तरकश, 9 जून 2024
संजय के. दीक्षित
अफसरों की रफ्तार और नीयत
छत्तीसगढ़ की विष्णुदेव साय सरकार ने आचार संहिता समाप्त होने के दूसरे ही दिन कांकेर कलेक्टर अभिजीत सिंह को हटा दिया मगर खबर है कि सरकार स्पीड और साफ नीयत से काम करने वाले अफसरों को प्रोटेक्शन देगी। वैसे भी, ब्यूरोक्रेसी का थंब रुल है कि अफसरों को जब तक संरक्षण नहीं दिया जाएगा, तब तक वे रिस्क लेकर काम नहीं करेंगे। जब आदमी दौड़ता है, तो उसमें गिरने के भी खतरे होते हैं। कई बार अच्छे अफसरों से कुछ चीजें चूकवश हो जाती है। सो, अभी होने वाले आईएएस, आईपीएस के ट्रांसफर में इस बात का ध्यान रखा जाएगा। दरअसल, सरकार स्पीड पर काफी जोर दे रही है। अफसर ईमानदार हों मगर कामकाज की गति धीमी हो तो न तो उससे राज्य को कोई फायदा होता और न ही सरकार को। ऐसे में, दो-एक अच्छे कलेक्टरों की छुट्टी की चर्चाएं, चर्चाएं तक रह जाए, तो आश्चर्य नहीं।
अफसरों और नेताओं को झटका
छत्तीसगढ़ के वित्त विभाग ने एक बड़ा फैसला लेते हुए किराये की गाड़ियां लेने पर ब्रेक लगा दिया है। विभाग ने आदेश जारी कर कहा है कि अगर बहुत आवश्यक हो तो वित्त से अनुमति लेने के बाद ही गाड़ियां हायर किया जाए। यह आदेश सरकार के साथ ही बोर्ड और निगमों में भी लागू होगा। इस आदेश से अफसरों के साथ ही बीजेपी नेताओं के चेहरे की रंगत भी बदली होगी। क्योंकि, गाड़ियां अफसरों की गुरूर होती है। ब्यूरोक्रेसी का सीधा सा फंडा है...जितने बड़े ठसन वाले अफसर, उतनी लग्जरी गाड़ियां। आईएएस की किसी विभाग में पोस्टिंग होती है तो ज्वाईन करते ही तस्दीक शुरू हो जाती है...सरकारी पुल के अलावा बोर्ड और निगमों से कितनी गाड़ियां मिल सकती है। खुद के अलावा एक वीबी और एक चुनमुन के लिए तो चाहिए ही। यही हाल नेताओं का भी है। मंत्रियों के बंगले में दर्जन भर गाड़ियां खड़ी नहीं तो फिर काहे का मंत्री। बीजेपी राज के कई नेताओं को लोग जानते हैं कि बोर्ड और निगमों में पोस्टिंग के बाद खुद के इस्तेमाल के लिए गाड़ी खरीदकर लगा दिए और बोर्ड से मुंहमांगा किराया भी वसूले। अपनों को उपकृत करने का भी यह बढ़ियां माध्यम है। नेता अपने करीबी समर्थकों की दो-चार गाड़ियां आफिसों में लगवा देते हैं ताकि उसके मौज-मस्ती का इंतजाम हो जाए। मगर जीएडी सिकरेट्री मुकेश बंसल ने आदेश जारी कर अफसरों और नेताओं पर बड़ा वज्रपात कर दिया।
जनपद सीईओ और सिकरेट्री बराबर
लग्जरी गाड़ियों के मामले में छत्तीसगढ़ में ऐसा रामराज है कि यहां छोटे-बड़े में कोई फर्क नहीं बच गया है। जनपद सीईओ और नगरपालिकाओं के सीएमओ जैसे छोटे मुलाजिम इनोवा में चलते हैं और मंत्रालय के सिकरेट्री भी। असिस्टेंट कलेक्टर के पास भी इनोवा और एसीएस के पास भी इनोवा। चीफ सिकरेट्री से ज्यादा लग्जरी गाड़ियों में बोर्ड के एमडी चलते हैं। दरअसल, वित्तीय भर्राशाही के चलते छत्तीसगढ़ में गाड़ियों की पात्रता मजाक बनकर रह गई। राज्य के बजट से ना सही, अफसरों ने केंद्र की योजनाओं से खरीद डाला। मंत्री और अफसर तो ठीक है, उनके पीए के पास भी लग्जरी गाड़ियां। आखिर छोटे बड़े में कुछ तो अंतर होना चाहिए.
