शनिवार, 23 नवंबर 2013

तरकश, 24 नवंबर

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नाट आउट

अबकी विधानसभा चुनाव में छत्तीसढ़ के ब्यूरोकेे्रट्स के नाट आउट रहने का भी एक रिकार्ड बना। आमतौर पर फ्री एंड फेयर चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग आचार संहिता प्रभावशील होते ही कुछ आईएएस, आईपीएस अफसरों को निबटा देता है। ठीक कौवा मारकर टांगने के समान। 2008 के चुनाव में तो तत्कालीन डीजीपी विश्वरंजन भी आयोग के शिकार हो गए थे। पहली बार बड़ी संख्या में आईएफएस अफसरों पर भी कार्रवाई हुई थी। इस बार भी कुछ अफसरों का हटना लगभग तय माना जा रहा था। इनमें बिलासपुर के कलेक्टर ठाकुर राम सिंह ठाकुर का नाम भी था।उनके निकटतम रिश्तेदार तखतपुर से चुनाव लड़ रहे थे। आयोग के इतिहास में इससे पहले किसी प्रत्याशी का करीबी संबंधी ने चुनाव नहीं कराया। हटने की चर्चा तो जांजगीर कलेक्टर पी अंबलगन और कोरबा एसपी रतनलाल डांगी की भी थी। मगर आयोग ने नाहक किसी अफसर को हटाकर डिमरलाइज नहीं किया। जहां जरूरत महसूस हुई, वहां भले ही ओएसडी नियुक्त कर दिया। वो भी मतदान के दो दिन पहले। हालांकि, आचार संहिता के पहले सितंबर में कवर्धा कलेक्टर बदलने पर चुनाव आयोग ने भृकुटी जरूर चढ़ाई थी। मगर चीफ सिकरेट्री ने उन्हें कंविंस कर लिया था। कुल मिलाकर इससे छत्तीसगढ़ की ब्यूरोक्रेसी की के्रडिबिलिटी बढ़ी है।

महिला सीट

महिलाओं के लिए भले ही 30 फीसदी आरक्षण लोकसभा में पारित नहीं हो पाया मगर छत्तीसगढ़ में कुछ सीटें तो महिलाओं के लिए स्वमेव रिजर्व हो गए हैं। राज्य बनने के बाद से सारंगढ़ सीट महिलाएं जीत रहीं है। पहले काम्दा जोल्हे और उसके बाद पदमा मनहर। इस बार पदमा के खिलाफ भाजपा ने भी महिला प्रत्याशी को उतार दिया है। इसी तरह दुर्ग ग्रामीण में कांग्र्रेस की प्रतिमा साहू, भाजपा से रमशीला साहू और स्वाभिमान मंच से रजनी साहू किस्मत आजमा रही है। स्वाभिमान मंच को सबसे ज्यादा कहीं उम्मीद है तो वह दुर्ग ग्रामीण ही है।

जातिवाद की फसल

स्वाभिमान मंच ने पिछले चुनाव में जातिवाद का जो बीज रोपा, इस बार उसमें खाद-खरी डालने में भाजपा और कांग्र्रेस भी आगे रही। भाजपा ने जहां 16 साहू को मैदान में उतारा, तो काग्रेस ने भी सोशल इंजीनियरिंग में कोई कमी नहीं की। बेलतरा में जीतने वाले दावेदारों को छोड़कर भूवनेश्वर यादव को इसलिए टिकिट दे दी कि एक यादव को एडजस्ट करना था।

