रविवार, 8 अप्रैल 2012

तरकश, 8 अप्रैल


अब जुनेजा

बीएस मरावी के निधन के बाद बिलासपुर आईजी के लिए संजय पिल्ले, पवन देव, राजकुमार देवांगन, हिमांशु गुप्ता का नाम खूब उछला। सरगुजा से आउट होकर राजधानी लौटे राजेश मिश्रा ने भी कम कोशिशें नहीं की। मगर सरकार को इनमें से किसी का नाम हजम नहीं हुआ। पिल्ले के पास पीएचक्यू का सबसे अहम विभाग है, इसलिए उन्हें डिस्टर्ब करना वाजिब नहीं समझा गया। फिर दिसंबर तक वे एडीजी भी हो जाएंगे। सो, आईजी, सीआईडी पीएन तिवारी को बिलासपुर का टेम्पोरेरी चार्ज सौंपा गया है। टेम्पोरेरी इसलिए, क्योंकि तिवारीजी का दिसंबर में रिटायरमेंट है। और अगले साल चुनाव भी है। लिहाजा, बिलासपुर पुलिस की लड़खड़ाती पारी को संभालने के लिए सरकार दिल्ली से अशोक जुनेजा को बुला रही है। जुनेजा, वहां नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो में हैं और उनके डेपुटेशन से लौटने की प्रक्रिया तेज हो गई है। अगले महीने के अंत तक वे छत्तीसगढ़ लौट आएंगे। सरकार के रणनीतिकारों की मानें, तो यहां आमद देते ही उन्हें बिलासपुर आईजी की कमान सौंप दी जाएगी। वैसे भी, बिलासपुर की पोलिसिंग चरमरा गई है। थाने में घुस कर मारपीट की घटनाएं तो रोजमर्रा की बात हो गई है। छुटभैया नेता भी कानून को जेब में लेकर चल रहे हंै। आलम देखिए, जिस समय बीएस मरावी को अपोलो अस्पताल में भरती कराया जा रहा था, उस समय शहर के सिविल लाइन थाने के भीतर दो गुटों में धींगामुश्ती हो रही थी। बिलासपुर रेंज में आने वाले विधानसभा इलाके में भाजपा की स्थिति वैसे भी अच्छी नहीं है। बिलासपुर, जांजगीर, कोरबा और रायगढ़ की 24 सीटों में 12 कांग्रेस, 10 भाजपा और दो बसपा के पास है। गुटीय खींचतान में पार्टी की स्थिति खराब ही हुई है। खासकर बिलासपुर में। जुनेजा छत्तीसगढ़ के तीनों बड़े जिले, रायपुर, बिलासपुर और दुर्ग में कप्तानी कर चुके हैं। इसलिए सरकार को लगता है, बिलासपुर रेंज में कानून-व्यवस्था को पटरी पर लाकर पार्टी की छबि दुरुस्त कर सकते हैं।

मृत्युंजय जाप

बिलासपुर पुलिस को लगता है, जीत टाकिज के गेटकीपर के परिजनों की आह लग गई है। 2010 में वहां के एसपी जयंत थोरात के दबंग देखकर निकलते समय पुलिस की पिटाई से गेटकीपर की मौत हो गई थी। इसके बाद वहां पुलिस की हालत क्या है, सबके सामने है। दो साल में छह आईपीएस बदल गए और 19 दिन में दो चल बसे। कुछ तो बिना खाता खोले पेवेलियन लौट आए। जवानों की दबंगई से थोरात उबर भी नहीं पाए थे कि सुशील पाठक की हत्या हो गई। इसके बाद अजय यादव एसपी बनें। मगर अनुभवहीनता उन्हें ले डूबी। मैनेजमेंट के युग में सत्ताधारी पार्टी के दिग्गज सांसद को भी वे मैनेज नहीं कर सकें। उल्टे सरकार के लिए मुसीबत खड़ी कर दी। उसके बाद क्या हुआ, बताने की जरूरत नहीं। बिलासपुर में नए आईजी की पोस्टिंग के पहले सरकार एक बार मुहुर्त दिखवा लें तो अच्छा होगा.....पीएचक्यू को भी बिलासपुर में मृत्युंजय पाठ वगैरह कुछ करा देना चाहिए। क्योंकि, अबकी कोई विकेट गिरा तो समझिए क्या होगा? अधिकारियों का मन मचलेगा, तब भी उनकी घरवाली बिलासपुर नहीं जाने देंगी।  