अविभाजित एमपी, सबसे बड़े नेता
अविभाजित मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह से लेकर कमलनाथ के बेटे और पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल तक अपनी सीट नहीं बचा सके मगर चरणदास महंत ने पत्नी ज्योत्सना को चुनाव जीतवाकर अपनी रणनीति का झंडा गाड़ दिया। जाहिर है, इन दोंनों राज्यों में सिर्फ एक सीट कांग्रेस की झोली में आई, वह कोरबा से। साढे तीन दशक से एमपी और छत्तीसगढ़ की सियासत में सक्रिय महंत ने स्थानीय, छत्तीसगढ़िया और ओबीसी का ऐसा चक्रव्यूह बनाया, जिसे बीजेपी की सरोज पाण्डेय जैसी तेज-तर्रार नेत्री भी वेध नहीं पाईं। प्रधानमंत्री के सिर पर लाठी मारने वाले बयान से भी उन्हें फायदा ही मिला। उनके खिलाफ बीजेपी का गुस्सा भड़का...चुनाव आयोग ने एफआईआर कराई। महंत ने यह कहते हुए मामले को छत्तीसगढ़ियावाद तरफ मोड़ दिया कि बाहरी लोगों को छत्तीसगढ़ी आती नहीं, मेरे बोलने का मतलब ये नहीं था। लास्ट में तो ये रहा कि बीजेपी के बड़े-बड़े नेता देखते रह गए और महंत ने बीजेपी के वोट बैंक में भी सेंध लगा दिया। कह सकते हैं, इस जीत से कांग्रेस पार्टी में चरणदास का रुतबा बढ़ा है।
ब्राम्हण...बिल्कुल नहीं!
सरोज पाण्डेय को कोरबा संसदीय सीट से उतारने के समय भाजपा इतना ओवरकांफिडेंस में रही कि उसे ये सनद नहीं रहा कि मुकाबला जांजगीर और कोरबा इलाके से 35 बरस से सतत संपर्क रखने वाले चरणदास महंत से है। और यह भी कि, 2009 में कोरबा लोकसभा सीट बनने के बाद बीजेपी का ब्राम्हण कंडिडेट कभी जीता नहीं। 2009 में करुणा शुक्ला हारी और 2019 में ज्योतिनंद दुबे। 2014 में ओबीसी से वंशीलाल महतो को बीजेपी ने टिकिट दिया और वे जीते भी। दरअसल, कोरबा लोकसभा इलाके में आठ में से छह विधानसभा बीजेपी के पास है, इसी में वह गच्चा खा गई। बहरहाल, बीजेपी के तीसरे ब्राम्हण उम्मीदवार की हार के बाद कोरबा में कोई भी पार्टी अब ब्राम्हण पर दांव नहीं लगाएगी।
आईएएस का पुनर्वास केंद्र
दिल्ली में रेजिडेंट कमिश्नर की अपनी अहमियत होती हैं। भारत सरकार में स्टेट का काम फास्ट और स्मूथली हो, रेजिडेट कमिश्नर की ड्यूटी होती है। यही वजह है कि दीगर राज्यों में सीनियर अफसरों को पोस्ट किया जाता है, जिसका दिल्ली में अपना प्रभाव हो। मगर छत्तीसगढ़ में कुछेक बार ही सीनियर अफसर पोस्टेड रहे, बाकी समय यह पोस्टिंग आईएएस का पुनर्वास केंद्र रहा। जिन आईएएस अफसरों को दिल्ली नहीं छोड़ना, वे जोर-जुगाड़ लगाकर अपनी पोस्टिंग करा लेते हैं। इस समय कई आईएएस अफसरों की