरे साल के उत्तरार्ध से रिजल्ट दिखना शुरू होता है। मगर भूपेश बघेल सरकार का हनीमून जैसे ही खतम होने को आया...कोरोना धमक आया। साल, डेढ़ साल त्राहि माम की स्थिति रही। कोरोना ठंडा पड़ा तो ढाई-ढाई साल वाला सियासी कोरोना आ गया। करीब एक साल राजनीतिक झंझावत चलता रहा। कुल मिलाकर कहें तो भूपेश बघेल को आखिरी के करीब साल भर निश्चिंत होकर बैटिंग करने का टाईम मिला।
अंत में दो सवाल आपसे
1. क्या मजबूरी रही कि भाजपा ने पूरे बजट सत्र में महिला सुरक्षा पर एक भी प्रश्न नहीं पूछा?
2. सात जिलों की कलेक्टरी कर चुके राजनांदगांव कलेक्टर डोमन सिंह को क्या आठवां जिला मिलेगा या अब पेवेलियन लौटेंगे?
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