शनिवार, 11 अक्टूबर 2025

Chhattisgarh Tarkash 2025: 10 हजार करोड़ का गड्ढा

 तरकश, 12 अक्टूबर 2025

संजय के. दीक्षित

10 हजार करोड़ का गड्ढा

10 अक्टूबर की विष्णुदेव कैबिनेट की बैठक अलग मोड में हुई। फूड और मार्कफेड के अफसर प्रेजेंटेशन दे रहे थे और मंत्रिपरिषद सुन रही थी। बैठक में यहां तक बात आ गई कि अगर धान खरीदी की यही स्थिति रही तो एकाध साल बाद धान खरीदने की स्थिति नहीं रहेगी। आज की तारीख में मार्कफेड पर 38 हजार करोड़ का लोन है और इस साल ओवर परचेजिंग से राज्य के खजाने को 8 हजार करोड़ की चपत लग चुकी है। दरअसल, दिक्कत किसान और धान से नहीं, दिक्कत धान की रिसाइकिलिंग और राईस माफियाओं के खेल से है। छत्तीसगढ़ में धान खरीदी का ग्राफ इस तेजी से बढ़ रहा कि अच्छे-अच्छे कृषि वैज्ञानिक हैरान हैं। पुराने लोगों को याद होगा, 2002-03 में मात्र 18 लाख मीट्रिक टन धान की खरीदी हुई थी। 20 साल में यह नौ गुना बढ़ गई। जबकि, खेती का रकबा तेजी से कम हो रहा है। ये कहना भी कुतर्क होगा कि रेट बढ़ने से धान ज्यादा बोए जा रहे हैं। आखिर पहले भी सिर्फ धान बोए जाते थे...और कोई फसल लगाए नहीं जाते थे कि उसे बंद कर अब धान बोया जा रहा। जाहिर है, 2024-25 में सारे रिकार्ड तोड़ते हुए धान खरीदी 149 लाख मीट्रिक टन पर पहुंच गई। जबकि, जानकारों का कहना है कि छत्तीसगढ़ में वास्तविक धान 100 से 110 लाख मीट्रिक टन होना चाहिए। याने बिचौलियों और अधिकारियों की मिलीभगत से की जाने वाली रिसाइकिलिंग और दूसरे प्रदेशों से आने वाले अवैध धानों को रोक दिया जाए तो सीधे-सीधे 30 से 35 लाख मीट्रिक टन की फर्जी खरीदी रुक जाएगी। बता दें, 2024-25 में भी लिमिट से अधिक खरीदी से धान का डिस्पोजल नहीं हो पाया और खुले बाजार में नीलामी से करीब दो हजार करोड़ का नुकसान उठाना पड़ा। बहरहाल, पहली ही बार में पूरे लूज पोल तो बंद नहीं किए जा सकते। फिर भी अगर रिसाइकिलिंग और बिचौलियों पर अंकुश लगाकर 25 से 30 लाख मीट्रिक टन धान की फर्जी खरीदी अगर रोक दी गई तो खजाने का करीब 10 हजार करोड़ बचेगा, जो माफियाओं, राईस मिलरों, अधिकारियों और नेताओं की जेब में जाता है।

नारी शक्ति को कमान

राज्य सरकार ने धान खरीदी में भ्रष्टाचार को रोकने दो महिला आईएएस अधिकारियों को जिम्मेदारी सौंपी हैं। रीना बाबा कंगाले इस समय सिकरेट्री फूड और किरण कौशल एमडी मार्कफेड। सीएम सचिवालय ने इसकी प्लानिंग पहले ही कर ली थी। इसी रणनीति के तहत रीना को रेवेन्यू का अतिरिक्त प्रभार दिया गया। इसका फायदा यह हुआ कि उन्होंने राजस्व अमले से धान की फसल का क्रॉप सर्वे करा लिया। पटवारियों से गिरदावरी रिपोर्ट भी ले ली गई। अब ग्राम पंचायतों में उसे पढ़कर बताया जा रहा कि इस इलाके में एक एकड़ में इतना धान होना संभावित है। याने बिचौलियो की अब नहीं चल पाएगी। अभी तक जिन खेतों में एकड़ में 15 क्विंटल धान नहीं होते थे, वहां 21 क्विंटल का क्लेम किया जा रहा था। उपर से कैबिनेट ने ऑनलाइन धान खरीदी पर मुहर लगा दी है। भारत सरकार के साफ्टवेयर से किसानों का पंजीयन किया जाएगा। मोबाइल ऐप्प से टोकन मिलेगा और फिर बायोमेट्रिक भी होगा। जाहिर है, सिस्टम की कवायद सही रही तो राईस माफियाओं और अधिकारियों को बड़ी चोट पड़ेगी।