नजरें इस पोस्ट पर टिकी है। कुछ छत्तीसगढ़ में हैं और कुछ ऐसे हैं, जिनका सेंट्रल डेपुटेशन कंप्लीट होने वाला है। रेजिडेंट कमिश्नर का मतलब यह होता है कि दिल्ली में स्टेट पुल से मकान, गाड़ी, ड्राईवर, असिमित नौकर-चाकर समेत और भी कई सुविधाएं। काम इतना ही कि सीएम दिल्ली गए तो एयरपोर्ट जाकर रिसीव कर ले और सीएम के लौटने के बाद फिर फुरसत। बहरहाल, रेजिडेंट कमिश्नर का पद एक अनार सौ बीमार वाला बन गया है।
पोस्टिंग और किस्मत
नौकरशाहों की पोस्टिंग में किस्मत का बड़ा रोल रहता है। नीलेश श्रीरसागर के केस में आपने देखा ही। विधानसभा चुनाव से पहले उन्हें महासमुंद कलेक्टर से बुलाकर निर्वाचन में पोस्ट किया गया और लोकसभा चुनाव का कोड ऑफ कंडक्ट समाप्त होने के अगले ही दिन उन्हें कांकेर कलेक्टर बनाने का आदेश निकल गया। जशपुर, गरियाबंद और महासमुंद के बाद नीलेश का यह चौथा जिला होगा। नीलेश का लक रहा कि कांकेर जैसा बढ़ियां जिला मिल गया और अभिजीत का हार्ड लक देखिए कि पूरा चुनाव संपन्न करा दिया। काउंटिंग के आखिरी समय में वे हिट विकेट होकर अपना विकेट गंवा बैठे। इसे ही कहते हैं किस्मत अपनी-अपनी। न वे अभिजीत आउट होते और न नीलेश की इतनी जल्दी पोस्टिंग मिलती। ऐसा तो नीलेश ने सोचा भी नहीं होगा।
कांकेर, चुनाव और विवाद
कांकेर ऐसा जिला है, जहां आमतौर पर चुनाव के दौरान कोई सियासी बवाल खड़ा होता है या फिर अधिकारी की छुट्टी हो जाती है। 2009 के लोकसभा चुनाव में तत्कालीन एसडीएम भुवनेश यादव का बीजेपी के सांसद प्रत्याशी सोहन पोटाई से भीड़ लेकर कलेक्ट्रेट में आने पर नोंकझोंक हो गई थी। इसके बाद भुवनेश को भोपालपटनम भेज दिया गया। 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान कलेक्टर डोमन सिंह हटा दिए गए थे। इस बार पूरे चुनाव पीरियड के दौरान कुछ नहीं हुआ। मगर आखिरी क्षणों में ऐसा कुछ हुआ कि कलेक्टर अभिजीत सिंह की छुट्टी हो गई। इसी कांकेर में मंतूराम पवार ने अपने ही कांग्रेस पार्टी को गच्चा देते हुए आखिरी समय में नाम वापिस लेकर पूरे छत्तीसगढ़ को हतप्रभ कर दिया था। पिछले साल कांकेर जिले के भानुप्रतापपुर में हुए उपचुनाव में बीजेपी प्रत्याशी रेप केस के मामले में गिरफ्तार कर लिए गए थे।
अंत में दो सवाल आपसे
1. क्या सरगुजा के आईजी अंकित गर्ग अब बस्तर के नए आईजी होंगे?
2. लोकसभा चुनाव के नतीजों को देखकर क्या ऐसा लगता है कि छत्तीसगढ़ में पहली बार के विधायकों को नए मंत्री बनने का मौका मिलेगा?
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