आखिरी चुनाव

टिकिट वितरण के दौरान सूबे में जिस तरह नजारे दिखे, उससे लगता है आने वाले चुनाव मे हालत और बिगड़ेंगे। और छत्तीसगढ़ में झारखंड। भाजपा जैसी पार्टी में अनुशासन तार-तार हुए। झंडा बैनर लिए भाजपा नेता एकात्म परिसर पहुंच गए। तो जमकर बगावतें भी हुई। कांग्र्रेस की स्थिति भी इससे जुदा नहीं थी। दोनों ही पार्टियों को एक-एक दर्जन नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाना पड़ा है। असल में, विधायकी में इतना पैसा, पावर और पहुंच बन जाती है कि कोई भी मौका छोड़ना नहीं चाह रहा है। हर नेता को लगता है कि एक बार मामला हाथ से निकल गया तो पता नहीं कब फिर मौका हाथ आए। सो, यह मानने वालों की कमी नहीं कि यह चुनाव फिर भी ठीक हुआ है। 2018 का चुनाव काफी टफ होगा। ऐसा टफ कि छत्तीसगढ़ के लोगों ने कल्पना नहीं की होगी।

तालाब में शराब

चुनाव से पहले विरोधी पार्टियों ने चुनाव आयोग से जमकर शिकायतें की थी, उसका खामियाजा न केवल सत्ताधारी पार्टियों को उठाना पड़ा बल्कि विरोधी पार्टी के प्रत्याशी भी हलाकान रहे। आयोग ने ऐसे चुनिंदा प्रेक्षकों को छत्तीसगढ़ भेज दिया, जो सख्ती के लिए जाने जाते हैं। उन प्रेक्षकोें ने ठंड में नेताओं को पसीना निकाल दिया। कसडोल में प्रेक्षक की गाड़ी आता देख एक पार्टी ने 407 में लगी शराब की बोतलों को तालाब में फेंक दिया। अगले दिन गांव वालों ने डूबकी लगाकर खूब बोतले ढोयी।

वेरी कंफ्यूजन

विधानसभा चुनाव में हुई बम्पर वोटिंग ने राजनीतिक पार्टियों के साथ ही सियासी पंडितों का कैलकुलेशन बिगाड़ दिया है। कोई भी दावे से बात करने तैयार नहीं। भाजपा और कांग्र्रेस उपर से जीत के दावे जरूर कर रहे हैं, मगर वस्तुस्थिति यह है कि भीतरखाने मेें स्थिति उलट है। गलियों एवं चैक-चैपालों पर चर्चा अंत में इस निष्कर्ष पर खतम हो जा रही है कि कुछ भी हो सकता है। दरअसल, इसके पीछे अपनी वजह है। 2003 और 2008 के उलट इस बार कोई इश्यू नहीं था। इस बार ऐसा कुछ ना होने के बाद 75 फीसदी से अधिक मतदान होना हतप्रभ करने का कारण तो बनता ही है। आखिर, बस्तर जैसे रिमोट एरिया मेें भी वोट डालने लोगों का हुजूम उमड़ पड़़ा। सियासी समीक्षकों का कहना है, दोनों के साथ प्लस और निगेटिव है। मुख्यमंत्री डा0 रमन सिंह की छबि बरकरार है मगर उनके मंत्रियों और नेताओं के कारनामे से लोग खुश नहीं हैं। तो कांग्रेस में अजीत जोगी ने बोलना बंद कर दिया था, इसके अलावा और कुछ दिखता नहीं। विकास यात्रा के दौरान भाजपा प्रदेश को नाप रही थी तो कांाग्रेस की स्थिति यह थी कि नामंकन के दो दिन पहले तक उसके सारे नेता दिल्ली में जमे थे। उधर, केंद्र की खुफिया रिपोर्ट्स को मानें तो बस्तर में इस बार फिर भाजपा का ही जोर रहेगा। भारी मतदान को एंट इनकंबेंसी से जोड़ने वालों के भी अपने दावे हैं। ऐसे मेें उंट किस करवट बैठेगा, बताना आसान नहीं है।

अंत में दो सवाल आपसे

1. सतनाम सेना के चुनाव मैदान में उतरने से किस पार्टी को सियासी फायदा हुआ?
2. किस अफसर के यहां ईओडब्लू का छापा पड़ना शुभ हो गया, उसकी पत्नी को टिकिट मिल गई?

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