छत्तीसगढ़, धान और गरीबी

कृषि अर्थशास्त्री धान को गरीबी से जोड़ते ही हैं, छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी भी हमेशा कहते थे कि छत्तीसगढ़ में धान और गरीबी दोनों एक-दूसरे की पूरक है। मध्यप्रदेश के समय कभी इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया कि छत्तीसगढ़ में खेती का ट्रेंड बदला जाए। राज्य बनने के बाद अजीत जोगी ने जरूर फसल चक्र परिवर्तन के तहत मक्का, मिलेट और दलहन-तिलहन के लिए कोशिशें शुरू की थीं। मगर इसके कुछ अरसा बाद ही सरकार बदल गई। फिर दो दशक में फसल चक्र कभी चर्चा में नहीं आया। जबकि, फैक्ट है कि दूसरी फसलें कई गुना ज्यादा आमदनी दे सकती हैं। धान में एकड़ पर 20 हजार से ज्यादा नहीं बचता, वहीं मिलेट या दूसरी फसलें लगाएं तो 40 से 50 हजार रुपए की बचत हो सकती है। राजनांदगांव में छुरिया और कांकेर के पखांजूर इलाके के किसान मक्का के अलावा कुछ लगा नहीं रहे हैं आजकल। ऐसा बाकी जिलों में भी किया जा सकता है। इसकी इसलिए भी जरूरत है कि 3100 रुपए में धान खरीदी के बाद भी छोटे किसानों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं। 85 से 90 परसेंट तो छोटे ही किसान हैं। जिनके पास दो-तीन, चार एकड़ जमीनें होती हैं। कोई बड़ा खर्च आ जाए तो आज भी उन्हें कर्ज ही लेना पड़ता है।

आईपीएस दुखी

आईपीएस रॉबिंसन गुड़िया के नारायणपुर जिले के एसपी बनाने की वजह से 2020 बैच के आईपीएस दुखी हुए जा रहे हैं। उन्हें मलाल है कि बैच में जूनियर होने की वजह से रॉबिंसन को पहले एसपी बनने का मौका कैसे मिल गया। हालांकि, ये कोई पहली बार नहीं हुआ। परिस्थितिवश कई बार कलेक्टर, एसपी बनाने में उपर-नीचे हो जाता है। और...ऐसे कहें तो फिर ऋचा शर्मा को विकास शील के साथ काम ही नहीं करना चाहिए। विकास शील बैचवाइज उनसे जूनियर हैं। एसपी में बैच की सीनियरिटी को सुपरसीड कभी-कभार हो पाता है। कलेक्टरों में तो अक्सर होते रहता है। 2014 में तो 2007 बैच की शम्मी आबिदी से पहले 2008 बैच के आईएएस भीम सिंह धमतरी के कलेक्टर बन गए थे। 2013 बैच में विनीत नंदनवार चौथे नंबर पर थे, मगर कलेक्टर बनने का अवसर उन्हें पहले मिल गया। इसलिए, 2020 बैच के आईपीएस अधिकारियों को ज्यादा सेंटिमेंटल होने की जरूरत नहीं। अमित कुमार को उन्हें बुलाकर समझा देना चाहिए।

डीएफओ कांफ्रेंस का हिस्सा

अभी तक कलेक्टर-एसपी कांफ्रेंस में डीएफओ को कभी शामिल नहीं किया गया। मगर 13 अक्टूबर को कलेक्टर के साथ डीएफओ की भी सीएम क्लास लेंगे। डीएफओ को कांफ्रेंस में शामिल करने का मकसद यह है कि छत्तीसगढ़ में 40 फीसदी से अधिक जंगल है। सरकार पर्यटन पर फोकस कर रही है और सूबे में पर्यटन पर जो काम हुए हैं, वह अधिकांश फॉरेस्ट एरिया में ही हैं। उसमें फॉरेस्ट का सहयोग रहा है। वन पट्टा से कल-कारखानों को जमीन देने में फॉरेस्ट क्ल्यिरेंस की जरूरत पड़ती है। इस लिहाज से इस बार डीएफओ को अबकी इम्पॉर्टेंस दिया गया है।

सिकरेट्री, कलेक्टरों का बढ़ा बीपी

कलेक्टर-एसपी-डीएफओ काफ्रेंस इस बार अलग अंदाज में हो रहा है। एक तो होटलों या कॉफी हाउस की बजाए मंत्रालय के पांचवे फ्लोर पर सीएम सचिवालय के जस्ट बगल में बने नए ऑडिटोरियम में बैठक होगी, उपर से सचिवों का भी इस बार विभागवार प्रेजेंटेशन होगा। सोशल सेक्टर पर सरकार ज्यादा जोर दे रही, इसलिए सबसे अधिक टाईम स्कूल एजुकेशन, हेल्थ और महिला बाल विकास के एजेंडा को दिया गया है। पीडब्लूडी जैसे विभाग जिसका कलेक्टरों से खास संबंध नहीं होता, उसका कोई एजेंडा नहीं है। सारे जिलों का प्रेजेंटेशन सबके सामने डिस्प्ले होगा। जाहिर है, मुख्य सचिव नए हैं, उनके सामने पुअर पारफर्मेंस पर लाल बत्ती जलेगी तो कलेक्टरों की धड़कनें भी बढ़ेंगी। उधर, मुख्य सचिव विकास शील ने सचिवों को निर्देश दिया है कि उनके विभाग से संबंधित मिनिट्स तुरंत तैयार कर लें।

सिकरेट्री तेज, विभाग कमजोर!