रिकार्ड

बीएस मरावी नहीं रहे, मगर एक रिकार्ड जरूर वे अपने नाम कर गए.....सबसे अच्छी पोस्टिंग का। प्रमोटी आईपीएस होने के बाद भी छह जिलों के एसपी रहे। मध्यप्रदेश में दो और छत्तीसगढ़ में चार जिले.....रायपुर, बिलासपुर में एसएसपी और सरगुजा, जशपुर में एसपी। छत्तीसगढ़ में डायरेक्टर आईपीएस भी चार जिले से अधिक नहीं किए। यही नहीं, मरावी ट्रांसपोर्ट में भी रहे। ट्रांसपोर्ट में रहने का मतलब आप समझ सकते हैं। आदिवासी अफसर को ट्रांसपोर्ट में रहने का मौका शायद ही किसी राज्य में मिला हो। आईजी रेंज में भी उन्होंने सरगुजा किया और इसके बाद बिलासपुर गए थे और कयास थे, एक बार रायपुर में भी उन्हें मौका मिलेगा। मगर वक्त को यह मंजूर नहीं था।

मलाल

कहते हैं, आदमी को सब चीज नहीं मिलती। भाजपा सरकार में रिकार्ड पोस्टिंग पाने वाले बीएस मरावी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। मरावी पीएचक्यू की अंदरुनी राजनीति के शिकार हो गए। इस वजह से उन्हें गलेंट्री अवार्ड नहीं मिल पाया। याद होगा, सरगुजा के आईजी रहने के दौरान नक्सली मुठभेड़ में मरावी ने बहादुरी से मोर्चा संभाला और जख्मी हुए। मगर मुठभेड़ की फर्जी कहानियां गढ़कर कई आला आईपीएस को गलेंट्री अवार्ड दिला देने वाला पीएचक्यू ने अवार्ड के लिए सरकार के पास मरावी का नाम ही नहीं भेजा। पीएचक्यू की अनुशंसा के बाद ही राज्य सरकार केंद्र को नाम भेजती है। अदम्य बहादुरी के लिए दिया जाने वाला गलेंट्री अवार्ड पुलिस का सबसे प्रतिष्ठित अवार्ड माना जाता है। इस अवार्ड के मिलने पर ताउम्र एक अटेंडेंट के साथ ट्रेन के एसी टू का पास, टेलीफोन फ्री, हवाई यात्रा में रियायत, मासिक भत्ता जैसी अनेक सुविधाएं मिलती है। अपने ही वरिष्ठों के रवैये से मरावी बेहद आहत थे और सीने में गलेंट्री का मलाल लिए चले गए।

संकट

बीएस मरावी के निधन से सरकार के माथे पर बल पड़ गए हैं। आखिर, आदिवासी कोटे की भरपाई कैसे किया जाए। असल में, आदिवासी अफसरों में मरावी की सुलझे अधिकारी में गिनती होती थी। निर्विवाद तो थे ही, काम से ज्यादा उन्हें कोई मतलब नहीं रहता था। दम-खम में भी कमी नहीं थी.....रायपुर के एसएसपी रहने के दौरान उन्होंने ही बिनायक सेन को गिरफ्तार किया था। आदिवासी अधिकारियों में मरावी सरीखे अधिकारियों का टोटा है। देखा नहीं आपने, कांकेर में रोजगार गारंटी घोटाले के बाद भी सरकार ने धनंजय को सरगुजा का कलेक्टर बनाया। मगर उन्हांेने थोड़े ही दिन में ऐसा जलजला दिखाया कि सरकार को जवाब देते नहीं बन रहा। मरावी जिस विभाग में रहे, वहां कोई विवाद नहीं हुआ और सरकार को कहने के लिए भी था कि हमने अहम जिम्मेदारी आदिवासी अधिकारी को दिए हैं। सरकार के रणनीतिकार अब उलझन में हैं।

सर्जरी

बजट सत्र के बाद कलेक्टरों की एक लिस्ट निकलने की संभावना थी। मगर अब ग्राम सुराज तक के लिए यह टल गया है। याने अप्रैल आखिर या मई फस्र्ट वीक तक ही मान कर चलिए। तब तक राज्य प्रशासनिक अधिकारियों को आईएएस अवार्ड का मामला भी क्लियर हो जाएगा। और अंदर की खबर है, छोटी लिस्ट कहीं, बड़ी लिस्ट में न बदल जाए। क्योंकि, सरकार पुअर पारफारमेंस की वजह से नए जिले के भी दो-एक कलेक्टरों को बदलने पर विचार कर रही है।

अंत में दो सवाल आपसे

1. पुलिस मुख्यालय के किस अधिकारी के चलते बीएस मरावी को गेलेंट्री अवार्ड के लिए नाम नहीं भेजा जा सका?
2. बजट सत्र निर्धारित समय से पहले समाप्त करने पर विपक्ष कैसे तैयार हो गया?

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