हेल्थ सिकरेट्री अमित कटारिया वीरेंद्र सहवाग टाईप आगे बढ़कर खेलने वाले ब्यूरोक्रेट्स माने जाते हैं। रायपुर, रायगढ़ में पोस्टिंग के दौरान उन्होंने काम अच्छा किया था। मगर डेपुटेशन से लौटने के बाद स्वास्थ्य विभाग को ट्रेक पर लाने की उनकी कोशिशें सफल नहीं हो पा रही। अस्पतालों में दवाइयों से लेकर उपकरणों की खरीदी करने वाला सीजीएमएससी बैठ गया है। आलम यह है कि वीवीआईपी जिलों के अस्पतालों में दवाइयां नहीं मिल रही। जहां सिविल सर्जन ठीक हैं और कलेक्टर से उनका कोआर्डिनेशन हैं, वहां लोकल लेवल पर कामचलाउ दवाइयां खरीद जा रही मगर बाकी जगहों का भगवान मालिक हैं। दरअसल, दुर्ग और महासमुंद की कंपनी सीजीएमएससी के लिए दलाली का काम करती थी, उस पर कार्रवाई के बाद दवा खरीदी का सिस्टम बंद हो गया है। एसीबी और ईडी की कार्रवाई के बाद दोनों कंपनियों के साथ ही सीजीएमएससी के खटराल लोग जेल में है। अमित कटारिया को सबसे पहले सीजीएमएससी को ट्रैक पर लाना चाहिए, वरना जितनी देरी होगी, सरकार के लिए उतनी मुसीबतें बढ़ेंगी। और हां...कम-से-कम वीआईपी जिले को पर तो एक्स्ट्रा फोकस करना ही चाहिए।

कलेक्टर अच्छे, मगर...

सरकार ने अधिकांश बड़े और महत्वपूर्ण जिलों में कलेक्टर तो अच्छे तैनात कर दिए हैं मगर उनके अधीनस्थों की पूछेंगे तो सारे कलेक्टर व्यथित मिलेंगे। सरकार को देखना चाहिए कि सभी में नहीं तो कम-से-कम आठ-दस बड़े जिलों में डिस्ट्रिक्ट लेवल पर अच्छे अधिकारियों को तैनात किया जाए। दो जिले की खबर है...सीएमओ, डीईओ और डिप्टी डायरेक्ट एग्रीकल्चर पेड पोस्टिंग कोटे से बड़े जिले तो पा लिए मगर उन्हें विभाग की बेसिक चीजें नहीं पता। ऐसे में, सरकार कितना भी तेज-तर्रार कलेक्टर पोस्ट कर दें, उसे फेल होना ही है। आखिर, अच्छे कप्तान को अच्छा हैंड भी तो चाहिए। मुख्य सचिव विकास शील और पीएस टू सीएम सुबोध सिंह को इसे भी देखना चाहिए।

कलेक्टर से पहले मंत्रालय

सीएम सचिवालय ने प्रशासनिक सुधार की दिशा में एक अहम कदम उठाते हुए कलेक्टर बनने से पहले अब मंत्रालय की पोस्टिंग जरूरी करने जा रहा है। सिस्टम में बैठे लोगों का मानना है कि मंत्रालय में डिप्टी सिकरेट्री के तौर पर एक पोस्टिंग कर लेने के बाद कलेक्टर बनने पर बहुत सारी चीजें उसके लिए इजी हो जाएगी। क्योंकि, मंत्रालय के सिस्टम से वह भलीभांति वाकिफ रहेगा। वैसे छत्तीसगढ़ में अफसरों की कमी थी, इसलिए इस पर कभी ध्यान नहीं दिया गया। वरना, तेलांगना, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में ये सिस्टम पहले से है। सरकार इस पर विचार कर रही कि आईएएस में आने के बाद कम-से-कम सात साल बाद जिलों में कलेक्टर बनाया जाए। मध्यप्रदेश के दौर में आठ-नौ साल से पहले जिले की कलेक्टरी नहीं मिलती थी। कई बार 10-10 साल हो जाता था। अभी भी दूसरे राज्यों में ये पीरियड सात-से-आठ साल है। देश में अभी सिर्फ छत्तीसगढ़ ऐसा राज्य है, जहां छह साल में कलेक्टरी मिल जा रही। आईएएस के तौर पर मैच्योरिटी कम होने से जिलों में कलेक्टरों की वर्किंग प्रभावित हो रही। छत्तीसगढ में कलेक्टर नाम की संस्था पंगु होती जा रही, इसके पीछे ये भी एक बड़ी वजह है।

अंत में दो सवाल आपसे?

1. क्या ये सही है कि छत्तीसगढ़ में सत्ताधारी पार्टी के नेताओं द्वारा सेल्फ गोल मारे जा रहे हैं?

2. हर सरकारें कहती हैं, पुलिस कर्मियों को बस्तर में अब रोटेशन के आधार पर पोस्टिंग दी जाएगी, मगर धरातल पर वह उतर क्यों नहीं पाता?

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